सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 141: आदेश 22 नियम 3 के प्रावधान

Shadab Salim

27 Feb 2024 12:45 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 141: आदेश 22 नियम 3 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 3 पर चर्चा की जा रही है।

    नियम-3 कई वादियों में से एक या एकमात्र वादी की मृत्यु की दशा में प्रक्रिया (1) जहाँ दो या अधिक वादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद लाने का अधिकार अकेले उत्तरजीवी वादी को या अकेले उत्तरजीवी वादियों को बचा नहीं रहता है, या एकमात्र वादी या एकमात्र उत्तरजीवी वादी की मृत्यु हो जाती है, और वाद लाने का अधिकार बचा रहता है वहाँ इस निमित्त आवेदन किए जाने पर न्यायालय मृत वादी के विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनवाएगा और वाद में अग्रसर होगा।

    (2) जहाँ विधि द्वारा परिसीमित समय के भीतर कोई आवेदन उपनियम (1) के अधीन नहीं किया जाता है वहाँ वाद का उपशमन वहाँ तक हो जाएगा जहाँ तक मृत वादी का संबन्ध है और प्रतिवादी के आवेदन पर न्यायालय उन खर्चों को उसके पक्ष में अधिनिर्णीत कर सकेगा जो उसने वाद की प्रतिरक्षा में उपगत किए हों और वे मृत वादी की सम्पदा से वसूल किए जाएंगे।

    नियम का क्षेत्र - यदि किसी वाद या अपील या पुनरीक्षण का एक या एकमात्र पक्षकार मर जाता है और वादाधिकार जीवित रहता है या दावे का उत्तर देना है, तो उस मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करना होगा, अन्यथा कार्यवाही का उपशमन हो जाता है।

    अपील या पुनरीक्षण के उपशमन की डिक्री, आदेश या निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, परन्तु वह डिक्री, आदेश या निर्णय अन्तिम हो जाता है। उपरोक्त नियम 2 के अनुसार जहाँ दो या अधिक वादियों में से एक मर जाता है और वादाधिकार रहता है, तब उत्तरजीवी वादी या वादीगण अकेले वाद को चालू रख सकते हैं, परन्तु वर्तमान नियम 3 यह उपबंध करता है कि जहाँ दो या अधिक वादियों में से एक मर जाता है और केवल (alone) उत्तरजीवी वादियों का ही वादाधिकार जीवित नहीं रहता है, तो उस मृतक के विधिक-प्रतिनिधियों को वाद का पक्षकार बनाना चाहिये।

    इस प्रयोजन के लिए न्यायालय को एक आवेदन किया जाना चाहिये, जो मृतक की मृत्यु की दिनांक से नब्बे दिनों के भीतर करना होगा। वह साधारणतया वादी या अपीलार्थी होगा, अन्यथा वाद या अपील का उपशमन हो जायेगा इस प्रकार नियम 3 का क्षेत्र व्यापक है। मृत व्यक्ति की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने के लिए विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए प्रस्तुत किये गये प्रार्थना पत्र का मतलब यह नहीं है कि अभिलेख पर विधिक प्रतिनिधि प्रतिस्थापित हो गये हैं। जब आदेश 22 नियम 4(1) के अन्तर्गत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया जाता है तब न्यायालय को यह विचार करना चाहिए कि विधिक प्रतिनिधि के रूप में नामित व्यक्ति को मृत व्यक्ति को सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने के लिए अभिलेख पर लेना चाहिए। जब तक इस निमित्त कोई निर्णय नहीं हो जाता तब तक वह व्यक्ति विधिक प्रतिनिधि के रूप में व्यक्ति को सम्पदा को ओर से कोई पैरवी नहीं कर सकता।

    नियम का लागू होना-

    उत्तरप्रदेश अधिकतम जोत सीमा अधिरोपण अधिनियम, 1960 [U.P Imposition of Celling on Land Holdings] के अधीन अपील को भी यह नियम लागू होता है। अपीलार्थी द्वारा विधिक-प्रतिनिधियों के में प्रतिस्थापित करने हेतु तथा देरी माफ करने के लिए आवेदन दिया। विधिक-प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित किए जाने के लिए परिसीमा अधिनियम का अनुच्छेद 120 लागू होता है और प्रतिस्थापन के लिए पिटीशन मृत्यु के 90 दिन के भीतर फाइल को जानी चाहिये, अन्यथा युक्तियुक्त कारण न दर्शाया जाए, तो मामला उपशमित समझा जाएगा।

