सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 118: आदेश 21 नियम 39 एवं 40 के प्रावधान

Shadab Salim

7 Feb 2024 7:21 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 118: आदेश 21 नियम 39 एवं 40 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 39 एवं 40 पर सागर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-39 जीवन-निर्वाह भत्ता-

    (1) जब तक और जिस समय तक डिक्रीदार ने न्यायालय में ऐसी राशि जमा न कर दी हो, जो न्यायाधीश निर्णीत-ऋणी की गिरफ्तारी से लेकर उसके न्यायालय के समक्ष लाए जा सकने तक उसके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त समझता है, तब तक कोई निर्णीत ऋणी के डिक्री निष्पादन में गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।

    (2) जहाँ निर्णीत ऋणी डिक्री के निष्पादन में सिविल कारागार को सुपुर्द किया जाता है वहां न्यायालय उसके जीवन-निर्वाह के लिए ऐसा मासिक भत्ता नियत करेगा जितने के लिए वह धारा 57 के अधीन नियम मापमानों के अनुसार हकदार है या जहां ऐसे कोई मापमान नियत नहीं किए गए हैं वहां जितना उसके विचार में उस वर्ग के बारे में पर्याप्त हो जिस वर्ग का निर्णीत ऋणी है।

    (3) न्यायालय द्वारा नियत किया गया मासिक भत्ता उस पक्षकार द्वारा, जिसके आवेदन पर निर्णीतऋणी गिरफ्तार किया गया है, अग्रिम मासिक संदायों द्वारा हर एक मास के प्रथम दिन के पूर्व दिया जाएगा।

    (4) पहला संदाय न्यायालय के उचित अधिकारी को चालू मास के ऐसे भाग के लिए किया जाएगा जो निर्णीत- ऋणी के सिविल कारागार को सुपुर्द किए जाने के पूर्व शेष है और पश्चात्वर्ती संदाय (यदि कोई हो) सिविल कारागार के भारसाधक अधिकारी को किए जाएंगे।

    (5) सिविल कारागार में निर्णीत ऋणी के जीवन-निर्वाह के लिए डिक्रीदार द्वारा संवितरित की गई राशियां वाद के खर्चे समझी जाएगी:

    परन्तु निर्णीत ऋणी ऐसे संवितरित की गई किसी भी राशि के लिए न तो सिविल कारागार में निरुद्ध किया जाएगा और न गिरफ्तार किया जाएगा

    नियम-40 सूचना के आज्ञानुवर्तन में या गिरफ्तारी के पश्चात् निर्णीतऋणी के उपसंजात होने पर कार्यवाहियां-

    (1) जब निर्णीतऋणी नियम 37 के अधीन निकाली गई सूचना के सामने उपसंजात होता है या धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार किए जाने के पश्चात् न्यायालय के सामने लाया जाता है तब न्यायालय डिक्रीदार को सुनने के लिए अग्रसर होगा और ऐसा सभी साक्ष्य लेगा जो निष्पादन के लिए आवेदन के समर्थन में उसके द्वारा पेश किया जाए और तब निर्णीतऋणी को हेतुक दर्शित करने का अवसर देगा कि वह सिविल कारागार को क्यों न सुपुर्द कर दिया जाए।

    (2) उपनियम (1) के अधीन या तो जांच की समाप्ति लम्बित रहने तक न्यायालय स्वविवेकानुसार आदेश कर सकेगा कि निर्णीतऋणी न्यायालय के अधिकारी की अभिरक्षा में निरुद्ध किया जाए या उसके द्वारा न्यायालय को समाधानप्रद रूप में इस बात की प्रतिभूति दिए जाने पर कि अपेक्षित किए जाने पर वह उपसंजात होगा न्यायालय उसे छोड़ सकेगा।

    (3) उपनियम (1) के अधीन जांच की समाप्ति पर न्यायालय धारा 51 के उपबन्धों और इस संहिता के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए निर्णीतऋणी के सिविल कारागार में निरुद्ध किए जाने का आदेश कर सकेगा और उस दशा में जब वह पहले से ही गिरफ्तारी में नहीं है उसे गिरफ्तार कराएगा:

    परन्तु निर्णीतऋणी को डिक्री की तुष्टि करने का अवसर देने के लिए न्यायालय निरोध का आदेश करने के पहले निर्णीतऋणी को न्यायालय के अधिकारी की अभिरक्षा में पन्द्रह दिन से अनधिक विनिर्दिष्ट अवधि के लिए रहने दे सकेगा या उसके विनिर्दिष्ट अवधि के अवसान पर उपसंजात होने के लिए, यदि डिक्री की तुष्टि उससे पहले ही न कर दी गई हो तो, उसके द्वारा न्यायालय को समाधानप्रद रूप में प्रतिभूति दिए जाने पर उसे छोड़ सर्केगा।

    (4) इस नियम के अधीन छोड़ा गया निर्णीतऋणी पुनः गिरफ्तार किया जा सकेगा।

    (5) जब न्यायालय उपनियम (3) के अधीन निरोध का आदेश न करे तब वह आवेदन को नामंजूर करेगा और यदि निर्णीतऋणी गिरफ्तारी में हो तो उसको छोड़े जाने का निदेश देगा।]

    निर्णीत-ऋणी को कारावास में बन्द करने पर उसका सम्पूर्ण खर्च डिक्रीदार को जमा कराना होता है, जो जीवन निर्वाह भत्ता कहलाता है। नियम 39 में इस राशि के जमा कराने की व्यवस्था बताई गई है। धारा 57 इस निर्वाह भत्ते के मापमान, पंक्ति, मूलवंश और राष्ट्रिकता के अनुसार श्रेणीबद्ध करने के लिए राज्य सरकार को शक्ति देती है।

    निर्णीत-ऋणी के उपस्थित होने या गिरफ्तार कर लाये जाने के बाद न्यायालय जो कार्यवाही करता है, वह नियम 40 में दी गई है।

    कार्यवाही की मुख्य बातें- (उपनियम-1)

    (1) निर्णीत-ऋणी उपस्थित- निर्णीत-ऋणी नियम 37 के सूचना मिलने पर स्वयं न्यायालय में उपस्थित होता है, या धन के संदाय की डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार कर न्यायालय में लाया गया है।

    (2) डिक्रीदार की सुनवाई और साक्ष्य- न्यायालय डिक्रीदार को अपने आवेदन के समर्थन में सुनेगा और साक्ष्य लेगा।

    (3) निर्णीत-ऋणी को अवसर- इसके बाद निर्णीत-ऋणी को अवसर देगा कि वह अपना पक्ष रखे।

    इस प्रकार न्यायालय उप नियम (1) के अधीन एक जांच करेगा।

    निर्णीत-ऋणी को प्रतिभूति पर छोड़ना (उपनियम 2)- जांच के दौरान निर्णीत-ऋणी को प्रतिभूति देने पर छोड़ा जा सकेगा। गिरफ्तारी और डिक्री की तुष्टि का अवसर देने के लिए प्रतिभूति पर छोड़ना।

    आवेदन नामंजूर करने पर निर्णीत-ऋणी को छोड़ दिया जावेगा-

    राज्यों के नियमों के अनुसार जीवन-निर्वाह भत्ता तथा खर्चे डिक्रीदार द्वारा दिये जायेंगे।

    प्ररूप (फार्म) निर्णीत ऋणी को बेल सुपुर्द करने का वारंट परिशिष्ट (ड) के प्ररूप संख्यांक 14 में जारी किया जावेगा। धारा 58 तथा 59 के अधीन डिक्री के निष्पादन में कारावास भेजे व्यक्ति की निर्मुक्ति (छोड़ने) का आदेश प्ररूप संख्यांक 15 में जारी किया जावेगा।

    इन नियमों पर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय-

    निष्पादन में निर्णीत-ऋणी की गिरफ्तारी का अधिपत्र (वारन्ट) निकालना इस प्रकार वारंट निकालने के लिए सम्पत्ति होते हुए भी जान-बूझकर भुगतान न करने का निष्कर्ष (निर्णय) देना आवश्यक है। वारंट निकालने के पहले जान बूझकर चूक के प्रश्न पर डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी दोनों को साक्ष्य पेश करने का अवसर देना आवश्यक है।

