सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 157: आदेश 26 नियम 10 के प्रावधान

Shadab Salim

23 March 2024 9:02 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 157: आदेश 26 नियम 10 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 26 कमीशन के संबंध में है। यहां सीपीसी में कमीशन का अर्थ न्यायालय के कामों को किसी अन्य व्यक्ति को देकर न्यायालय की सहायता करने जैसा है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही आदेश 26 के नियम 10 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-10 कमिश्नर के लिए प्रक्रिया (1) कमिश्नर ऐसे स्थानीय निरीक्षण के पश्चात् जो वह आवश्यक समझे और अपने द्वारा लिए गए साक्ष्य को लेखबद्ध करने के पश्चात अपने द्वारा हस्ताक्षरित अपनी लिखित रिपोर्ट सहित ऐसे साक्ष्य के न्यायालय को लौटाएगा।

    (2) रिपोर्ट और अभिसाक्ष्य वाद में होंगे। कमिश्नर की वैयक्तिक रूप से परीक्षा की जा सकेगी- कमिश्नर की रिपोर्ट और उसके द्वारा लिया गया साक्ष्य (न कि साक्ष्य रिपोर्ट के बिना) वाद में साक्ष्य होगा और अभिलेख का भाग होगा, किन्तु न्यायालय या न्यायालय की अनुज्ञा से वाद में के पक्षकारों में से कोई भी पक्षकार, कमिश्नर की वैयक्तिक रूप से परीक्षा खुले न्यायालय में उन बातों में से किसी के बारे में जो उसे निर्देशित की गई थी या जिनका वर्णन उसकी रिपोर्ट में है या उसकी रिपोर्ट के बारे में या उस रीति के बारे में जिसमें उसने अन्वेषण किया है, कर सकेगा।

    (3) जहाँ न्यायालय किसी कारण से कमिश्नर की कार्यवाहियों से असंतुष्ट अतिरिक्त जाँच करने के लिए निदेश दे सकेगा जो वह ठीक समझे।

    कमिश्नर द्वारा कार्यवाही (उपनियम 1) कमिश्नर निम्न प्रकार से कार्यवाही करेगा-

    (1) स्थानीय निरीक्षण करेगा, जो वह आवश्यक समझे, और

    (3) अपनी लिखित रिपोर्ट तैयार करेगा, जिसे वह हस्ताक्षरित करेगा, और को लौटाएगा। आवश्यक साक्ष्य लेखबद्ध करेगा।

    (4) ऐसे साक्ष्य सहित अपनी रिपोर्ट न्यायालय रिपोर्ट व साक्ष्य का महत्त्व

    कमिश्नर की रिपोर्ट और उसके साथ उसके द्वारा लिया गया साक्ष्य उस वाद में का भाग होगा, परन्तु रिपोर्ट के बिना साक्ष्य का महत्त्व नहीं होगा। कमिश्नर की। में साक्ष्य होगा और अभिलेख रिपोर्ट साक्ष्य से अधिक कुछ नहीं है। यदि ऐसी रिपोर्ट विश्वास योग्य नहीं है तो तो न्यायालय ऐसी सी रिपोर्ट रिपोर्ट को खारिज कर सकता है।

    परन्तु कोई पक्षकार न्यायालय की अनुमति लेकर कमिश्नर (आयुक्त) खुले न्यायालय में कर सकेगा, जो उन बातों के या उस अन्वेषण की रीति (तरीके) के बारे में है। बारे में होगी, जो उसकी रिपोर्ट में है या की व्यक्तिगत परीक्षा या उस रिपोर्ट के बारे में न्यायालय को उस रिपोर्ट पर किसी कारण से सन्तोष नहीं हो।

    अतिरिक्त जाँच (उपनियम-3) यदि तो वह न्यायालय ऐसी आगे जाँच करने के आदेश दे सकेगा, जो उसे ठीक लगे।

    आयुक्त की रिपोर्ट का महत्त्व अनुसचिवीय कार्य के निर्वहन के लिए कमिश्नर की रिपोर्ट और साक्ष्य, यदि उसने उसे स्वयं अभिलिखित किया है, नियम 10 (2) के अधीन वाद में अभिलेख का भाग होगा।