    निष्पादन-कार्यवाही को लागू होना [आदेश 22, नियम 3, 4, 8 और 12] पंचाट के आधार पर डिक्री पारित की गई तथा कई पक्षकारों द्वारा निष्पादन आवेदन फाइल किया गया। यह आक्षेप किया गया कि उक्त डिक्री केवल घोषणात्मक है और निष्पादनीय नहीं है। जिला न्यायालय द्वारा यह तय किया जाना कि अपील निष्पादनीय है। इसके विरुद्ध अपील के लम्बित होने के दौरान कुछ प्रत्यर्थियों को मृत्यु हो गई तथा उनका प्रतिस्थापन परिसीमा को कालावधि में नहीं किया गया। क्या वादी के उपशमन सम्बन्धी उपबंध निष्पादन कार्यवाहियों और उन्हें जारी रखने वाली निष्पादन अपील को लागू होते हैं।

    जब आदेश 6, नियम 17 और 18 लागू नहीं होंगे-किसी मामले में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 के नियम 3 अथया 4 के अधीन आदेश दिये जाने के पश्चात् उक्त संहिता के आदेश 6 के नियम 17 और 18 के उपबन्ध लागू नहीं हो सकते।

    भूमि अर्जन के मामले में [आदेश 22, नियम 3, 4 तथा आदेश 9 सपठित भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 को धारा 18] विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए आदेश 22 के अधीन आवेदन ऐसे आवेदन कि लिए विहित अवधि के भीतर किया जाना चाहिए। हालांकि उक्त धारा 18 के अधीन निर्देश का आवेदन वाद नहीं है, तथापि क्योंकि ऐसे आवेदनों में न्यायालय के समक्ष कार्यवाहियों में संहिता में विहित प्रक्रिया लागू की गई है, अतः न्यायालय के समक्ष ऐसी कार्यवाहियां वाद के स्वरूप को होती हैं। मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को उस निर्देश को पैरवी करने के लिए अपने नाम अभिलेख पर लाने हेतु न्यायालय में आवेदन करना चाहिए तथा कलक्टर पर मृत दावेदार के विधिक प्रतिनिधियों के नाम और पते बताने को कोई बाध्यता नहीं है।

    यह नियम अपील को भी लागू होता है- यह नियम केवल मृत-वादी के मामले में हो नहीं, वरन् धारा 107 तथा आदेश 22, नियम 11 के अनुसार मृत अपीलार्थी को भी लागू होता है। ऐसे मामले में यदि मृतक अपीलार्थी के विधिक प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में अपील आगे नहीं बढ़ सकती, तो वह पूर्णतः उपशमित हो जाएगी, परन्तु अन्य मामलों में यह मृतक-अपीलार्थी के सम्बन्ध में हो उपशमित होगी, अन्य इसे जारी रख सकेंगे।

    अपील में आदेश 41, नियम 4, का लागू होना - नियम 3 से आवृत मामलों में आदेश 41, नियम 4 लागू होता है। उच्चतम न्यायालय का निर्णय है कि आदेश 41, नियम 4 अपील फाइल करने के प्रक्रम पर लागू होता है और जब एक बार सारे वादी या प्रतिवादी अपील में साथ आ जाते हैं, तो आदेश 41 नियम 4 लागू होना बन्द हो जायेगा और मामला आदेश 22 द्वारा शासित होगा

    नियम 3 निष्पादन-कार्यवाही को लागू नहीं आदेश 22 का नियम 3, 4 और निष्पादन-कार्यवाही को लागू नहीं होता है।

    प्रक्रिया एवं व्यवहार आदेश 22 के नियम 3 के अधीन यदि न्यायाधीश ने किसी मृत पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए आदेश पारित कर दिया है और बाद में विधिक प्रतिनिधियों के संबंध में विवाद उत्पन्न होता है और न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृतक के वास्तविक विधिक प्रतिनिधियों के प्रश्न को विनिश्चित करना आवश्यक है तो उक्त आदेश के नियम 3 के अधीन किए गए आदेश को उक्त आदेश के नियम 5 के अधीन वापस लेना उसकी अधिकारिता के अन्तर्गत आता है और वह उक्त प्रश्न का विनिश्चय करने के लिए नए सिरे से आदेश पारित कर सकता है।

