सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 119: आदेश 21 नियम 41,42 एवं 43 के प्रावधान

Shadab Salim

9 Feb 2024 6:24 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 119: आदेश 21 नियम 41,42 एवं 43 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 41,42 एवं 43 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

    नियम-41 निर्णीतऋणी की अपनी सम्पत्ति के बारे में उसकी परीक्षा- [(1) जहां डिक्री धन के संदाय के लिए है वहां डिक्रीदार न्यायालय से इस आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा-

    (ख) उस दशा में [जिसमें निर्णीतऋणी निगम हो] उसके किसी अधिकारी की, अथवा

    (क) निर्णीतऋणी की, अथवा

    (ग) किसी भी अन्य व्यक्ति की,

    यह मौखिक परीक्षा की जाए कि क्या निर्णीतऋणी को कोई ऋण शोध्य है और है तो कौन से हैं और क्या निर्णीतऋणी की ऐसी कोई अन्य सम्पत्ति या साधन है जिनसे डिक्री की तुष्टि की जा सके और हैं तो कौन से हैं और न्यायालय ऐसे निर्णीतऋणी या अधिकारी या अन्य व्यक्ति की हाजिरी और उसकी परीक्षा के लिए और किन्हीं बहियों या दस्तावेजों के पेश किए जाने के लिए आदेश कर सकेगा।

    [(2) जहां धन के संदाय के लिए कोई डिक्री तीस दिन की अवधि तक अतुष्ट रही है वहां न्यायालय, डिक्रीदार के आवेदन पर और उपनियम (1) के अधीन अपनी शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, आदेश द्वारा, निर्णीतऋणी से या जहां निर्णीतऋणी निगम है वहां उसके किसी अधिकारी से यह अपेक्षा कर सकेगा कि वह निर्णीतऋणी की आस्तियों की विशिष्टियों का कथन करने वाला एक शपथ-पत्र दे।

    (3) उपनियम (2) के अधीन दिए गए किसी आदेश की अवज्ञा की दशा में, आदेश देने वाला न्यायालय या कोई ऐसा न्यायालय जिसे कार्यवाही अन्तरित की गई है, निदेश दे सकेगा कि आदेश की अवज्ञा करने वाले व्यक्ति को सिविल कारागार में उतनी अवधि के लिए जो तीन मास से अनधिक की हो सकेगी, तब तक निरुद्ध किया जाए जब तक कि ऐसी अवधि के अवसान से पूर्व न्यायालय उसको छोड़े जाने का निदेश न दे।]

    नियम-42 भाटक या अन्तःकालीन लाभों या तत्पश्चात् अन्य बातों के लिए, जिसकी रकम वाद में अवधारित होनी है, डिक्री की दशा में कुर्की-जहां डिक्री भाटक या अन्तः कालीन लाभों या किसी अन्य बात के लिए जांच निदिष्ट करती है वहां निर्णीतऋणी की सम्पत्ति इसके पूर्व कि निर्णीतऋणी द्वारा शोध्य रकम अभिनिश्चित कर ली गई हो ऐसे कुर्क की जा सकेगी जैसे धन के संदाय की मामूली डिक्री की दशा में कुर्क की जा सकती है।

    नियम-43 निर्णीतऋणी के कब्जे में ऐसी जंगम सम्पत्ति की कुर्की जो कृषि उपज से भिन्न है-जहां कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति निर्णीतऋणी के कब्जे में की कृषि उपज से भिन्न जंगम संपत्ति है वहां वास्तविक अभिग्रहण के द्वारा की जाएगी और कुर्की करने वाला अधिकारी सम्पत्ति को स्वयं अपनी अभिरक्षा में या अपने अधीनस्थों में से एक की अभिरक्षा में रखेगा और उसकी सम्यक् अभिरक्षा के लिए उत्तरदायी होगा।