    वैज्ञानिक अन्वेषण- हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट- हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट वैज्ञानिक अन्वेषण के अन्तर्गत आती है। आदेश 26 नियम 10 (सपठित साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 45) के अधीन हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट का अपना महत्त्व है। नियम है। नियम 10 को लागू करके हस्तलेख विशेषज्ञ की रिपोर्ट साक्ष्य में ग्राह्य है किन्तु ऐसा साक्ष्य निश्चायक नहीं है।

    कमिश्नर की प्रीक्षा की अनुमति (आदेश 26 का नियम 10) - यदि कमिश्नर की रिपोर्ट के विरुद्ध किसी पक्षकार ने आक्षेप नहीं फाइल किये हैं तो सामान्यतः उसे कमिश्नर की परीक्षा करने की अनुमति न्यायालय नहीं देगा। तथापि यदि दूसरे पक्षकार द्वारा कमिश्नर की परीक्षा के पश्चात् यह प्रतीत हो कि परीक्षा रिपोर्ट से असंगत है अथवा आक्षेप न फाइल करने वाले पक्षकार को कतिपय स्पष्टीकरणों अपेक्षा है तो न्याय के हित में होगा कि उसे कमिश्नर की परीक्षा करने का अवसर दिया जाए।

    मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि कमिश्नर की सीमांकन रिपोर्ट पर उससे प्रतिपरीक्षा करने की अनुज्ञा दी जा सकती है। कमिश्नर की रिपोर्ट अस्वीकार करना- जब कमिश्नर की रिपोर्ट और न्यायालय में लेखबद्ध की गई उसकी साक्ष्य में गंभीर अन्तर हो, तो न्यायालय को ऐसी रिपोर्ट को अस्वीकार कर देना चाहिए।

    आयुक्त की परीक्षा तथा उसकी रिपोर्ट का महत्व - जब एक आयुक्त की रिपोर्ट को अभिलेख व साक्ष्य का भाग बना लिया गया, परन्तु विपक्षी ने उस आयुक्त की परीक्षा नहीं की तो निर्णय हुआ कि- वाद के प्रक्रम पर काफी देरी हो जाने के बाद विपक्षी पक्षकार यह एतराज नहीं कर सकता कि वह रिपोर्ट आयुक्त की न्यायालय में परीक्षा किए बिना स्वीकार कर ली गई थी।

    न्यायालय आयुक्त द्वारा दिये गये तथ्यों को स्वीकार कर सकता है, फिर भी वह उसके निष्कर्षों को अस्वीकार कर सकता है। यह उसका विवेकाधिकार है। आयुक्त की रिपोर्ट के बाद उसकी स्वयं की परीक्षा करने के अतिरिक्त कोई साक्ष्य लेना इस नियम द्वारा नहीं चाहा गया है, परन्तु इसके लिए मना भी नहीं किया गया है। यह दोनों मागों से संगत है और प्रश्न (बिन्दु) को प्रत्येक मामले के तथ्यों के अनुसार सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर निर्णीत (तय) किया जावेगा।

    आयुक्त की रिपोर्ट के दोषों के लिए उपचार - यह कहना सही नहीं है कि किसी भी परिस्थिति में पहली रिपोर्ट को अपास्त किए बिना न तो दूसरा आयुक्त नियुक्त किया जा सकता है और न उसी आयुक्त द्वारा पहली रिपोर्ट में नहीं लिये गये तथ्यों की विस्तृत टिप्पणी की जा सकती है।

    आदेश 26 नियम 10 (3) में आगे जांच शब्द यह बताता है और पूर्वकल्पना करता है कि उसी आयुक्त द्वारा एक जांच करना भी संभव है, यदि न्यायालय ऐसा महसूस करे। यदि पहले आयुक्त की रिपोर्ट में किसी बात पर कमी पाई जाती है, तो उचित कदम यही होगा कि उसी आयुक्त को दोष दूर करने का निर्देश दिया जाय। अधिवक्ता कमिश्नर ने मौका रिपोर्ट में पर्याप्त विवरण का अंकन नहीं किया। पुनः रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने हेतु निर्देश जारी किये गये।