    औपचारिक जांच आवश्यक-

    नियम 40 के अधीन औपचारिक जांच करना आवश्यक है, जिसमें पहले डिक्रीदार अपने आवेदन के समर्थन में साक्ष्य देश करेगा और जब जेल भेजने के लिए प्रथम दृष्ट्या मामला बन जाता है, तो न्यायालय निर्णीत-ऋणी को उस आवेदन के विरुद्ध कारण बताने का अवसर देगा। विवादित मामलों में जांच करना आज्ञापक (अनिवार्य) है। कम से कम विवादित मामलों में आदेश 21, नियम 40 के अधीन जांच आज्ञापक है और वारंट जारी करने से पहले केवल शपथ-पत्र पर कार्यवाही अनियमित है। चाहे निर्णीत-ऋणी ने नियम 37 के अधीन जारी नोटिस के उत्तर में कारण दर्शित किए हों या नहीं, यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह उपरोक्त (जांच) के तरीके का अनुसरण करे।

    धारा 51 के परन्तुक की शर्तें- न्यायालय का समाधान आवश्यक धारा 51 के परन्तुक में या संहिता के अन्य उपबंधों में दिये गये आधारों में से किसी एक के बारे में न्यायालय का समाधान (सन्तोष) हुए बिना, कोई जेल भेजने का आदेश नहीं दिया जा सकेगा कि- निर्णीत-ऋणी को जेल में भेजना आवश्यक है। इसे साबित करने का भार स्पष्टतः डिक्रीदार पर होगा। फिर धारा 51 के परन्तुक के अनुसार जेल भेजने का आदेश करने से पहले न्यायालय को उसके कारण लेखबद्ध करने होंगे। ये प्रावधान धारा 51 में दिये गए हैं, जिनका पालन करना आवश्यक होगा।

    इस नियम के अधीन न्यायालय को जेल में भेजने की शक्ति नहीं है, जब तक कि अभिलेख पर आये साक्ष्य से उसका यह समाधान न हो जाए कि निर्णीत-ऋणी के वर्तमान साधन ऐसे हैं कि वह ऋण का चुकारा कर सकता है और धारा 51 के परन्तुक में वर्णित परिस्थितियों मौजूद हैं।

    जब स्पष्ट रूप से यह सिद्ध कर दिया जावे कि निर्णीत-ऋणी के पास धन है और फिर भी वह उपेक्षा कर रहा है और भुगतान नहीं कर रहा है। न्यायालय को ऐसा सन्तोष हो जाने पर ही निर्णीत-ऋणी को कारागार में निरुद्ध किया जा सकता है। ऐसे कारागार की अवधि तीन माह से अधिक नहीं हो सकती।

    धनीय-डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तारी तथा जेल में निरोध- पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिए डिक्री के मामले में धारा 51 के परन्तुक में बताये गये प्रतिबन्ध (शर्तें) लागू होती हैं। जब ऐसी डिक्री में पति को गिरफ्तार करने व निरोध में रखने से पहले पत्नी को यह समाधान करवाना होगा कि- डिक्री के दिनांक से पति के पास भरण-पोषण की राशि का भुगतान करने के साधन हैं। भरण-पोषण के वाद के निर्णय के समय यह साबित कर दिया गया था कि- पति के पास डिक्री की राशि का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन हैं। अतः यह धारणा की जा सकती है कि- भुगतान करने के ऐसे साधन मौजूद हैं। पति को, येनकेन, अवसर दिया गया कि वह रु. 1500/- जमा कराने पर इस उपधारणा का निराकरण (दूर) कर सके।

    सिविल जेल में निरोध- जब डिक्रीत राशि रु. 1000/- से अधिक हो, तो भी निरोध (जेल) की अवधि तीन माह से अधिक नहीं हो सकती, क्योंकि अनिश्चित काल के लिए निरोध अवैध होता है। निर्णीत-ऋणी कुछ राशि निर्देशानुसार जमा करवाता है और बकाया राशि जमा करवाने के लिए कुछ समय चाहता है, तो केवल इसी आधार पर उसको विधिक उपचार से वंचित नहीं किया जा सकता।

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