    परन्तु जब अभिगृहीत सम्पत्ति शीघ्रतया और प्रकृत्या क्षयशील है या जब उसे अभिरक्षा में रखने का व्यय उस के मूल्य से ज्यादा होना संभाव्य है तब कुर्क करने वाला अधिकारी उसका तुरन्त ही विक्रय कर सकेगा।

    आदेश 21 के नियम 41 निर्णीत-ऋणी की अपनी सम्पत्ति के बारे में परीक्षा करने, या शपथ पत्र द्वारा घोषणा करने तथा उपनियम (2) के अधीन आज्ञा को न मानने पर तीन माह तक सिविल जेल में भेजने की व्यवस्था करती है। संशोधन द्वारा इसमें उपनियम (2) और (3) जोड़े गए हैं।

    निर्णीत-ऋणी की परीक्षा [उपनियम (1)]-न्यायालय धन के संदाय की डिक्री के मामले में डिक्रीदार द्वारा आवेदन बहियाँ या दस्तावेज भी मंगाये जा सकेंगे।

    आवेदन करने पर (क) निर्णीतऋणी या (ख) निगम के अधिकारी या (ग) किसी अन्य व्यक्ति की मौखिक परीक्षा कर सकता है। इस मौखिक परीक्षा में निर्णीत-ऋणी आदि से (i) उनके ऋण और (ii) सम्पत्ति के बारे में पूछताछ की जावेगी।

    नियम का उद्देश्य -आदेश 21, नियम 41 का उद्देश्य धनीय-डिक्रियों की संतुष्टि के लिए सूचनायें प्राप्त करना है, ताकि अनावश्यक कष्ट को टाला जा सके। यह एक लाभदायक नियम होते हुए भी विराधी पक्षकार को कठोर रूप में लागू होता है। अतः इसका प्रयोग एकपक्षीय आदेश द्वारा साधारणतया नहीं करना चाहिये। कोई और अन्य सम्पत्ति कौनसी हैं यह उस सम्पत्ति के प्रसंग में है, जिसकी डिक्री के अधीन कुर्की और विक्रय किया जा सकता है। सम्पत्ति जिसे निर्णीत-ऋणी ने बंधक रख दिया है, वह भी उसके विरुद्ध डिक्री के निष्पादन में अधिग्रहीत की जा सकती है और बंधक रखने से वह बच नहीं सकती उसे बंधक सहित निष्पादन में बेचा जा सकता है।

    वह बंधक ऋण के अध्यधीन रहेगी यदि बंधकिती यह दावा करे कि वह बंघकिती के रूप में है, तो उसकी परीक्षा नियम 41 के अधीन की जा सकती है। निर्णीत-ऋणी की परीक्षा करना (बयान लेना) निष्पादन का कोई तरीका नहीं है। घनीय-डिक्रियाँ के लिए निष्पादन के विभिन्न तरीके आदेश 21, नियम 30 में दिये गये हैं। जिनमें निर्णीत-ऋणी की परीक्षा करने के लिए आवेदन देना उनमें से एक नहीं है। आदेश 21, नियम 26 संकेत करता है कि- डिक्री पारित करने वाला न्यायालय निष्पादन की सम्पूर्ण (Overall) अधिकारिता अपने में निहित रखता है और यह कहना विराधाभास होगा कि- डिक्री पारित करने वाला न्यायालय निर्णीत-ऋणी की परीक्षा करने की अधिकारिता खो देता है।

    निर्णीत-ऋणी से शपथपत्र मांगना (उपनियम-2)- जब कोई धन के संदाय की डिक्री 30 दिन तक तुष्ट नहीं की जाती है, तो डिक्रीदार को उपनियम (1) के अधीन निर्णीत-ऋणी की परीक्षा करने के अलावा उपनियम (2) के अधीन एक नया अधिकार और मिल जाता है कि वह निर्णीतऋणी आदि से उनकी आस्तियों (सम्पत्तियों) का विवरण शपथपत्र द्वारा मांगने के लिए न्यायालय को आवेदन करे।

