सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 117: आदेश 21 नियम 37 एवं 38 के प्रावधान

Shadab Salim

7 Feb 2024 5:18 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 117: आदेश 21 नियम 37 एवं 38 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 37 एवं 38 टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-37 कारागार में निरुद्ध किए जाने के विरुद्ध हेतुक दर्शित करने के लिए निर्णीतऋणी को अनुज्ञा देने की वैवेकिक शक्ति (1) इन नियमों में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ धन के संदाय के लिए डिक्री का निष्पादन ऐसे निर्णीतऋणी की जो आवेदन के अनुसरण में गिरफ्तार किए जाने के दायित्व के अधीन है, गिरफ्तारी और सिविल कारागार में निरोध के द्वारा करने के लिए आवेदन है।

    वहाँ न्यायालय उसकी गिरफ्तारी के लिए वारण्ट निकालने के बदले उससे यह अपेक्षा करने वाली सूचना उसके नाम निकालेगा कि उस दिन को जो उस सूचना में विनिर्दिष्ट किया जाएगा, वह न्यायालय में उपसंजात हो और हेतुक दर्शित करे कि सिविल कारागार को उसे क्यों न सुपुर्द कर दिया जाए:

    [परन्तु यदि न्यायालय का शपथपत्र द्वारा या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि यह सम्भाव्यता है कि निर्णीतऋणी डिक्री के निष्पादन में विलम्ब करने के उद्देश्य से फरार हो जाए या न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं को छोड़ दे या उसके ऐसा करने का परिणाम यह होगा कि डिक्री के निष्पादन में विलम्ब होगा तो ऐसी सूचना देना आवश्यक नहीं होगा।]

    (2) जहाँ सूचना के आज्ञानुवर्तन में उपसंजाति न की जाए वहाँ यदि डिकीदार ऐसा अपेक्षित करे तो न्यायालय निर्णीतऋणी की गिरफ्तारी के लिए वारण्ट निकालेगा।

    नियम-38 गिरफ्तारी के वारण्ट में निर्णीतऋणी के लाए जाने के लिए निदेश होगा- निर्णीतऋणी की गिरफ्तारी के वारण्ट में उस अधिकारी को जिसे उसका निष्पादन न्यस्त किया गया है, यह निदेश होगा कि वह उसे न्यायालय के समक्ष सुविधानुसार पूर्ण शीघ्रता से लाए यदि निर्णीतऋणी वह रकम जिसे देने के लिए वह आदिष्ट किया गया है, उस पर ऐसे ब्याज़ के और यदि कोई खर्चा हो तो ऐसे खर्च के सहित, जिसके लिए वह दायी है, पहले ही संदत्त नहीं कर देता है।

    नियम 37 में निर्णीत-ऋणी को कारागार भेजने से पहले कारण बताने के लिए नोटिस देने की व्यवस्था की गई है। नियम 38 में वारंट का स्वरूप बताया गया है।

    इन नियमों में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय को यह विवेकाधिकार दिया गया है कि वह धन के संदाय के लिए डिक्री के निष्पादन के लिए गिरफ्तारी और सिविल जेल में भेजने के बजाय पहले निर्णीत-ऋणी को एक कारण बताओ नोटिस परिशिष्ट (ङ) के प्ररूप (फार्म) संख्यांक 12 में दिया जावेगा। एक वाद में धन के संदाय के लिए डिक्री के निष्पादन में निणात ऋणी को गिरफ्तार करने एवं सिविल कारागार में निरोध के आवेदन पर निर्णीत ऋणी को न तो कारण बताओ नोटिस भेजा और न ही नियम 40 के अन्तर्गत जांच को। गिरफ्तार एवं सिविल कारागार में निरोध करने का आदेश अपास्त योग्य माना गया।

    सूचना अब आवश्यक नहीं- परन्तुक के अनुसार जब शपथपत्र द्वारा या अन्यथा (साक्ष्य द्वारा) न्यायालय का समाधान हो जावे कि निष्पादन में देरी करने के लिए निर्णीत-ऋणी (1) फरार हो सकता है, या (2) न्यायालय को सीमा छोड़ सकता है, तो ऐसी सूचना देना आवश्यक नहीं होगा।

    कब गिरफ्तारी नहीं- आदेश 21 नियम 66 के तहत प्रस्तुत आवेदन पर सम्पत्ति कुर्क कर ली जाने की दशा में निर्णीत ऋणी को गिरफ्तारी हेतु आदेश 21 नियम 37 के अधीन वारंट जारी नहीं किया जा सकता। डिक्री धन की अदायगी के अभाव में निर्णीत ऋणी को सिविल जेल नहीं भेजा जा सकता। न्यायालय को निर्णीत ऋणी को अवसर देते हुये जाँच करनी होगी कि उसके पास साधन होते हुये भी वह अदायगी नहीं कर रहा है। सिविल जेल भिजवाने से पूर्व कारण सहित आदेश लिखना होगा।