    नियुक्ति- वैधता को चुनौती- जब पहले कमिश्नर ने गलतियां को, तो दोनों पक्षकारों ने दूसरा कमिश्नर नियुक्त करने पर कोई एतराज नहीं किया। दूसरे कमिश्नर की नियुक्ति से पहले उस पहले कमिश्नर की रिपोर्ट को अपास्त करने का आदेश देने पर जोर नहीं दिया जा सकता। अभिनिर्धारित कि- विपक्षी पक्षकार दूसरे कमिश्नर की नियुक्ति करने की अधिकारिता को चुनौती देने से विबन्धित (वर्जित) है।

    पहले कमिश्नर की रिपोर्ट और कार्यवाही को समाप्त (निरस्त) किये बिना दूसरे कमिश्नर की नियुक्ति करने को निरुत्साहित किया गया। प्रथम अपीलीय न्यायालय के आदेश के अधीन नियुक्त कमिश्नर की रिपोर्ट को द्वितीय अपीलीय न्यायालय ने पाया कि कमिश्नर ने नियमनिष्ठ रूप में लागू अनुदेशों को नजरअंदाज कर रिपोर्ट बनाई है। ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय को वाद खारिज करने के स्थान पर नियमनिष्ठ रूप से लागू अनुदेशों की पालना कर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए नया कमिश्नर नियुक्त करना चाहिए था या ऐसा करने के लिए मामला प्रतिप्रेषित करना चाहिए था।

    निष्पादन कार्यवाही में - नियम 10 (2) निष्पादन कार्यवाहियों को लागू नहीं होता है और आयुक्त की रिपोर्ट उसकी परीक्षा किए बिना साक्ष्य के रूप में प्रयोग में नहीं लाई जा सकती।

    न्यायालय का व्यापक अधिकार- नियमों में ऐसा कुछ भी नहीं दिया गया है, जो न्यायालय को वाद के प्रक्रम पर प्राप्त हुए साक्ष्य के प्रकाश में आयुक्त की पहले अस्वीकार की गई रिपोर्ट पर विचार करने से और उस आयुक्त की परीक्षा करने से प्रवारित (मना) करता हो।'

    पुनरीक्षण में जब हस्तक्षेप नहीं-वादी ने स्वत्व के लिए वाद किया, जिसमें न्यायालय ने वकील-आयुक्त को यह पता लगाने के लिए नियुक्त किया कि क्या वादी के भूखण्ड का कोई भाग गलती से अधिकार- अभिलेख में प्रतिवादी के भूखण्ड में सम्मिलित कर लिया गया है? आयुक्त ने अपनी रिपोर्ट दी, जिस पर प्रतिवादी द्वारा उठाये गये आक्षेपों पर विचारण-न्यायालय ने विचार किया और अपने विवेकाधिकार प्रयोग कर उस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया और प्रतिवादी के आक्षेप अस्वीकार कर दिये इसमें पुनरीक्षण में हस्तक्षेप करने योग्य कोई तात्विक अनियमितता नहीं हुई।

    केवल इस तथ्य से सिविल प्रक्रिया संहिता कि आयुक्त ने स्थानीय साक्षियों का साक्ष्य नहीं लिया, वह रिपोर्ट गलत नहीं हो जाती। यदि उच्च न्यायालय यह मान भी ले कि-रिपोर्ट में यह असंगति/गलती रह गई, जो साधारण है, तो भी धारा 115 के अधीन हस्तक्षेप के लिए यह उचित मामला नहीं होगा।। आयुक्त की नियुक्ति वैध - बेदखली के लिए वाद भवन के निवास योग्य नहीं होने के आधार पर फाइल किया गया। रिवीजन पिछले 18 वर्ष से लम्बित है। वादी मकानदार ने उस भवन की दशा का मूल्यांकन करने के लिए आयुक्त की नियुक्ति के लिए आवदेन किया। इस प्रकार आयुक्त की नियुक्ति करके न्यायालय ने अधिकारिता के बाहर कार्य नही किया।

    द्वितीय-आयुक्त की नियुक्ति को रिट याचिका में चुनौती- रिट खारिज प्रथम-आयुक्त की रिपोर्ट नांमजूर नहीं की गई और द्वितीय-आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। उसके विरुद्ध लगाये गये आरोप ऐसे नहीं थे कि उसकी नियुक्ति अवैध मान ली जाय। अभिनिर्धारित कि-द्वितीय आयुक्त की नियुक्ति के लिए विवेकाधिकार का प्रयोग सही और उचित है। रिट-अधिकारिता में इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

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