सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 144: आदेश 22 नियम 6 से 9 के प्रावधान

Shadab Salim

5 March 2024 10:24 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 144: आदेश 22 नियम 6 से 9 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 6 से 9 तक के प्रावधानों पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-6 सुनवाई के पश्चात् मृत्यु हो जाने से उपशमन न होना-पूर्वगामी नियमों में किसी बात के होते हुए भी, चाहे वाद हेतुक बचा हो या न बचा हो, सुनवाई की समाप्ति और निर्णय के सुनाने के बीच वाले समय में किसी भी पक्षकार की मृत्यु के कारण कोई भी उपशमन नहीं होगा, किन्तु ऐसी दशा में मृत्यु हो जाने पर भी, निर्णय सुनाया जा सकेगा औरउसका वही बल और प्रभाव होगा मानो वह मृत्यु होने के पूर्व सुनाया गया हो।

    नियम-7 स्त्री पक्षकार के विवाह के कारण वाद का उपशमन न होना -

    (1) स्त्री वादी या स्त्री प्रतिवादी का विवाह बाद का उपशमन नहीं करेगा, किन्तु ऐसा हो जाने पर भी वाद निर्णय तक अग्रसर किया जा सकेगा और जहां स्त्री प्रतिवादी के विरुद्ध डिक्री है वहां वह उस अकेली के विरुद्ध निष्पादित की जा सकेगी।

    (2) जहां पति अपनी पत्नी के ऋणों के लिए विधि द्वारा दायी है वहां डिकी न्यायालय की अनुज्ञा में पति के विरुद्ध भी निष्पादित की जा सकेगी और पत्नी के पक्ष में हुए निर्णय की दशा में डिक्री का निष्पादन उस दशा में जिसमें कि पति डिक्री की विषयवस्तु के लिए विधि द्वारा हकदार है, ऐसी अनुज्ञा से पति के आवेदन पर किया जा सकेगा।

    नियम-8 वादी का दिवाला कब वाद का वर्जन कर देता है-

    (1) किसी ऐसे वाद में जिसे समनुदेशिती या रिसीवर वादी के लेनदारों के फायदे के लिए चला सकता है, वाद का उपशमन वादी के दिवाले से उस दशा में के सिवाय नहीं होगा जिसमें कि ऐसा समनुदेशिती या रिसीवर ऐसे वाद को चालू रखने से इन्कार कर दे या (जब तक कि न्यायालय किसी विशेष कारण से अन्यथा निदिष्ट न करे) उस वाद के खर्चों के लिए प्रतिभूति ऐसे समय के भीतर जो न्यायालय निदिष्ट करे, देने से इन्कार कर दे।

    (2) जहां समनुदेशिती वाद चालू रखने या प्रतिभूति देने में असफल रहता है वहां प्रक्रिया - जहां समनुदेशिती या रिसीवर वाद चालू रखने और ऐसे आदिष्ट समय के भीतर ऐसी प्रतिभूति देने की उपेक्षा करता है या देने से इन्कार करता है वहां प्रतिवादी वाद को वादी के दिवाले के आधार पर खारिज कराने के लिए आवेदन कर सकेगा और न्यायालय वाद को खारिज करने वाला और प्रतिवादी को वे खर्चे जिन्हें उसने अपनी प्रतिरक्षा करने में उपगत किया है, अधिनिर्णीत करने वाला आदेश कर सकेगा और ये खर्च ऋण के तौर पर वादी [की] सम्पदा के विरुद्ध साबित किए जाएंगे।

    नियम-9 उपशमन या खारिज होने का प्रभाव (1) जहां वाद का इस आदेश के अधीन उपशमन हो जाता है या वह खारिज किया जाता है वहां कोई भी नया वाद, उसी वाद हेतुक पर नहीं लाया जाएगा।

    (2) वादी या मृत वादी का विधिक प्रतिनिधि होने का दावा करने वाला व्यक्ति या दिवालिया वादी की दशा में उसका समनुदेशिती या रिसीवर, उपशमन या खारिजी अपास्त करने वाले आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा और यदि यह साबित कर दिया जाता है कि वाद चालू रखने से वह किसी पर्याप्त हेतुक से निर्धारित रहा था तो न्यायालय खर्च के बारे में ऐसे निबन्धनों पर या अन्यथा जो वह ठीक समझे, उपशमन या खारिजी अपास्त करेगा।

    (3) '[इण्डियन लिमिटेशन एक्ट, 1877 (1877 का 15) की धारा 5 के उपबन्ध उपनियम (2) के अधीन आवेदनों को लागू होंगे।

