सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 149: आदेश 23 नियम 1(क), 2 एवं 3 के प्रावधान
Shadab Salim
11 March 2024 9:00 AM IST
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 23 वादों का प्रत्याहरण और समायोजन है। वादी द्वारा किसी वाद का प्रत्याहरण किस आधार पर किया जाएगा एवं किस प्रकार किया जाएगा इससे संबंधित प्रावधान इस आदेश के अंतर्गत दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 23 के नियम 1(क), 2 एवं 3 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
नियम-1(क) प्रतिवादियों का वादियों के रूप में पक्षान्तरण करने की अनुज्ञा कब दी जाएगी-जहां नियम 1 के अधीन वादी द्वारा वाद का प्रत्याहरण या परित्याग किया जाता है और प्रतिवादी आदेश 1 के नियम 10 के अधीन वादी के रूप में पक्षान्तरित किए जाने के लिए आवेदन करता है वहां न्यायालय, ऐसे आवेदन पर विचार करते समय इस प्रश्न पर सम्यक् ध्यान देगा कि क्या आवेदक का कोई ऐसा सारवान् प्रश्न है जो अन्य प्रतिवादियों में से किसी के विरुद्ध विनिश्चय किया जाना है।
नियम-2 परिसीमा विधि पर पहले वाद का प्रभाव नहीं पड़ेगा-अन्तिम पूर्ववर्ती नियम के अधीन दी गई अनुज्ञा पर संस्थित किसी भी नए वाद में वादी परिसीमा विधि द्वारा उसी रीति से आबद्ध होगा मानो प्रथम वाद संस्थित नहीं किया गया हो।
नियम-3 वाद में समझौता-जहां न्यायालय को समाधानप्रद रूप में यह साबित कर दिया जाता है कि वाद (पक्षकारों द्वारा लिखित और हस्ताक्षरित] किसी विधिपूर्ण करार या समझौते के द्वारा पूर्णतः या भागतः समायोजित किया जा चुका है या जहां प्रतिवादी वाद की पूरी विषय वस्तु के या उसके किसी भाग के सम्बन्ध में वादी की तुष्टि कर देता है वहां न्यायालय ऐसे करार, समझौते या तुष्टि के अभिलिखित किए जाने का आदेश करेगा और [जहां तक कि वह वाद के पक्षकारों से सम्बन्धित है।
चाहे करार, समझौते या तुष्टि की विषय वस्तु वही हो या न हो जो कि वाद की विषय-वस्तु है वहां तक तद्नुसार डिक्री पारित करेगाः
[परन्तु जहां एक पक्षकार द्वारा यह अभिकथन किया जाता है और दूसरे पक्षकार द्वारा यह इंकार किया जाता है कि कोई समायोजन या तुष्टि तय हुई थी वहां न्यायालय इस प्रश्न का विनिश्चय करेगा, किन्तु इस प्रश्न के विनिश्चय के प्रयोजन के लिए किसी स्थगन की मंजूरी तब तक नहीं दी जाएगी जब तक कि न्यायालय, कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, ऐसा स्थगन मंजूर करना ठीक न समझे।
स्पष्टीकरण-कोई ऐसा करार या समझौता जो भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) के अधीन शून्य या शून्यकरणीय है, इस नियम के अर्थ में विधिपूर्ण नहीं समझा जाएगा।
