सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 148: आदेश 23 नियम 1 के प्रावधान

Shadab Salim

11 March 2024 2:30 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 148: आदेश 23 नियम 1 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 23 वादों का प्रत्याहरण और समायोजन है। वादी द्वारा किसी वाद का प्रत्याहरण किस आधार पर किया जाएगा एवं किस प्रकार किया जाएगा इससे संबंधित प्रावधान इस आदेश के अंतर्गत दिए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 23 के नियम 1 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-1 वाद का प्रत्याहरण या दावे के भाग का परित्याग (1) वाद संस्थित किए जाने के पश्चात् किसी भी समय वादी सभी प्रतिवादियों या उनमें से किसी के विरुद्ध अपने वाद का परित्याग या अपने दावे के भाग का परित्याग कर सकेंगा।

    परन्तु जहां वादी अवयस्क है या ऐसा व्यक्ति है, जिसे आदेश 32 के नियम 1 से नियम 14 तक के उपबन्ध लागू होते हैं वहां न्यायालय की इजाजत के बिना न तो वाद का और न दावे के किसी भाग का परित्याग किया जाएगा।

    (2) उपनियम (1) के परन्तुक के अधीन इजाजत के लिए आवेदन के साथ वाद-मित्र का शपथपत्र देना होगा और यदि अवयस्क या ऐसे अन्य व्यक्ति का प्रतिनिधित्व प्लीडर द्वारा दिया जाता है तो, प्लीडर इस आशय का प्रमाणपत्र देना होगा कि प्रस्थापित परित्याग उसकी राय में अवयस्क या ऐसे अन्य व्यक्ति के फायदे के लिए है।

    (3) जहां न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि-

    वाद त्रुटि के कारण विफल हो जाएगा, अथवा

    (क) वाद किसी प्ररूपिक (ख) वाद की विषय-वस्तु या दावे के भाग के लिए नया वाद संस्थित करने के लिए वादी को अनुज्ञात करने के पर्याप्त आधार है, वहां वह ऐसे निबन्धनों पर जिन्हें वह ठीक समझे, वादी को ऐसे वाद की विषय-वस्तु या दावे के ऐसे भाग के सम्बन्ध में नया वाद संस्थित करने की स्वतंत्रता रखते हुए ऐसे वाद से या दावे के ऐसे भाग से अपने को प्रत्याहृत करने की अनुज्ञा दे सकेगा।

    4) जहां वादी-

    (क) उपनियम (1) के अधीन किसी वाद का या दावे के भाग का परित्याग करता है, अथवा

    (ख) उपनियम (3) में निर्दिष्ट अनुज्ञा बिना वाद से दावे के भाग से प्रत्याहूत कर लेता है,

    वहां ऐसे खर्च के लिए दायी होगा जो न्यायालय अधिनिर्णीत करे और वह ऐसी विषय-वस्तु या दावे के ऐसे भाग के बारे में कोई नया वाद संस्थित करने से प्रवारित होगा।

    (5) इस नियम की किसी बात के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि वह न्यायालय का अनेक वादियों में से एक वादी को उपनियम (1) के अधीन वाद या दावे के किसी भाग का परित्याग करने या किसी वाद या दावे का अन्य वादियों की सहमति के बिना उपनियम (3) के अधीन प्रत्याहरण करने की अनुज्ञा देने के लिए प्राधिकृत करती है।

    आदेश 23, नियम 1 वाद के प्रत्याहरण या दावे के भाग के परित्याग सम्बन्धी नियमों का उल्लेख करता है।

    प्रत्याहरण (withdrawal) का अर्थ है, वाद या दावे को 1 के उपनियम (3) में वापस लेना। इसके लिए आगे नियम न्यायालय की अनुज्ञा (अनुमति) से वाद का वापस लिये जाने का उपबन्ध है। बिना अनुज्ञा के वाद या दावे के भाग को वापस लेने पर वह उसी विषय में दूसरा वाद नहीं ला सकेगा।