    [स्पष्टीकरण- इस नियम की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जायेगा कि वह किसी पश्चात्वर्ती वाद में ऐसे तथ्यों पर आधारित प्रतिरक्षा का वर्जन करती है जो उस वाद में हेतुक बनते थे जिसका इस आदेश के अधीन उपशमन हो गया है या जो खारिज कर दिया गया है।]

    नियम 6 के अनुसार- (1) पिछले नियमों में चाहे कुछ भी दिया हो और चाहे वाद-हेतुक बचा हो, या नहीं-

    (2) फिर भी, सुनवाई समाप्त होने के बाद और निर्णय सुनाने के बीच के समय में किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाने पर कोई उपशमन नहीं होगा, और (3) उस मामले में निर्णय सुनाया जावेगा, जो वैसे ही प्रभावी होगा, मानो वह पक्षकार की मृत्यु के पहले ही सुना दिया गया था। इस नियम के अनुसार, जब सुनवाई (hearing) पूरी हो जाए, तो फिर पक्षकार की मृत्यु के कारण उपशमन नहीं होता

    यह नियम जब लागू नहीं होता - यह नियम उस परिस्थिति में लागू नहीं होता, जब बहस सुनने के बाद आगे बहस के लिए मामले में में तारीख दे दी गई हो और फिर बहस पूरी होने से पहले किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाए। यह नियम आयकर अधिकारी के समक्ष कर-निर्धारण की कार्यवाही को लागू नहीं होता है।

    समझौता और मृत्यु का प्रभाव - एक वाद में संयुक्त अपकर्ताओं में से एक प्रतिवादी ने समझौता (राजीनामा) कर लिया, जिसे न्यायालय ने अभिलिखित कर लिया, परन्तु दूसरे प्रतिवादियों के विरुद्ध दावा चलता रहा। इसी बीच समझौता करने वाले प्रतिवादी की मृत्यु हो गई। उसके विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर नहीं लाया गया। निर्धारित किया- इससे शेष प्रतिवादियों के विरुद्ध वाद का उपशमन नहीं हुआ।

    अपील के लम्बित रहने के दौरान एक पक्षकार की मृत्यु हो जाना - [आदेश 22, नियम 6-सपठित धारा 151] - वारिसों को अभिलेख पर नहीं लाया गया और अपील न्यायालय द्वारा मामले को प्रतिप्रेषित कर दिया गया। विचारण न्यायालय के समक्ष मामले के लम्बित रहने के दौरान मृतक के प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाए जाने के लिए आवेदन दिया, तो विचारण न्यायालय द्वारा अपनी रिपोर्ट के साथ मामले को अपील न्यायालय को भेजा गया। न्यायालय आदेश 22 के साथ सहपठित धारा 151 के अधीन अपनी शक्ति के प्रयोग में उन्हें पक्षकार बना सकता है। मामला रिपोर्ट के साथ, अपील न्यायालय में भेजना भी न्यायोचित है।

    नियम 9 में उपशमन या खारिज होने के प्रभाव का वर्णन किया गया है-

    (1) नये वाद का वर्जन-उपनियम (1) के अनुसार इस आदेश के अधीन किसी वाद का उपशमन होने या उसके खारिज किये जाने पर उसी वाद हेतुक पर नया वाद नहीं लाया जायेगा।

    (2) पर्याप्त हेतुक बताने पर उपशमन या खारिजी अपास्त - उपनियम (2) के अनुसार, इस नियम के अधीन उपशमन या खारिजी को अपास्त कराने के लिए निम्न व्यक्ति आवेदन कर सकते हैं-

    (i) वादी या वादी का विधिक प्रतिनिधि होने का दावा करने वाला व्यक्ति, या (ii) यदि दिवालिया हो गया हो, तो उसका समनुदेशिती या रिसीवर (प्रापक)।

    (3) परिसीमा अधिनियम का लागू होना-मूल नियम में ऊपर इंडियन लिमिटेशन एक्ट, 1877 की धारा 5 लागू की गई है। 1877 के इस अधिनियम का स्थान अब परिसीमा अधिनियम 1963 ने ले लिया है। अत: उसकी धारा 4 व 5 यहाँ लागू होगी। धारा 4 में विहित काल का अवसान (समाप्ति) होने पर जब न्यायालय बन्द हो तो जिस दिन न्यायालय फिर खुलेगा, उस दिन आवेदन किया जा सकेगा। धारा 5 के अनुसार विहित काल को कुछ दशाओं में बढ़ाया जा सकेगा।

    (4) वाद हेतुक का प्रयोग प्रतिरक्षा के रूप में वर्जित नहीं - स्पष्टीकरण द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि-जिस वाद का उपशमन या खारिजी हो गई, उसके बाद हेतुक को किसी बाद के वाद में प्रतिरक्षा के रूप में उठाने का कोई वर्जन नहीं है।