पक्षान्तरण का अधिकार- नियम 1(क) के तहत जहाँ न्यायालय वादी को नियम 1 के अधीन वाद का परित्याग या प्रत्याहरण करने की अनुमति देता है एवं प्रतिवादी, वादी के रूप में पक्षान्तरण की अनुमति चाहता है वहाँ न्यायालय यह देखेगा कि क्या पक्षान्तरण चाहने वाले प्रतिवादी का वाद की विषय वस्तु में कोई हित निहित है एवं अन्य प्रतिवादीगण के विरुद्ध एक सारभूत प्रश्न का न्याय निर्णयन किया जाना है। ऐसी परिस्थिति में न्यायालय पक्षान्तरण की अनुमति अनुज्ञात कर सकेगा। जहां अपील के परिक्षेत्र के बढ़ने की संभावना हो, तो न्यायालय प्रत्यर्थी को अभ्यर्थी बनाते हुए पक्षान्तर करना नहीं चाहेगा। इसी प्रकार अपील-न्यायालय भी अपने पक्षान्तरण के अधिकार का प्रयोग नहीं करेगा, जहां ऐसे पक्षान्तरण से अभिलेख पर आये आधारों से भिन्न नये आधार आने की संभावना है।
आदेश 23, नियम 3 वाद में पक्षकारों के बीच समझौता (राजीनामा) संबन्धी प्रक्रिया का विवरण देता है।
एक समझौता डिक्री परित करने के लिए नियम 3 में निम्नलिखित शर्तें दी गई हैं-
(1) न्यायालय का समाधान होना चाहिये कि यह साबित (प्रमाणित) हो गया है कि पक्षकारों के बीच समझौता हो गया है।
(2) ऐसा समझौता-(ⅰ) लिखित में है और (ii) पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित है, जिसमें (iii) विधिपूर्ण करार या समझौता हो गया है, जो भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अधीन शून्य या शून्यकरणीय नहीं है।
(3) प्रतिवादी ने वाद की पूरी विषयवस्तु या उसके भाग के बारे में वादी की तुष्टि (समाधान) कर दी है;
(4) ऐसी स्थिति में न्यायालय उस करार, समझौते या तुष्टि को अभिलिखित किए जाने का आदेश देगा और उसी के अनुसार डिक्री पारित करेगा।
(5) चाहे करार, समझौते या तुष्टि की विषयवस्तु कोई भी हो।
(6) वाद के पक्षकारों में समझौता न्यायालय में भी हो सकता है ऐसा समझौता डिक्री का भाग होगा।
(7) समझौता डिक्री का निष्पादन-पक्षकारों की सहमति से न्यायालय द्वारा पारित की गई डिक्री का निष्पादन भी करवाया जा सकता है
विवाद होने पर न्यायालय द्वारा विनिश्चय- (परन्तुक) - परन्तु यदि उस समायोजन या तुष्टि के बारे पक्षकारों में विवाद उठ जाए, तो उसका विनिश्चय (निर्णय) न्यायालय करेगा। इस कार्यवाही के लिए स्थगन केवल तभी दिया जा सकेगा, जब उसके लिये पर्याप्त कारण हों और उन कारणों को न्यायालय ठीक समझे और लेखबद्ध करे। पुष्पादेवी बनाम रजिन्द्रसिंह, एआईआर 2006 एससी 2628 न्याय निर्णयन को दृष्टिगत रखते हुए मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय निर्धारित किया कि समझौता डिक्री को अपास्त करने के मुकेश बनाम धरमसिंह' प्रकरण में निर्णीत लिए वाद नहीं लाया जा सकता बल्कि समझौता डिक्री पारित करने वाले न्यायालय के समक्ष ही उक्त डिक्री को अपास्त करने के लिए आवेदन करना चाहिए।
समझौता लिखित व दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित होना आवश्यक - 1976 के संशोधन के बाद की विधिक-स्थिति की समीक्षा-समझौता लेखबद्ध करने के आदेश के विरुद्ध न अपील, न अलग से वाद न्यायालयों का अनुभव यह रहा है कि अनेक अवसरों पर पक्षकार समझौते की अर्जियाँ, जिनके आधार पर डिक्रियाँ तैयार की गई, दाखिल करने के बाद ऐसे समझौते की विधिमान्यता किसी न किसी आधर पर प्रश्नगत करते हैं। ऐसी डिक्रियों को अपास्त कराने के लिए वाद दाखिल किये जाते थे जो वर्षों तक चलते रहते थे, जिनमें विभिन्न न्यायालय में अपीलें भी थीं।