    प्रत्याहरण की अनुमति देने के बाद न्यायालय की स्थिति पदकार्य निवृत (Functus officio) की हो जाती है, प्रत्याहरण की अनुमति देने के बाद यदि अपीलीय न्यायालय द्वारा बिना कारण बताये कोई अतिरिक्त अनुतोष प्रदान करना उचित नहीं है। दावे को प्रत्याहरण की अनुमति देने का आदेश डिक्री नही माना जा सकता। वाद का प्रत्याहरण वादी का अधिकार है। प्रत्याहरण की अनुमति मांगा जाना केवल शिष्टाचार एवं आदर दर्शाता है एवं अनुमति दिया जाना विवेकाधिकार नहीं है बल्कि सामान्य अनुक्रम है।

    परित्याग-(abandonment) - नियम 1 के उपनियम (1) में वाद का या दावे का भाग परित्याग करने (छोड़ देने, त्याग देने) का उपबंध किया गया है, जिसके लिए न्यायालय की कोई अनुज्ञा लेना आवश्यक नहीं है, परन्तु अवयस्क के मामले में न्यायालय की अनुज्ञा (इजाजत) लेनी आवश्यक होगी।

    वाद वर्जित - उपनियम (1) के अधीन वाद या दावे का परित्याग करने पर या उपनियम (3) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा लिए बिना वाद या दावे के भाग का प्रत्याहरण (वापस) करने पर दो परिणाम होंगे- (1) वह वादी खर्चे के लिए दायी होगा, जो न्यायालय तय करेगा और (2) उसी विषय-वस्तु पर नया वाद नहीं ला सकेगा।

    स्पष्टीकरण अन्य वादियों की सहमति आवश्यक - उपनियम (5) यह स्पष्ट करता है कि - इस नियम का यह अर्थ नहीं लगाया जावेगा कि- अनेक वादियों में से एक वादी को उपनियम (1) के अधीन वाद या दावे के भाग का परित्याग करने या उपनियम के अधीन उनका प्रत्याहरण करने के लिए अन्य वादियों की सहमति लिए बिना न्यायालय को अनुमति देने का अधिकार दे दिया गया है। ऐसी स्थिति में सहवादियों की सहमति आवश्यक होगी।

    वाद या दावे का एक भाग का प्रत्याहरण या परित्याग-न्यायालय निर्णय [ उप नियम (1)] - कोई भी वादी वाद के संस्थित किए जाने के पश्चात् अपना वाद वापस ले सकता है या अपने दावे या उसके भाग का परित्याग कर सकता है। दावे के ऐसे वापस लेने या परित्याग के लिए न्यायालय का आदेश आवश्यक नहीं है।

    लोकनीति का सिद्धान्त - आदेश 23, नियम 1 में यह सिद्धान्त निहित है कि विधि किसी व्यक्ति को उस अधिकार को प्रदान नहीं करती, जिसकी वह इच्छा नहीं करता है। हालांकि यह सिद्धान्त लोकनीति पर आधारित है, परन्तु यह पूर्वन्याय से भिन्न है। एक अंतर्वर्ती आवेदन को न्यायालय की अनुमति के अभाव में प्रत्याहारत कर लिया जाने के पश्चात् उसी विषयवस्तु पर द्वितीय अन्तर्वतों आवेदन लोक नीति के सिद्धान्त के कार करने पर उसी वाद हेतुक पर कारण पोषणीय नहीं है। रिट पिटीशन बिना शर्त प्रत्याहरित पर लोकनीति के आधार पर नई रिट प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

    अधिकार का अभित्यजन और परित्याग करना - दूसरा वाद वर्जित- -वाद के प्रत्याहरण (वापस लेने) और उसका परित्याग करने (छोड़ देने) में विधि का सिद्धान्त यह है कि-विधि एक मनुष्य को कोई अधिकार या लाभ प्रदान नहीं करती, जो यह नहीं चाहता है अतः पहले वाद को, नया याद फाइल करने की अनुमति लिए बिना वापस लेने पर दूसरा वाद वर्जित होगा। यहाँ कोई न्याय-निर्णयन नहीं पर इसलिए कि जो अपने अधिकार हुआ, अतः पूर्वन्याय का सिद्धान्त नहीं होगा, लागू नहीं का अभित्यजन, परित्याग या त्याग कर देता है, वह उसे खो देता है।

