सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 145: आदेश 22 नियम 10 के प्रावधान

Shadab Salim

5 March 2024 4:02 PM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 145: आदेश 22 नियम 10 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 10 के प्रावधानों पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-10 वाद में अन्तिम आदेश होने के पूर्व समनुदेशन की दशा में प्रक्रिया -

    (1) वाद के लम्बित रहने के दौरान किसी हित के समनुदेशन, सृजन या न्यागमन की अन्य दशाओं में, वाद न्यायालय की इजाजत से उस व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध चालू रखा जा सकेगा जिसको ऐसा हित प्राप्त या न्यागत हुआ है।

    (2) किसी डिक्री की अपील के लम्बित रहने के दौरान उस डिक्री की कुर्की के बारे में यह समझा जाएगा कि वह ऐसा हित है जिससे वह व्यक्ति जिसने ऐसी कुर्की कराई थी, उपनियम (1) का फायदा उठाने का हकदार हो गया है।

    आदेश 22, नियम 10 केवल शक्तिदाता उपबंध है, जो नियम 7 व 8 से आवृत नहीं होने वाले समनुदेशन सृजन और न्यायगमन के मामलों को लागू होता है।

    समनुदेशिती पक्षकार बनाया जायेगा - वाद के लम्बित रहने के समय उत्पन्न समनुदेशिती या हित प्राप्तकर्ता, को आदेश 22 नियम 10 के अधीन पक्षकार बनाना आवश्यक है। एक समुनदेशिती समनुदेशन करने के कारण से ही कार्यवाही को चालू रखने के अधिकार को नहीं खोता है। वाद के लम्बन काल के दौरान किसी हित के समुदेशन की दशा में सम्बन्धित व्यक्ति के पक्षकार न बनने पर भी वाद चालू रखा जा सकता है लेकिन समनुदेशिती ऐसे वाद में पारित होने वाली डिक्री से बाध्य होगा।

    मृतक का विधिक प्रतिनिधि होने से विल के निष्पादक या प्रशासक में मृतक की सम्पत्ति उसमें निहित। होती है। अतः वाद के लम्बन काल में किसी हित के न्यागम के दशा में निष्पादक या प्रशासक वाद बिना विल का प्रोबोट प्राप्त किये चालू रख सकता है।

    आदेश 22 का क्षेत्र- आदेश 22 के सभी नियमों का अवलोकन करने से यह प्रकट होता है कि-यह आदेश मुख्य रूप से उन मामलों से संबंध है, जहाँ पक्षकार से हितों का योग (समूह) लम्बित वाद में किसने दूसरे व्यक्ति को चला जाता है और प्रास्थिति (हैसियत) बदल जाती है, या कुछ परिस्थितियों में लम्बित याद का पूर्ण उपशमन हो जाता है।

    अपील के सम्बित रहने के दौरान यदि मुखत्यारनामें द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो अपील का उपशमन नहीं होगा क्योंकि प्राधिकृत व्यक्ति की अनुपस्थिति में दावा का निर्णय किया जा सकता है जो मुखत्यारनामा विधि का सुस्थापित नियम है कि विभाजन के वाद देने वाले व्यक्ति पर बाध्यकारी होगा। यह में प्रारम्भिक भान डिक्री पारित हो जाने के उपरान्त अपील के दौरान किसी पक्षकार को मृत्यु हो जाने को स्थिति में आदेश 22 नियम 3 व 4 के प्रावधान लागू नहीं होंगे।

    अपील के लम्बित रहने के दौरान प्रतिवादी की मृत्यु हो जाना- मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को विहित कालावधि के भीतर अभिलेख पर नहीं लाया गया। वाद को विषयवस्तु में हित का मृतक के चेले पर न्यागमन हो गया।