न्यायालयों की और जनता की कठिनाई को देखते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 ने संहिता के आदेश 23 में अनेक संशोधन किए जिनमें वाद को वापस लेने और उसके समायोजन के सम्बन्ध में उपबन्ध भी है। संहिता के आदेश 23 का नियम 1 विहित कर्ता है कि वाद संस्थित किए जाने के बाद किसी समय वादी अपना वाद परित्यक्त कर सकता है या अपने दावे का एक भाग परित्यक्त कर सकता है।
नियम 1(3) में उपबन्ध है कि जहाँ न्यायालय का समाधान हो जाता है कि- (क) वाद किसी प्ररूपिक त्रुटि के कारण विफल हो जाएगा, अथवा (ख) वाद की विषय-वस्तु या दावे के ऐसे भाग के सम्बन्ध में नया वाद संस्थित करने की स्वतन्त्रता के साथ ऐसा वाद वापस लेने की अनुज्ञा दे सकेगा। नियम 1(4) के अनुसार, यदि वादी अपना वाद परित्यक्त कर दे या उपर्युक्त अनुज्ञा के बिना वापस ले ले तो वह ऐसी विषयवस्तु के बारे में कोई नया वाद संस्थित करने से प्रवारित होगा।
आदेश 23 का नियम 3, जिसमें कि वाद में समझौते के विषय में प्रक्रिया दी हुई है, और भी संशोधित किया गया, जिससे कि समझौते की डिक्री को प्रश्नगत करके तंग करने और थकाने वाली मुकदमेंबाजी कम हो। नियम 2 में कुछ विशेष अपेक्षाएँ जोड़ी गई जो न्यायालय द्वारा समझौता अभिलिखित किए जाने के पूर्व पूरी होनी चाहिए, जिनमें यह भी है कि विधिपूर्ण करार या समझौता लिखित रूप में और पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। उसमें एक परन्तुक तथा एक स्पष्टीकरण भी जोड़े गए।
स्पष्टीकरण सहित परन्तुक जोड़ने में संशोधन अधिनियम का प्रयोजन और उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि समझौते को प्रश्नगत करने वाले पक्षकार को विवश किया जाए कि वह उसे उसी न्यायालय में प्रश्नगत करे जिसमें प्रश्नगत समझौता लेखबद्ध किया गया। उस न्यायालय को आदेश दिया गया कि इस विवाद का निर्णय करे कि क्या पक्षकारों में समायोजन विधिपूर्ण ढंग से हुआ।
स्पष्टीकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि जो करार या समझौता संविदा अधिनियम के अधीन शून्य या शून्यकरणीय है वह उक्त नियम के अर्थों में विधिपूर्ण नहीं समझा जाएगा। वादों का बाहुल्य और लम्बी मुकदमेबाजी से बचने के लिए नियम 3 में स्पष्टीकरण सहित परन्तुक जोड़ देने के बाद नियम 3-क में विनिर्दिष्ट रूप से कह दिया कि समझौते के आधार पर हुई डिक्री अपास्त कराने के लिए अलग वाद नहीं संस्थित किया जाएगा।
पहले आदेश 23, नियम 3 के अधीन करार, समझौता या तुष्टि लेखबद्ध करने अथवा लेखबद्ध करने से इंकार करने के आदेश के विरुद्ध अपील आदेश 43, नियम 1(ङ) के अधीन हो सकती थी। किन्तु उपर्युक्त संशोधन अधिनियम ने वह खंड काट दिया, जिसका परिणाम यह है कि अब आदेश 23, नियम 3 के अधीन करार या समझौता लेखबद्ध करने या लेखबद्ध करने से इंकार करने के आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती। इस बात का ध्यान करते हुए कि समझौता लेखबद्ध करने या समझौता लेखबद्ध करने से इंकार करने के आदेश के विरुद्ध कोई अपील का अधिकार ले लिया गया है, आदेश 43 में एक नया नियम 1-क जोड़ा गया।