    धारा 11 व आदेश 23 के नियम 1 व 4 में अन्तर - पहली अर्जी (रिट) वापस लेने पर दूसरी रिट-अर्जी वर्जित- पहली अर्जी का निर्णय गुणागुण के है। संहिता के आदेश 23 का नियम 1 यहाँ लागू आधार पर नहीं हुआ, यह प्रश्न यहाँ नहीं नहीं होता, किन्तु उसका सिद्धान्त लागू होना चाहिए।

    उक्त नियम के अनुसार यदि कोई वाद उसी वाद-हेतुक के आधार पर नया वाद दाखिल करने को अनुज्ञा के बिना वापस ले लिया जाता है, तो उसी आधार पर नया वाद अग्राह्य हो संशोधन के वाद उक्त नियम 1 के अधीन स्थिति यह हो गई है कि जब वादी अपने दावे का परित्याग जाता है।

    1976 के (abandon) कर दे या नए वाद की अनुज्ञा के बिना उसे वापस ले ले तो उसी विषय में वह दूसरा दावा नहीं कर सकेगा। यह सिद्धान्त रिट-अर्जियों के संबंध में भी लागू करना न्याय के हित में होगा। धारा 11 तभी लागू होती है, जब कोई वाद या प्रश्न सुनवाई के बाद अंतिम रूप से तय कर दिया गया हो, जब कि आदेश 23 3 के नियम 1 व 4 गया हो या या न्यायालय से पुनः प्रस्तुत करने की वहाँ लागू होते हैं, जहाँ वाद का परित्याग कर दिया अनुमति लिये बिना उसे ले गया हो। ऐसी दशा में दूसरा वाद न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग के कारण बाधित होगा।

    किये गये आवेदन/याचिका को की सीमा या प्रक्रम - (आदेश 23, नियम 1) वाद को अपने द्वारा फाइल प्रत्याहरण (withdrawal) प्रत्याहृत (विदड्रा) करने का तब तक विधिक अधिकार प्राप्त होता है जब तक कि न्यायालय द्वारा ऐसे/ऐसी आवेदन/याचिका पर कार्यवाही करके आदेश न पारित कर दिया जाए। अलग किया जा सकता है।

    वाद कब तक वापस लिया जा सकता है- आदेश माँगे, एक वाद को उस समय वापस लिया जा सकता है 23, नियम 1 के अधीन, बिना नये वाद की अनुमति दे सकता है, जब वादी को कोई अधिकार वापसी के समय उत्पन्न हो गया हो।

    प्रत्येक मामले की परीक्षा करनी होगी कि क्या कोई ऐसा अधिकार वादी को प्राप्त हुआ है। आधिपत्य को वापसी के वाद में भूमि का माप लेने के लिए आयुक्त (कमिश्नर) नियुक्त किया गया। प्रतिवादी की ओर अधिवास के पेटे बकाया राशि देय थी। इस प्रक्रम पर वादी ने उस वाद को वापस लेने के लिए आवेदन किया। अभिनिर्धारित कि आयुक्त की नियुक्ति उस भूमि की पहचान करने की केवल प्रक्रिया थी, इससे न तो वादी को कोई अधिकार मिला और न छीना गया। शब्दावली किसी भी समय पर (at any time) विचारण-न्यायालय में लम्बित वाद को लागू होती है।

    एक बार जब डिक्री पारित हो जाती है तो कुछ अधिकार उस पक्षकार के पक्ष में निहित हो जाते हैं जिसके पक्ष में वह वाद तय होता है। अत: जब एक वाद को विचारण न्यायालय ने खारिज कर दिया तो वादी को अपील के प्रक्रम पर उस वाद को उसी वाद हेतुक पर नया वाद फाइल करने की छूट देते हुए वापस लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती। अतः अपील न्यायालय द्वारा विचारण न्यायालय के निर्णय व डिक्री को अपास्त कर वादी को वाद वापस लेने की अनुमति देना अवैध है। त्रिपुरा उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी सामान्य तौर पर अपने वाद का प्रत्याहरण कर सकता है तथा अपने दस्तावेज लौटाने की माँग (प्रार्थना) कर सकता है।