    वादियों में से एक या एक मात्र वादी की मृत्यु की दशा में मूल याची द्वारा किए गए दोष से भिन्न किसी स्वतंत्र हक का याची के विधिक प्रतिनिधि द्वारा दावा नहीं किया जा सकता। वादी की मृत्यु हो गई। अपील न्यायालय ने मूल कथन से भिन्न किसी कथन के बारे में विवाद्यक बनाया। ऐसे कथन के आधार पर उस मृतक वादी के विधिक प्रतिनिधि दावा (मांग) उठा सकते हैं और उसी के अनुसार वादपत्र को संशोधित कर सकते हैं।

    पंजाब किराया नियंत्रण अधिनियम की पारा 13 क के अधीन विनिर्दिष्ट मकान मालिक (स्पेसिफाइड लेण्डलार्ड) की मृत्यु पर उसकी विधवा ने धारा 13-क के परन्तुक के अधीन पक्षकार बनाने के लिए शपथपत्र सहित आवेदन किया कि वह अपने मृत पति की आश्रिता थी। यह शपथ-पत्र उसके आश्रिता होने का पर्याप्त प्रमाण है और अन्य कोई साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसे आवेदन साधारणतया शपथपत्रों के आधार पर ही स्वीकार किये जाते हैं।

    डिक्री जब शून्य नहीं कई वादियों में से एक की मृत्यु के बाद पारित की गई डिक्री इसी कारण से शून्य नहीं हो जाती। यह प्रश्न कि क्या अपील का उपशमन पूर्णतः या अंशतः हो गया, न्यायालय द्वारा तय किया जावेगा। मामला उच्च न्यायालय को वापस भेजा गया। अपील का उपशमन स्वतः हो जाता है। यह गुणागुण पर न्यायनिर्णयन नहीं है। अतः इसकी द्वितीय अपील नहीं होती।

    वाद का उपशमन वहां तक हो जाएगा, जहां तक मृत वादी का संबंध है

    वाद या कार्यवाही का आंशिक उपशमन-वाद हेतुक जीवित रहता है-

    उपेक्षा पर नुकसानी [आदेश 22, नियम । और 3 (1) सपठित उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 306 तथा प्रोबेट और प्रशासन अधिनियम, 1831 (1881 का 5) की धारा 89] वाद का उपशमन कक्षीकार द्वारा अपने अधिवक्ता के विरुद्ध उसके वृतिक कर्तव्यों के पालन में उपेक्षा के कारण नुकसानी और प्रतिकर के लिए वाद या अपील- यदि उपेक्षा से वैयक्तिक स्वरूप की क्षति होती है तो वाद या अपील का उस वादी या अपीलार्थी के मरने पर उपशमन हो जाएगा और उसके विधिक प्रतिनिधि उसमें शामिल किए जाने के लिए हकदार नहीं होंगे किन्तु यदि वाद संविदागत दायित्व से उत्पन्न हुआ है तो वाद चलता रहेगा।

    अग्रक्रयाधिकार - एक अभिधारी (टिनेन्ट) को रूढ़ि जन्य विधि के अधीन अग्रक्रय का दाय योग्य (न्यागमित होने वाला हेरिटेबल) अधिकार प्राप्त है। अतः अग्रक्रय का बाद फाइल करने वाले अभिधारी की मृत्यु पर उसके विधिक प्रतिनिधि उस वाद को जारी रख सकते हैं और उनको आदेश 22, नियम 3 के अधीन अभिलेख पर आने का अधिकार है।

    घोषणार्थ वाद - प्रास्थिति (हैसियत) की घोषणा और वेतन की बकाया के बाद को विचारण न्यायालय तथा अपील न्यायालय ने खारिज कर दिया। उच्च न्यायालय में की गई अपील के दौरान अपीलार्थी वादी की मृत्यु हो गई। विधिक प्रतिनिधियों के प्रत्यास्थापन तथा देरी को क्षमा करने के लिए आवेदन करना चाहा गया। उच्च न्यायालय ने सुझाव दिया कि वह विचारण न्यायालय की रिपोर्ट की परीक्षा करते समय पुनरीक्षण की अधिकारिता का प्रयोग कर रहे हैं। उच्च न्यायालय के इस विचार को सही नहीं माना गया।