संहिता की धारा 96(3) में कहा गया है कि पक्षकारों के समझौते के विरुद्ध जो डिक्री न्यायालय ने परित की है उसकी कोई अपील नहीं होगी। नियम 1-क (2) जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि समझौता लेखबद्ध करने के बाद वाद में पारित डिक्री के विरुद्ध अपीलार्थी को अनुमत होगा कि डिक्री का विरोध इस आधार पर करे कि समझौता लेखबद्ध नहीं किया जाना चाहिए था। पक्षकारों की सम्मति से पारित डिक्री के विरुद्ध अपील वर्जित करती है तो वह विवक्षित है कि डिक्री विधिमान्य और पक्षकारों पर आबद्धकर हो, सिवाय तब के जब कि उसे विधिमान्य और पक्षकारों को उपलब्ध प्रक्रिया से अपास्त कर दिया जाए। ऐसा एक उपचार आदेश 43, नियम 1(ङ) के अधीन अपील दाखिल करने का उपलब्ध था।
यदि समझौता अभिलिखित करने का आदेश अपास्त किया जाए तो डिक्री के विरुद्ध अपील दाखिल करने की कोई आवश्यकता या अवसर नहीं रह जाता था। इसी प्रकार से ऐसी डिक्री को इस आधार पर अपास्त करने के लिए वाद दाखिल किया जाता था कि डिक्री अविधिमान्य या अवैध समझौते पर आधारित है जो द्वितीय वाद के वादी पर आबद्धकर नहीं है।
किन्तु संशोधन जोड़े जाने के बाद उन मामलों में जो आदेश 23, नियम 3-क में आ जाते हैं न तो समझोता लेखबद्ध करने के आदेश के विरुद्ध अपील की जा सकती है और न वाद दाखिल करने के रूप में उपचार उपलब्ध है। अतः आदेश 43, नियम 1-क (2) के अधीन एक अधिकार उस पक्षकार को दिया गया है कि समझौते के लेखबद्ध किए जाने की विधिमान्यता को तब प्रश्नगत करे जब कि डिक्री के विरुद्ध अपील करे। ऐसी अपील को संहिता के अंतर्गत वर्जित नहीं करेगी क्योंकि धारा 96(3) उन मामलों को लागू होती है जहां कि समझोते या करार का तथ्य विवादित नहीं है।
समझौता (सहमति) डिक्री का स्वरूप और महत्त्व (न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत)- के अधीन पक्षकारों में समझौता हो जाने को आदेश 23 नियम 3 दशा में न्यायालय के लिए समझौता के अनुरूप डिक्री पारित करना आवश्यक है। यह प्रावधान आज्ञापक है। आदेश 23 नियम 3 के अधीन समझौता हो जाने पर न्यायालय द्वारा डिक्री नहीं बनाये जाते पर आदेश 20 नियम 6(क) सपठित धारा 151 के अधीन डिक्रीदार को डिक्री पर्चा बनाये जाने के लिए आवेदन करना चाहिए।
समझौता डिक्री का महत्त्व - न्यायालय के समक्ष पक्षकारों द्वारा किए गए समझौते के निबंधनों के अनुसार डिक्री का वही बल होता है, जो किसी अन्य डिक्री का। समझौता डिक्री को प्रकृति संविवाद जैसी न होकर उससे कुछ अधिक है। समझौते पर आधारित निर्णय को विधिमान्यता समझौते की संविदा की विधिमान्यता पर निर्भर करती है-यदि समझौते का करार शून्य है तो उसके अनुसार निर्णय हो जाने वे वह विधिमान्य नहीं हो जाता। यह पूर्णरूप उस संविदा की वैधता पर निर्भर करती है, जिस पर उसे आधारित किया गया है।
उसे उन्हीं आधारों पर अपास्त किया जा सकता है, जिन पर किसी करार को अपास्त करना न्यायोचित होता है। प्रत्यर्थी के निवेदन पर समझौते का तथ्य नोट करने लिए लोक अदालत में प्रकरण भेजा। याची (Petitioner) ने लोक अदालत के पंचाट (Award) को इस आधार पर चुनौती दी कि उसकी सहमति उत्पीड़न (Coercion) से प्राप्त की थी।