    नियम का विस्तार और क्षेत्र-अपील में भी लागू - अपील वाद का निरन्तरीकरण है और संहिता की धारा 107(2) की दृष्टि में अपील न्यायालय वाद को वापस लेने की अनुमति देने के लिए सक्षम है। यह नहीं कहा जा सकता कि आदेश 23, नियम 1 केवल विचारण न्यायालय में लम्बित वाद के वापस लेने की ही अनुमति देता है और न्यायालय द्वारा एक बार वाद का निपटारा करने के बाद जब अपील की जाती है, तो अपील न्यायालय उसी वाद की वापसी की अनुमति नहीं दे सकता।

    एक अपील न्यायालय विचारण न्यायालय की डिक्री और निर्णय को अपास्त कर वाद को वापस लेने की अनुमति नहीं दे सकता। आदेश 23, नियम 1 अपील वापस लेने को भी लागू हो सकता है, किन्तु जब वापिस ली गई अपील अक्षम एवं भिन्न विषयवस्तु वाली हो, तो उस डिक्री के विरुद्ध नियमित अपील बाधित नहीं होती। कार्यवाही के प्रत्याहरण (विथ ड्रावल/वापस लेने) के लिए आदेश 23 नियम 1 लागू होता है और अपीली न्यायालय को अपील वापस लेने व नई अपील फाइल करने की छूट देने की अनुमति देने की शक्तियाँ हैं।

    एक मामले में कहा गया है कि प्रभेदित किया गया। नया वाद फाइल करने की अनुमति के बाद एक वाद को वापस लिया जा सकता है। ऐसी वापसी की अनुमति अपील में भी दी जा सकती है।

    अन्तर्निहित शक्ति के प्रयोग में अनुमति देने के लिए शक्तिहीन नहीं है। हालांकि सामान्यतः वादी को अपने वाद को अशर्त वापस लेने का आत्यंतिक अधिकार है तथापि यदि बंधकित सम्पत्ति के मोचन के लिए कोई प्रारम्भिक डिक्री पारित की जा चुकी हो जो प्रतिवादियों को कतिपय अधिकार प्रदान करती है तो वादी को ऐसा वाद वापस लेने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जा सकता।

    वाद का प्रत्याहरण (वापस लेना) - अपने मामले को सिद्ध करने के लिए सुसंगत अभिलेख या पर्याप्त साक्ष्य पेश करने में किसी वादी की असमर्थता मात्र कोई प्ररूपिक त्रुटि अथवा एक अच्छा या समुचित कारण नहीं है- इस प्रकार की किसी त्रुटि को वादपत्र में संशोधन मंजूर करते हुए दूर किया जा सकता है किन्तु इस आधार पर वादी को संहिता के आदेश 23, नियम 1 के अधीन नया वाद फाइल करने की स्वतन्त्रता सहित अपना वाद वापस लेने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जा सकता।

    विभाजन-वाद में वादी को वाद वापस लेने का अखण्ड अधिकार नहीं - वादी द्वारा वाद में संयुक्त ( परिवार की अचल सम्पत्ति का विभाजन सहदायिकों बीच चाहा गया है, जिनको पक्षकार बनाने के तरीके का कोई महत्व नहीं है। प्रतिवादियों का वादियों के रूप में पक्षान्तरण कर वाद को जारी रखा जा सकता है, जब वे प्रतिवादी ऐसा महसूस करें कि यादी उनके हित में वाद को जारी नहीं रख रहा है।

    अतः ऐसे वाद में वादी को वाद वापस लेने का आदेश 23, नियम 1 के अधीन अधिकार अखण्ड नहीं होता है। सम्पत्ति के विभाजन के लिए वाद में नया वाद फाइल करने का अधिकार आरक्षित न रखते हुए वाद वापस ले लिया गया। उसी सम्पत्ति के विभाजन के लिए उन्हीं वादियों द्वारा नया वाद वर्जित नहीं है।

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