    इस पर न्यायालय आदेश देगा। निर्णीत-ऋणी परिशिष्ट (ङ) के संख्यांक 16 क में एक शपथ-पत्र प्रस्तुत करेगा। अवज्ञा करने पर जेल यात्रा का आदेश (उपनियम-3)- जब उपनियम (2) के अधीन दिये गये आदेश की अवज्ञा कर शपथपत्र पेश नहीं किया जाता है, तो निर्णीत-ऋणी आदि को वह आदेश देने वाला न्यायालय या उसका अन्तरिती न्यायालय यह निदेश दे सकेगा कि उस दोषी को तीन माह तक की अवधि के लिए सिविल कारागार भेज दिया जाए और अवधि पूरी होने से पहले नहीं छोड़ा जावे।

    सिविल कारागार भेजने पर, नियम 39 तथा धारा 57 के अनुसार डिक्रीदार को निर्वाहभत्ता जमा कराना होगा तथा धारा 51 तथा धारा 58 के उपबन्धों का भी ध्यान रखना होगा। यह एक कठोर उपबन्ध किया गया है, जिसे मानवोचित नहीं कहा जा सकता। इसे संविधान के अनुच्छेद 20 (3) की भावना के आधार पर चुनौती दी जा सकती है।

    आदेश 21, नियम 41 (3) में दिये गये जेल भेजने के आदेश की अपील का कहीं कोई उपबन्ध नहीं है, अतः धारा 151 के अधीन अन्तर्निहित अधिकारिता में याचिका प्रस्तुत करना एक सही कदम होगा।

    नियम 42 के अधीन आवेदन करने वाला डिक्रीदार धारा 73 के अधीन आनुपातिक-वितरण के लिए हकदार होता है। कुर्क की गई सम्पत्ति पर यदि पहले से ही कोई भार (चार्ज) है, तो उस पर कुर्की का प्रभाव नहीं होगा, परन्तु कुर्की के बाद किया गया भार इसकी नीलामी से प्रभावित होगा। इस नियम के अधीन कुर्की की जा सकती है और अन्तः कालीन लाभ की गणना वाद में भी की जा सकती है।

    इस प्रकार यह प्रारंभिक डिक्री की कुर्की होगी। प्रारंभिक डिक्री के निष्पादन के लिए नियम 42 के अधीन कार्यवाही की जाती है। जब स्थावर (अचल) सम्पत्ति का आधिपत्य लेने के बाद में प्रारंभिक डिक्री पारित की गई और अन्त. कालीन लाभ या किराये की राशि तय करने के लिए जांच आरंभ कर दी गई, तो डिक्रीदार ने निर्णीत-ऋणी की कुछ सम्पत्ति को कुर्क करने का आवेदन किया। ऐसा आवेदन नियम 42 के अधीन स्वीकार किया जा सकता है।

    नियम 43 तथा नियम 43क कृषि उपज के अलावा अन्य जंगम (चल) सम्पति की कुर्की करने का तरीका बताते हैं, जो निर्णीत-ऋणी के कब्जे में है।

    कुर्की का तरीका (क) ऐसी सम्पत्ति की कुर्की वास्तविक अभिग्रहण द्वारा की जावेगी, (ख) उस सम्पत्ति को कुर्दीकर्ता अधिकारी स्वयं अपनी अभिरक्षा (कस्टडी) में रखेगा या अपने अधीनस्थों में से किसी एक की अभिरक्षा में रखेगा और वह कुर्की को उसकी उचित अभिरक्षा के लिए उतर दायी (जवाबदार) होगा। जंगम सम्पत्ति की अभिरक्षा का तरीका नियम 43-क में बताया गया है।