    अपील आदेश 22, नियम 10 के अधीन उस व्यक्ति के विरुद्ध चालू रखी जा सकती है जिस पर वह हित न्यागत हुआ हो। नये न्यासी मूल न्यासियों के विधिक प्रतिनिधि नहीं होते, और उनके आवेदन नियम 3 से शासित नहीं होते। न्यास और न्यास सम्पत्ति का उत्तराधिकारी आदेश 22, नियम 10 से शासित होगा। ऐसा उत्तराधिकारी धारा होता है। वादाधीन पुस्तकीय ऋण का 2(11) के अर्थ में विधिक प्रतिनिधि समनुदेशिती इस नियम के अधीन अभिलेख पर आने का हकदार है, जब उक्त ऋण की वसूली के लिए वाद संस्थित किया गया है।

    जहाँ एक व्यक्ति अपने जीवन काल में ही अपनी पत्नी को वादग्रस्त सम्पत्ति दान के रूप में अन्तरित कर देता है, तो ऐसी स्थिति में अन्तरक (पति) की मृत्यु हो जाने पर उस वाद के उपशमन का प्रश्न हो नहीं उठता। जहाँ सम्पत्तियों के स्वामियों का हित समाप्त हो गया है, तो ये उन सम्पत्तियों से सम्बन्धित विवाद में आवश्यक पक्षकार नहीं हैं।

    जहाँ विभाजन वाद में प्रारम्भिक डिक्री के पश्चात् प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और वादी द्वारा मृत प्रतिवादी के वारिसों के नाम उचित समय के भीतर अभिलेख में लाने के लिए कोई कार्यवाही नहीं की जाती है, वहाँ वाद का मृतक के वारिसों के विरुद्ध उपशमन नहीं होता है-ऐसी स्थिति में समुचित प्रक्रिया यह है कि न्यायालय को कार्यवाहियां आस्थगित कर देनी चाहिए और वादी को मृतक के वारिसों सहित, सभी पक्षकारों को आवंटन के अन्तिम अवधारण के लिए कार्यवाहियां जारी रखने की स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए।

    सम्पदा के विभाजन और स्थावर सम्पत्ति के परिदान के लिए डिक्री- अन्तरिती को पक्षकार बनाना-

    किसी विभाजन वाद के लम्बित रहने के दौरान वादग्रस्त सम्पत्ति के किसी हित के अंतरिती को आरंभिक डिक्री में सम्मिलित नहीं किया गया, इसके बावजूद भी उसे पक्षकार बनाकर मुकदमें में सम्मिलित किये जाने का और कलक्टर के समक्ष धारा 54 के अधीन डिक्री के अन्तिम निष्पादन में साम्यापूर्ण विभाजन का दावा करने के लिए सुनवाई किए जाने का अधिकार है।

    किसी स्थावर सम्पत्ति के हित के सम्बन्ध में वाद लम्बित रहने के दौरान जो कि वाद के किन्ही पक्षकारों किसी द्वारा लाए गए वाद की विषयवस्तु है जहां तक वाद में की गई कार्यवाहियों का हित का सम्बन्ध अन्तरिती उससे बाध्य होगा। ऐसा अन्तरिती उस पक्षकार के हित का प्रतिनिधित्व करता है जिससे उसने हित अर्जित किया गया।

    सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 10 में कार्यवाहियों में पक्षकार बनाकर मुकदमा चलाए जाने और कोई आदेश किए जाने से पूर्व उसकी सुनवाई किए जाने के अधिकार को स्पष्टतः मान्यता दी गई है। यह हो सकता है कि यदि वह मुकदमे में सम्मिलित होने के लिए आवेदन नहीं करता, तो वह कार्यवाहियों में किए गए किसी आदेश के कारण हुए व्यतिक्रम के परिणामस्वरूप नुक्सान उठा सकता है। किन्तु यदि वह पक्षकार के रूप में मुकदमे में शामिल होने के लिए और सुनवाई किए जाने के लिए आवेदन करता है, तो उसे मुकदमे में शामिल करना पड़ेगा और उसकी सुनवाई करनी होगी।