उत्पीड़न का तथ्य या धोखे से प्राप्त किया गया पंचाट एक तथ्य का प्रश्न है, इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि लोक अदालत में जो समझौता हुआ वह दूषित (vitiated) हो गया। कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ स्वत्व को घोषणा के वाद में समझौता डिक्रों के अन्तर्गत वादी द्वारा प्रतिवादी को सम्पत्ति का स्वामी होना स्वीकार कर लिया हो, वहाँ वादी ऐसी डिक्री की शर्तों से आबद्ध होगा।
व्यतिक्रम (चूक) सम्बन्धी खण्ड का दाण्डिक स्वरूप-
एक वाद में एक समझौते के करार में व्यतिक्रम सम्बन्धी खण्ड को उस मामले के तथ्यों पर दण्डित नहीं माना गया। यह भी अधिनिर्धारित कि उच्च न्यायालय का आदेश, जो प्रतिवादी का समझौते के अधीन अत्यधिक देरी से भुगतान करने की अनुमति देता है, उचित नहीं कहा जा सकता। इस मामले में पहली किश्त यथासमय अदा हो गई। किन्तु दूसरी किश्त अदा न हुई।
इधर उच्च न्यायालय में अपील की डिक्री भी बन गई। अदायगी न होने पर वादी ने प्रतिवादी द्वारा पहले अदा किए गए 10,000 रु. प्रतिवादी सं. 1 को वापस किए जाने के लिए न्यायालय को इजाजत से जमा कर दिए। फिर 28.8.1981 को प्रतिवादी सं. 9 ने शेष 30,000 रु. की अदायगी के लिए समय दिए जाने के लिए आवेदन दिया। उच्च न्यायालय ने 31.8.1981 को समय बढ़ा दिया। अतः वादी ने यहाँ अपील की।
इस मामले में प्रतिवादी का आवेदन मंजूर करने के पहले वादी को कोई नोटिस नहीं भेजा गया। उसके वकील को सूचना दी गई; किन्तु उन्होंने वादी का प्रतिनिधित्व करने से इन्कार कर दिया और अनुरोध किया कि वादी को नोटिस भेजा जाए। इस न्यायालय ने सिविल न्यायाधीश से सम्पत्ति का मूल्यांकन कराया और उससे प्रकट हुआ कि विवादित 1/6 हिस्से का बाजार मूल्य 2,31,716 रु. है। वादी का तर्क यह है कि समझौते में परिवर्तन पक्षकार की सहमति से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रत्यर्थी की ओर से बहस की गई यह शर्त कि नियत तारीख तक रुपए न जमा किए गए तो प्रतिवादी उस हिस्से का हकदार नहीं रहेगा, शास्ति-स्वरूप है; अतः उसको उपेक्षा की जानी चाहिए।
प्रतिवादी के तर्क में कोई बल नहीं है। वादी अपने हिस्से की सम्पत्ति कम मूल्य पर दे रहा था और शर्त यह जोड़ी गई कि यदि वह इस रियायत का लाभ उठाना चाहता है तो नियत समय के भीतर उक्त राशि जमा कर दे, अन्यथा वह रियायत का हकदार नहीं होगा। अतः उसे यहाँ रियायत से वंचित किया गया, न कि कोई दण्ड दिया गया।
जहाँ तक उच्च न्यायालय के समय बढ़ाने का प्रश्न है, उसके लिए औचित्य नहीं था। इससे पूर्व के एक वाद में उपर्युक्त निर्णय में ही कहा गया है कि जब न्यायालय को समय बढ़ाने का अधिकार हो तब भी समय उचित कारण के बिना नहीं बढ़ाया जा सकता। प्रस्तुत मामले में कोई ऐसा कारण नहीं था। स्वयं उच्च न्यायालय पहले वादी द्वारा 10,000 रुपये की वापसी पर विचार करके उसके पक्ष में आदेश दे चुका था। वादी को नोटिस भी भेजा जाना चाहिए था। जब अपील का निर्णय हो चुका था तो यह आग्रह नहीं किया जा सकता था कि अपील वाला वकील अब भी उसका प्रतिनिधित्व करता है।