    प्रक्रिया के नियमों का अर्थ लगाना [आदेश 22, नियम ३ व १ तथा परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act)- पारा 5] प्रक्रिया-विषयक नियमों का इस प्रकार अर्थ करना चाहिए कि न्याय हो। जब संभावना यह हो कि पुत्रों को पिता द्वारा की गई अपील का पता न हो तो प्रतिस्थापन के लिए देर से दी गई अर्जी स्वीकार कर लेनी चाहिए। जब अपीलार्थी की मृत्यु अपील के दौरान हो तो प्रतिस्थान के प्रश्न पर विचार अपील न्यायालय को स्वयं करना चाहिए।

    प्रति-अपील का उपशमन आदेश 22, नियम 3, 4 और 11 प्रतिकर विषयक वाद में निचले न्यायालय की डिक्री के विरुद्ध राज्य सरकार तथा दावेदारों द्वारा प्रति अपीलें की गई। दावेदारों में से एक की मृत्यु हो गई। दावेदारों द्वारा अपने अपील-अभिलेख में मृतक दावेदार के विधिक प्रतिनिधियों को लाया गया किन्तु राज्य सरकार द्वारा ऐसा करने में व्यतिक्रम किया गया। दावेदारों द्वारा इस तथ्य पर कोई आक्षेप किए बिना कार्यवाहियों को चलने देना तथा उच्च न्यायालय द्वारा अपील खारिज किए जाने पर उच्चतम न्यायालय में यह अभिवचन किया जाना कि चूंकि राज्य सरकार अपनी प्रति-अपील में मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को उसकी मृत्यु के 90 दिन के भीतर अभिलेख पर लाने में असफल रही थी, अतः प्रति अपील का उपमशन स्वतः ही हो गया। उक्त अभिवाकू ग्राह्य नहीं है, क्योंकि विधिक प्रतिनिधियों ने उक्त तथ्य पर प्रत्याक्षेप नहीं किया था। चूंकि प्रत्याक्षेप और प्रति अपील में कोई अन्तर नहीं है, अतः उसका उपशमन नहीं हो सकता

    वाद में प्रारंभिक डिक्री दिए जाने के पत्त्वात् एक प्रतिवादी की मृत्यु हो जाना उसके विधिक प्रतिनिधियों को विहित समय के भीतर अभिलेख पर न लाने पर भी वाद का उपशमन नहीं होगा-प्रारंभिक डिक्री पारित हो जाने पर वाद लाने का अधिकार समाप्त हो जाता है और उक्त उपबन्ध लागू नहीं होते।।

    शेष विधिक-प्रतिनिधियों को अभिलेख पर न लाना (आदेश 22, नियम 3 और 4)- यदि किसी अपील के लम्बित रहने के दौरान कोई सह-अपीलार्थी या सह-प्रत्यर्थी मर जाता है किन्तु यदि अभिलेख पर के क्रमशः दूसरे अपीलार्थी व प्रत्यर्थी उसके विधिक वारिसों में से हैं और वे पर्याप्त रूप से उसका प्रतिनिधित्व करते हैं तो मृतक के शेष विधिक वारिसों को विहित कालावधि के भीतर अभिलेख पर न लाने से अपील का उपशमन नहीं होगा।

    न्यासी की मृत्यु का प्रभाव - (आदेश 22, नियम 3 और 10 और धारा 2 (11) 8)-न्यासी द्वारा तीसरे व्यक्ति के विरुद्ध वाद फाइल करने के पश्चात् न्यासी द्वारा जाने की दशा 1 में आदेश 22 का नियम 10 लागू होगा। ऐसा वाद दूसरे न्यासी द्वारा या तौर पर नियुक्त या निर्वाचित व्यक्ति द्वारा चालू रखा जा सकता है।

    दो अपीलों पर प्रभाव-(आदेश 22 का नियम 13, 4) यदि एक अपील में विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख में शामिल कर लिया गया है तो उन्हों पक्षकारों के बीच दूसरी अपील का उपशमन नहीं होगा।