    वह उक्त कार्यवाहियों में किए गए आदेश के विरुद्ध अपील भी कर सकता है, किन्तु यह अपील उसी अपीली न्यायालय से इजाजत लेकर की जा सकती है, जहां पहले से ही उसे अभिलेख पर नहीं लाया गया है ऐसे व्यक्ति की स्थिति जिसे वाद लम्बित रहने के दौरान किसी हस्तांतरण के आधार पर कोई हित प्राप्त हुआ है अथवा किसी ऐसी कार्यवाही के आधार पर जो उसके उत्तराधिकारी या वसीयतदार की वाद या कार्यवाहियों के लम्बित रहने के दौरान मृत्यु होने के आधार पर अथवा शासकीय रिसीवर को जो ऐसे पक्षकार की आस्तियों को उसके दिवालिया हो जाने पर ग्रहण कर लेता है, प्राप्त होती है।

    कोई उत्तराधिकारी या वसीयतदार या शासकीय रिसीवर अथवा अन्तरिती ऐसी निष्पादन कार्यवाहियों में भाग ले सकता है, भले ही उनका नाम डिक्री में आरम्भिक रूप से या अन्तिम रूप से दर्शित न किया गया हो। यदि वे पक्षकार के रूप में मुकदमे में सम्मिलित होने के लिए न्यायालय के समक्ष आवेदन करते हैं, तो उन्हें इनकार नहीं किया जा सकता। कलक्टर को जिसे सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 54 के अधीन सम्पदा का विभाजन करना है उसे भेजी गई डिक्री के अनुसार उसका विभाजन करना यदि डिक्री का कोई पक्षकार अपने कुछ उत्तराधिकारी छोड़कर मर जाता है, जिनके हित के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है, तो वह मृत पक्षकार के उत्तराधिकारियों के अंश आवंटित करने की कार्यवाही कर सकता है।

    इसी प्रकार यदि कोई विवाद नहीं है तो वह मृत पक्षकार के भाग को भी उसके वसीयतदारों में विभाजित कर सकता है। किसी पक्षकार के दिवालिया हो जाने की दशा में शासकीय रिसीवर को दिवालिया व्यक्ति का अंश आवंटित किया जा सकता है। यदि कलक्टर ऐसे मामलों में, जिनमें कोई विवाद नहीं है, समस्त सम्बद्ध व्यक्ति के हितों पर विचार करते हुए, जिनमें वे व्यक्ति भी सम्मिलित हैं जिन पर विषयवस्तु का कोई हित न्यागत हुआ है, कोई साम्यपूर्ण विभाजन कर देता है, तो ऐसा करते हुए न तो वह डिक्री का उल्लंघन करता है और न ही किसी विधि का अतिक्रमण करता है। उसका यह कार्य विधिविरुद्ध नहीं होगा, बल्कि इसके विपरीत उसका यह कार्य विधानमण्डल के उद्देश्यों के अनुकूल होगा।

    वादकालीन अन्तरिती, पक्षकार के रूप में- जब कोई वाद विचाराधीन हो, तो उस विवादग्रस्त सम्पत्ति का अन्तरिती वादकालीन अन्तरिती (लिस पेन्डेन्स ट्रान्सफरी) कहलाता है। ऐसे अन्तरिती को पक्षकार बनाने के लिए वादी बाध्य नहीं है। येनकेन, वादकालीन अन्तरिती उस विवाद में अत्यधिक हित रखता है, अतः न्यायालय अपने स्वविवेक में आदेश 22, नियम 10 (1) के अधीन ऐसे अन्तरिती को उचित पक्षकार के रूप में पक्षकार बना सकता है।