    नाशवान् (क्षयशील) सम्पत्ति का विक्रय नियम 43 के परन्तुक के अनुसार यदि कुर्क की गई वस्तु या माल (1) शीघ्र नाशवान है, (जैसे-फल, सब्जी, खाद्य वस्तु आदि) या (ii) जिसकी अभिरक्षा (रख रखाव) पर व्यय उस वस्तु के मूल्य से ज्यादा होने की संभावना हो, तो उसे कुर्कीकर्ता अधिकारी नीलाम कर देगा और प्रान राशि न्यायालय में जमा करा देगा। जंगम सम्पत्ति के भाग पर नियम लागू नहीं जहां निर्णीत-ऋणी किसी जंगम सम्पत्ति के केवल एक भाग (शेयर) के लिए ही हकदार है, तो न्यायालय को उसे नियम 60 के अधीन पूरी छोड़ देनी चाहिये। इसके बाद डिक्रीदार नियम 47 के अधीन कार्यवाही कर सकता है। निगम सम्पत्ति की कुर्की करवाने के लिए डिक्रीदार को यह साबित करना होगा कि वह सम्पत्ति निर्णीत-ऋणी की है।

    कुर्की का अर्थ व तरीका- कुर्क किये जाने का अर्थ यह है कि अब उस सम्पत्ति का कब्जा निर्णीत-ऋणी से लेकर न्यायालय का हो गया है। किसी पशु को कुर्क करने के लिए जब कुर्क कर्ता उसे अपने हाथ से किसी स्थान पर बांध देता है और किसी के सुपुर्द (संभाल में) कर देता है, तो कुर्की सही रूप से हो गई। अब यदि निर्णीत ऋणी उसे ले जाता है, तो उसके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 424 तथा 411 के अधीन अपराध बनता है।

    वास्तविक अभिग्रहण द्वारा कुर्की करना जहां कुर्की का वारंट एक भण्डार-गृह के दरवाजे पर बाहर की ओर चिपका दिया, जिसमें निर्णीत-ऋणी का माल रखा हुआ था। तो यह नियम 43 के अर्थ में वास्तविक अभिग्रहण माना गया।

    नियम 43 यह अनुध्यात करता है कि कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति का निर्णीत-ऋणी पूर्ण-स्वामी हो और वह उसके आधिपत्य (कब्जे) में भी हो। नियम 46 ऐसी स्थिति का प्रसंग देता है, जहां निर्णीत-कमी की सम्पत्ति उसके कब्जे में नहीं है, पर किसी परव्यक्ति (थर्ड पार्टी) के कब्जे में है। नियम 47 उस मामले से संबंधित है, जहां निर्णीत-ऋणी कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति का पूर्ण-स्वामी नहीं है, पर उसके कब्जे के बारे में कुछ नहीं कहता है। अतः ऐसा आदेश अवैध है कि जहां कहीं सम्पत्ति पाई जाये उसे कुर्क कर लिया जाये।

    निगम-शेयरों की कुर्की और नीलामी - विक्रय न होने तक निर्णीत-ऋणी के अधिकार अप्रभावित - सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 76 के अधीन निगम-शेयर, जो कुर्क किये गए हैं, किसी दलाल के माध्यम से बेचे जा सकते हैं। अनुकल्पतः (दूसरी तरीके से), ऐसे शेयर सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 77 के अधीन लोक नीलामी में भी बेचे जा सकते हैं। नियम 77 या नियम 76 में किसी के अधीन भी ऐसी बिक्री के पश्चात् क्रेता हक अर्जित करता है।

    जब तक ऐसा विक्रय नहीं किया जाता तब तक निर्णीत ऋणी के सभी अधिकार अप्रभावित रहते हैं (जैसे थे वैसे रहते हैं) भले ही संहिता के आदेश 21 के नियम 43 के अधीन न्यायालय के अधिकारी द्वारा अथवा किसी रिसीवर (प्रापक) के द्वारा कुर्की करने के प्रयोजन के लिए अभिगृहीत कर लिये गये हों अथवा संहिता के आदेश 21 के नियम 46 के निबंधनों (शर्तों) के अनुसार ऐसे आदेश के द्वारा अभिगृहीत (कब्जे में) कर लिए गए हैं, जिसकी तामील निर्णीत-ऋणी पर अथवा सम्बन्धित कम्पनी पर की गई हो।

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