    अनुपस्थिति का प्रभाव [उपनियम (2)] - जब नोटिस देने पर भी निर्णीत ऋणी उपस्थित न हो, तो उसको गिरफ्तारी का वारंट निकाला जावेगा।

    वारंट का स्वरूप - (नियम 38) - एक वाद में गिरफ्तारी का वारण्ट परिशिष्ट (ड) के प्ररूप (फार्म) संख्यांक 13 में निकाला जावेगा, जिसमें यह निदेश होगा कि यदि निर्णीत-ऋणी डिक्री की रकम, मय ब्याज व खर्चे के जो वारण्ट में अंकित है, नहीं देता है, तो उसे सुविधानुसार पूरी शीघ्रता से न्यायालय के समक्ष लाया जाए। डिक्री के निष्पादन में कारावास और सम्पत्ति की कुर्की का आदेश दिया गया, परन्तु उस आदेश में न तो गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति निर्णीत-ऋणियों (अपीलार्थियों) के विरुद्ध 2.5 लाख रुपये की राशि की डिक्री 1972 के आरम्भिक वाद संख्या 57 में हुई थी, जबकि प्रत्यर्थी बैंक डिक्रीदार था। अपीलार्थियों के विरुद्ध धन सम्बंधी दो अन्य डिक्रीयाँ हैं, जबकि उनके द्वारा संदेय कुल राशि सात लाख रुपये से अधिक है।

    प्रश्नगत डिक्री के निष्पादन स्वरूप गिरफ्तारी के लिए तथा सिविल कारागार में निरोध के लिए वारण्ट सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 और आदेश 21 के नियम 37 के अधीन 22-6-1979 को जारी किया गया था। इसके पहले उसी डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तारी के लिए उसी प्रकार का वारण्ट जारी किया गया था। इस आदेशिका के अलावा, डिक्रीदारों ने निर्णीत-ऋणियों की सम्पत्ति के विरुद्ध कार्यवाही को और उसके परिणामस्वरूप उनकी सभी स्थावर सम्पत्तियों की कुर्की डिक्रीत-ऋणी के उन्मोचन स्वरूप विक्रय के लिए कर ली गई थी।

    यह प्रकथन किया गया कि निष्पादन न्यायालय ने कुर्की की गई सम्पत्तियों के प्रबन्ध के लिए रिसीवर (प्रापक) भी नियुक्त किया। संक्षेप में, निर्णीत-ऋणियों द्वारा उपभोग को या उन्हें संक्रान्त किए जाने की शक्ति को भी, उन सम्पत्तियों को कुर्की के अधीन रखते हुए और उनके प्रबन्ध के लिए प्रापक नियुक्त करते हुए, न्यायालय के निदेश द्वारा निषिद्ध कर दिया है।

    फिर भी न्यायालय ने गिरफ्तारी के लिए वारण्ट जारी किया, क्योंकि इससे पहले वाले अवसर पर उसी प्रकार का वारण्ट जारी किया गया था। उच्च न्यायालय ने अपने संक्षिप्त आदेश में, गिरफ्तारी के आदेश के विरुद्ध निर्णीत-ऋणी द्वारा फाइल किए गए पुनरीक्षण को संक्षिप्ततः खारिज कर दिया। निष्पादन न्यायालय ने निर्णीत-ऋणियों के ऋण अदा करने से सम्बन्धित वर्तमान दायित्व के सम्बन्ध में या ऋण का उन्मोचन करने विषयक उनके असद्भावपूर्वक की गई इनकारी, यदि कोई हो तो, के सम्बन्ध में कोई भी अन्वेषण नहीं किया।

    प्रश्न यह है कि क्या ऐसी परिस्थतियों में निर्मीत-ऋणियों को दैहिक स्वातन्त्र्य से तब तक बंचित रखा जा सकता है, जब तक कि ऋण का पुनः संदाय न कर दिया जाए और यदि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 31 के साथ पठित धारा 51 ऐसे कदम को न्यायोचित ठहराती है तो क्या अनुच्छेद 21 के अधीन न्यायसंगत प्रक्रिया की कसौटी पर कसे जाने पर और सिविल तथा राजनीतिक अधिकारों से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनुच्छेद 11 की रोशनी में मानव देह की अन्तर्निहित गरिमा के अनुरूप विधि का उत्पनन्य सांविधानिक है।

    उच्च न्यायालय के उसी निर्णय के विरुद्ध निर्णीत-ऋणी ने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की है। अपील भागतः मंजूर करते हुए, अभिनिर्धारित-जिन शब्दों से चोट पहुंची है वे ये हैं: डिक्री की रकम को संदत करने के साधन निर्णीत ऋणी के पास डिक्री के तारीख के पश्चात् रह चुके हैं। इसे बाहर से पढ़ने पर यह विवक्षित होता है कि यदि पुरानी डिक्री पारित करने के बाद किसी भी समय निर्णीत-ऋणी के पास स्रोत थे।