    अपमान का वाद हेतुक अपीलार्थी-वादी की मृत्यु पर जीवित नहीं रहता - जहाँ अपमान का वाद खारिज कर दिया गया और वादी ने अपील की, तो उसमें अपीलार्थी-वादी अपमान के लिए नुकसानी के लिए वाद करने के अपने अधिकार का लागू करवाना चाहता है। क्योंकि यह अधिकार उसकी मृत्यु पर जीवित नहीं रहता, तो अपील में उसके स्थान पर उसके विधिक-प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने का कोई अधिकार नहीं रह जाता, जब अपील में अपीलार्थी-वादी की मृत्यु हो जाती है।

    येनकेन, परिस्थिति उस समय भिन्न होती है, जब अपमान के लिए वाद वादी के पक्ष में विक्रीत कर दिया गया हो, क्योंकि ऐसे मामले में वादहेतुक का उस डिक्री में विलय हो गया और विक्रीत-ऋण उसकी सम्पदा का भाग बन गया और उस दिखी के विरुद्ध प्रतिवादी की अपील वादी-प्रत्यर्थी की सम्पदा के लाभ या हानि का प्रश्न बन गया, जिसको बचाने के लिए उसके विधिक प्रतिनिधि हकदार है। अतः मृत-प्रत्यर्थी-वादी के स्थान पर आके विधिक प्रतिनिधि प्रतिस्थापन के लिए हकदार हैं।

    जाँच का स्वरूप - आदेश 22, नियम 10 के अधीन अनुमति देने के समय विस्तृत जांच आवश्यक नहीं है। न्यायालय को केवल प्रथम दृष्ट्‌या यह समाधान करना है कि अपने विवेक का प्रयोग कर वाद को उस व्यक्ति द्वारा था उसके विरुद्ध वाद चालू रखने के लिए अनुमति दी जा सकती है, जिससे वह हित समनुदेशन या व्यागमन से प्राप्त हुआ है। ऐसे समनुदेशन या न्यागमन की वैधता पर बाद के गुणागुण पर विचारण के समय विचार किया जा सकता है।

    अपील के दोहरान वादगत सम्पत्ति के अन्तरण का प्रभाव अपील के लम्बित होते जब वादगत सम्पत्ति का अंतरण कर दिया गया, तो यह आवश्यकता नहीं है कि उसे आवश्यक रूप से पक्षकार बनाया जाए। यह सत्य है कि यदि अन्तरिती ने पक्षकार बनने का आवेदन किया हो, तो उस पर न्यायालय विचार करेगा, परन्तु जहाँ न तो ऐसा आवेदन किया गया है और न ऐसा दर्शित किया गया है कि विक्रेता (वेण्डर्स) अपील में उस अन्तरिती के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। तब केवल ये परिस्थितियां कि सम्पत्ति का अन्तरण कर दिया गया है, अपील की पोषणीयता को प्रभावित नहीं कर करती। अपील चलने योग्य है।

    प्रापक का प्रतिस्थापन पहले प्रापक (रिसीवर) के स्थान पर दूसरा प्रापक नियुक्त करना आदेश 22, नियम 10 के अधीन हित का न्यागमन है। परन्तु इसमें उपशमन नहीं होता और न्यायालय के अनुमति से नया प्रापक कार्यवाही को जारी रख सकता है। अतः नये प्रापक को प्रतिस्थापित नहीं करने पर पारित की गई डिक्री को अकृत (शून्य) नहीं समझा जा सकता।

    अन्तरिती पक्षकार के रूप में-वादी ने सम्पत्ति के स्वामित्व की घोषणा और व्यादेश के लिए वाद संस्थित किया, जिसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद प्रतिवादियों ने अपने अधिकार बेच दिये। वादी ने इसी बीच अपील कर दी। प्रतिवादी के अन्तरिती ने अपील में पक्षकार बनने के लिए आवेदन किया। इस पर निर्णय दिया कि- अन्तरिती उस अपील में एक आवश्यक और उचित पक्षकार था।

    मृतक के विरुद्ध वाद आदेश 22 के अधीन न्यायालय को मृत-व्यक्ति के विरुद्ध वाद में उसके विधिक वारिसों का प्रतिस्थापन करने की कोई अधिकारिता नहीं है।

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