    उपशमन - जब न्यायालय द्वारा अवसर देने पर भी अपीलार्थी मृत प्रत्यर्थी के वारिसों को अभिलेख पर नहीं ला सका, तो अपील का उपशमन हो गया। द्वितीय अपील के निधन पर आदेश 22 नियम पर के लम्बित रहते वादी व दो प्रतिवादीगण 3(2) व 4(3) की अनुपालना कर उनके वैधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख नहीं लाने पर द्वितीय अपील उपसमनित हो जावेगी।

    प्रतिनिधिवाद का उपशमन नहीं होगा- (आदेश 1, नियम 18, आदेश 22 नियम् 9) पक्षकार को लाने के लिए परिसीमा का प्रश्न-एक प्रतिनिधिवाद के वादियों में से एक की अशमित नहीं होता। पक्षकार का लाने के लिए तो यहाँ यह लागू होता है। आवेदन के लिए परिसीमा अनुच्छेद अवशिष्ट अनुच्छेद है। जहाँ कोई स्पष्ट प्रावधान न हो।

    उपशमन को अपास्त करना-देरी क्षमा करना पर्याप्ता कारण का अर्थ-देरी के कारण को पर्याप्तता का निर्णय करते समय न्यायालय को कठोर और व्याकरण पर आधारित प्रवृत्ति नहीं अपनानी चाहिये। (भारत संघ बनाम रामचरण, ए.आई.आर. 1964 सु.को. 215 का अवलम्ब लिया गया। उपशमन को ऐसे मामले में अपास्त नहीं किया जा सकता, जहां आवेदक केवल उपेक्षा का हो दोषी नहीं था, परन्तु उसमें स‌द्भाव को भी कमी थी। एक मामले में मृत्यु के सात वर्ष बाद पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों के प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन किया गया। अपोलार्थिनी को मृत्यु का भी पता था और उस मृतक के वारिसों का भी। पर वह कानून के बारे में नहीं जानती थी, क्योंकि वह एक निरक्षर महिला थो, जो पर्दानशीन थो। इन परिस्थितियों में इस देरी को क्षमा कर दिया गया।

    वाद के उपशमन से प्रकरण को गुणावगुणों पर सुनवाई के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अतः बिना उपशमन को अपास्त करने की प्रार्थना के वेधिक प्रतिनिधि को अभिलेख पर लेने के आवेदन को उपशमन को अपास्त कर वेधिक प्रतिनिधि को अभिलेख पर लेने का आदेवन माना जा सकता है।

    विलम्ब का स्पष्टीकरण करना होगा- [आदेश 22 का नियम 9, 3 और 4 सपठित परिसीमा अधिनियम, 1908 को अनुसूची का अनुच्छेद 120 और 121] उक्त अनुच्छेद 120 के अधीन विहित 90 दिन की अवधि आवेदक को किसी प्रकार की सतर्कता दर्शित किए बिना उपलभ्य है किन्तु 90 दिन की अवधि बीतने के कारण वाद का उपशमन हो जाने पर आवेदक विधिक प्रतिनिधियों को पक्षकार बनाने के लिए तथा उपशमन को अपारत करवाने के लिए आवेदन उन पर्याप्त हेतुकों का प्रकथन करके हो कायम रख सकता है, जिनके कारण पक्षकार 90 दिन के भीतर आवेदन करके वाद को चालू रखने से निवारित हुआ था। अनुच्छेद 121 के अधीन विहित 60 दिन की अवधि के पहले ही दिन से आवेदन को करने में हुए विलम्ब को दिन-प्रतिदिन का पर्याप्त हेतुक दर्शिक करते हुए स्पष्ट करना होगा। परन्तु अपील में प्रतिस्थापन (substitution) 6 वर्ष के बाद भी अनुमत किया गया, क्योंकि देहाती व्यक्ति प्रायः यह नहीं जानता कि उसे प्रतिस्थ प्रतिस्थापित कराना है। पक्षकार की मृत्यु को समाचार पत्र में प्रकाशित किया गया, परन्तु यह मानना उचित नहीं कि हर पक्षकार समाचारपत्र अवश्य पढ़ता है और उससे उसे मृत्यु की जानकारी हो जानी चाहिए थी।

    उपशमन को अपास्त करवाने के लिए प्रस्तुत किए गये प्रार्थना पत्र में हुए विलम्ब को निम्न तीन शर्तें होने पर विलम्ब को माफ किया जा सकता है-

    1. अपील के लम्बित रहने के दौरान प्रत्यर्थी मर गया था एवं अपील को सुनवाई के लिए कोई तारीख नियत नहीं थी-