    विभाजन वाद- एक विभाजन के वाद में पिता और उसका अव्यस्क पुत्र पक्षकार थे। वाद डिक्री हो गया, परन्तु अपील के दौरान उस अवयस्क की मृत्यु हो गई और उसको माता को परिसीमा के भीतर अभिलेख पर पर नहीं लाया गया। अभिनिर्धारित कि- अपील का उपशमन नहीं हुआ, क्योंकि उसके पिता एक मध्यक्षेपी के रूप में विधिक प्रतिनिधि हो गये। माता को अभिलेख पर लाने की अनुमति दी गई। एक अवयस्क के मामले में, जब विभाजन वाद उसके हित में था और उसकी मृत्यु हो गई, तो भी उसके विधिक प्रतिनिधि उस कार्यवाही को जारी रख सकते हैं, परन्तु यह है कि न्यायालय का यह समाधान हो जाए कि वाद उस अवयस्क के लाभ के लिए संस्थित किया गया था।

    सेवा संबंधी वाद- एक वाद कर्मचारियों ने अपने नियोजक के विरुद्ध फाइल किया, जिसमें तीन अनुतोष माँगे गये थे- (क) कि-कर्मचारियों को 60 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पहले सेवानिवृत्त करना शून्य और अवैध होने की घोषणा को जाए, और (ख) कि-प्रतिवादी-नियोजक को वादियों को सेवाओं में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए एक स्थायी व्यादेश दिया जाए तथा (ग) 60 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक को अवधि के वेतनादि के आधार पर प्रतिकर दिलाया जावे।

    इसी बीच वादियों में से एक को मृत्यु हो गई। अभिनिर्धारित कि-संविदा भंग के लिए प्रतिकर (नुकसानी/डेमेजेज) के वाद में वादाधिकार जीवित रहता है। अतः मृत वादी के वारिसों को उसके स्थान पर प्रतिस्थापित किया जा सकता रकता है और (नुकसानी (प्रतिकर) के अनुतोष के बारे में उनका वादाधिकार जीवित रहता है।

    कई वादियों में से एक की मृत्यु - वादियों में से एक ने अपनी मृतक माता के स्थान पर प्रतिस्थापन का आवेदन किया, जिसे विचारण न्यायालय तथा उच्च न्यायालय दोनों ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि-सभी उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया जाना चाहिए था। अकेली प्रार्थनी-अपीलार्थी अपने नाम से वाद की कार्यवाही करने के लिए अधिकृत (हकदार) नहीं थी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि- आवेदन को खारिज करने में निम्नतर न्यायालयों ने भूल की है। विचारण न्यायालय को दूसरे वारिसों को सह-प्रतिवादियों के रूप में अभिलेख पर लाने का निर्देश देना चाहिए था। अपील स्वीकार को गई। वादी के संयुक्त स्वत्व को सम्पत्ति से बेदखली के वाद में एक वादी के निधन से वाद का उपशमन नहीं होगा। शेष वादीगण वाद जारी रख सकते हैं। संयुक्त स्वत्व को सम्पत्ति से बेदखली हेतु कोई भी एक स्वामी वाद ला सकता है।

    सहस्वामियों द्वारा प्रस्तुत संयुक्त बेदखली वाद के लम्बित रहते एक सहस्वामी का निधन हो जाने से वाद का उपशमन नहीं होगा। कोई भी सहस्वामी वाद प्रस्तुत कर सकता है साथ ही उत्तरजीवी वादी के पक्ष में वाद लाने का अधिकार बचा रहता है अतः मृतक सहस्वामी के वारिसान को पक्षकार न बनाये जाने की दशा में वाद का उपशमन नहीं होगा।

    वाद या अपील का उपश्मन - अभिलेख पर मृतक पक्षकार के विधिक-प्रतिनिधियों को नहीं लाया गया, इससे वाद/अपील का उपशमन गया। उसके विधिक-प्रतिनिधियों को को आदेश 1, हो नियम 10 के अधीन पक्षकार नहीं बनाया जा सकता, जब तक कि उनको विधिक प्रतिनिधि होने के अलावा कोई अधिकार या बाध्यता (कर्त्तव्य) प्राप्त न हो। प्रशासन याचिका/वाद का उपशमन नहीं हुआ।

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