    2. मृतक के अधिवक्ता एवं विधिक प्रतिनिधियों ने न्यायालय को प्रत्यर्थी को मृत्यु के बारे कोई सूचना दी एवं न्यायालय ने भी अपीलार्थी को इस सम्बन्ध में कोई नोटिस नहीं भेजा।

    3. अपीलार्थी को प्रत्यर्थी के मृत्यु होने का कोई ज्ञान न था।

    प्रक्रिया-विधि दाण्डिक नहीं विलम्ब माफ करने में उदारता अपनानी चाहिये उच्च न्यायालय में सिविल अपील लम्बित रहने के दौरान किन पक्षकारों की मृत्यु हो जाती है, उनके स्थान पर नाम के प्रतिस्थापन के लिए किए गए आवेदन में होने वाले विलम्ब को माफ करने के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदनों पर यह दृष्टिकोण अभाषा जाना चाहिए जिसके बारे में इस न्यायालय ने भगवान स्वरुप बनाम मूल चंद और हंसराज बनाम सुरेन्द्र लाल अग्रवाल वाले मामलों में अपना मत व्यक्त किया है। दुर्भाग्यवश वर्तमान मामले में उच्च न्यायालय ने विलम्ब माफ करने के लिए किए गए आवेदन को नामंजूर करने की गलती की है।

    न्यायालय को अपना यह समाधान करना चाहिए कि पिटीशनर ने ऐसा पर्याम कारण सिद्ध किया है जिसके कारण वह विचारण न्यायालय में समय पर नाम प्रतिस्थापन करने के लिए आवेदन करने से निवारित हुआ। उच्च न्यायालय विचारण न्यायालय से रिपोर्ट मंगा सकता है, किन्तु तब वह पुनरीक्षण की अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी न्यायालय के समान दृष्टिकोण नहीं अपना सकता। उसे विचारण न्यायालय द्वारा एकत्रित की गई सामग्री की परीक्षा करनी चाहिए और अपना स्वयं का निष्कर्ष देता चाहिए।

    इस मामले में उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि वह इस बात से सहमत नहीं है कि वह विवाहम न्यायालय द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से भित्र दृष्टिकोण अपना सके। यह अनुज्ञेय नहीं है। दूसरी गलती यह थी कि जब एक बार कोई अपील उच्च न्यायालय में लम्बित हो तो वारिसों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे उच्च न्यायालय में किए गए पिटीशन के पक्षकारों के अनवरत अस्तित्व पर निरन्तर निगरानी रखें जो (न्यायालय) ग्रामीण क्षेत्रों से, जहां पक्षकार रहते हैं, बहुत दूर स्थित है और परम्परागत ग्रामीण कुटुम्ब में हो सकता है कि पिता अपने पुत्र को उस मुकदमेबाजी के बारे में जानकारी न दी हो जिसमें वह स्वयं फंसा था और जिसका पक्षकार था।

    हमें उस बात पर पुनः ध्यान देना चाहिए जो अनेकों बार कही जा चुकी है अर्थात् प्रक्रिया सम्बन्धी नियम न्याय दिलाने के लिए बनाए गए हैं, उनका वैसा ही निर्वचन किया जाना चाहिए और उन्हें त्रुटि करने वाले पक्षकारों को दंड देने के लिए दांडिक कानून के रूप में नहीं अपनाया जाना चाहिए।

    न्यायालय के विवेकाधिकार का प्रयोग विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन या उपशमन को अपास्त कराने के आवेदन पर न्यायालय को प्रमाण प्राप्त करने के बारे में अतिकठोर नहीं होना चाहिये, जब कि ऐसा आवेदन समय पर प्रस्तुत नहीं किया जाए। दूसरी ओर, न्यायालय को इस चूक के कारण के बारे में जो कुछ कथन किया गया, केवल उसी को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये, परन्तु इसके समर्थन में दिये गये साक्ष्य की परीक्षा करनी होगी और उस पर विचार करना होगा।

    उपशमन का प्रभाव वाद का उपशमन असफल पक्षकार को उसके अधिकारों के समूह से वंचित नहीं करता है। यह केवल उसे उसी समान वाद हेतुक पर वाद लाने से रोकता है, जैसे विबन्ध की विधि अधिकारों को अछूता छोड़ देती है, पर उपचारों को वर्जित करती है। एक नया वाद लाने का वर्जन आदेश 22 के नियम 9 स्वयं द्वारा सृजित किया गया है, न कि इस कारण से कि उपशमन का आदेश एक निर्णय के रूप में लागू होता है। फिर जब यह कहा जाता है कि वाद का उपशमन हो गया, तो इसका अर्थ है कि वाद वहां कभी नहीं था या वह अनुप्राणित निलम्बन में था। उसके पुनर्जीवित करने का आदेश उसमें जीवन फूंक देता है।

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