    उसने उस डिक्री का उन्मोचन नहीं किया था, तो उसे कारावास में निरुद्ध किया जा सकता था, भले ही उस बाद वाले निश्चित समय पर उसकी बाबत ऐसा क्यों न पाया गया हो कि उसके पास एक पैसा भी नहीं है। (प्रत्संविदा के) अनुच्छेद 11 और (संविधान के) अनुच्छेद 21 के मानकों के आधार पर निश्चित करते हुए, अमानवीय होने के अलावा यह अच्छी स्थिति नहीं है। उन्मोचन करने में हुआ व्यतिक्रम मात्र पर्याप्त नहीं होता है।

    उसमें संदत करने के बाबत मात्र उदासीनता, विगत में जानबूझकर या दुराग्रहपूर्ण चित्तवृत्ति या अनुकल्पतः, डिक्री या उसके सारवान भाग को संदत करने के वर्तमान साधन से परे, अस‌द्भाव का कुछ तत्व अवश्य ही मौजूद होना चाहिए।

    इस उपक्रन्य में, संदत करने में हुई चूक मात्र को साबित करने की नहीं बल्कि इस मांग से इनकार करने के इस रुख की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, जिसका डिक्री के अधीन बेईमानी के साथ किसी बाध्यता को अस्वीकृत करने की ओर हो। यहां पर ऋणी की अन्य आवस्यकताओं और परेशानी से भरी हुई परिस्थितियों पर विचार करने की बात मुख्य रूप से महत्वपूर्ण होगी। इस अर्थान्वयन के द्वारा विधि के साथ न्याय का तत्व जोड़ कर उसे रुचिकर बना दिया गया है और प्रसंविदा तथा संविधान के साथ ही पारा 51 का समन्वय कर दिया गया है।

    विधि आयोग ने सिवित्त प्रक्रिया संहिता की धारा 51 का जो अर्थान्वयन किया है, उससे यह अभिप्रेत है कि विगत की सम्पनता और उसके दायित्व को समाप्त करने में, बेईमानी या अस‌द्भाव को बीच में लाए बिना, वर्तमान समय की निर्धनता प्रसंविदा के अनुच्छेद 11 से संगत हो सकती है, क्योंकि उस दशा में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 के अधीन कोई भी निरोध अनुज्ञेय नहीं है।

    उसी प्रकार से ऋण के संदाय के लिए दिए जाने वाले कारावास के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिप्राय अर्थपूर्ण है। अनुच्छेद 14 और 19 के साथ के साथ पठित अनुच्छेद 21 में उपबन्धित मनुष्य की गरिमा का उच्च मूल्य और मनुष्य की देह का मूल्य, राज्य को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह ऐसी विधि के अधीन कारावासित करने के सिवाय जो कि अपने प्रक्रियात्मक मर्म की दृष्टि से उचित, न्यायोचित और युक्तिसंगत हो, कारावासित नहीं करेगी।

    विस्तार से इसकी व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि किसी व्यक्ति को उसकी गरीबी के कारण तथा उसके संविदात्मक दायित्व की पूर्ति करने में पारिणामिक असमर्थता के कारण कारावास में डाल देना भयावह है। दरिद्र नारायण के इस देश में, निर्धन होना कोई अपराध नहीं है और किसी व्यक्ति को कारावास में डालने की प्रक्रिया द्वारा ऋण की वसूली करना अनुच्छेद 21 का घोर अतिक्रमण है, जब तक कि पर्याप्त साधन के बावजूद संदत्त करने में हुई जानबूझकर असफलता के सम्बन्ध में कम से कम औचित्य की बाबत सबूत मौजूद न हो और उसके साधन के सम्बन्ध में और अधिक आवस्यक दावों का अभाव न हो, जैसे कि कैंसर का या अन्य किसी गम्भीर बीमारी का निदान करने से सम्बन्धित चिकित्सीय विपत्र।

    प्रसंविदा के अनुच्छेद 11 से निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि ऐसी प्रक्रिया में अयुक्तियुक्त और अनौचित्य मौजूद है। किन्तु सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 के परन्तुक का जो निर्वचन किया गया है, वह निश्चित रूप से यही है और अनुच्छेद 21 पर जो पातक प्रहार किया गया है, वह इस उपक्प को अभिखण्डित नहीं कर सकता।

    सिविल और राजनीतिक अधिकारों से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा किसी डिक्रीत ऋण का उन्मोचन न करने मात्र के कारण कारावास का दण्ड देने पर प्रतिबन्ध लगाती है। जब तक कि डिक्रीत ऋण अदा करने में हुई असफलता के अलावा, कोई अन्य बुराई या आपराधिक मनः स्थिति न हो, तब तक अन्तर्राष्ट्रीय विधि न्यायालय द्वारा, किसी ऋणी के देह का सिविल कारावास में बन्दी बनाकर रखे जाने की बात को अनुचित ठहराती है।

    इस प्रसंविदा पर भारत ने अब हस्ताक्षर कर दिए हैं और संविधान का अनुच्छेद 51 (ग) राज्य पर इस बात की बाध्यता डालता है कि वह संघटित लोगों के, एक दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और संधिबन्धनों के प्रति आदर बढ़ाए। यदि ऐसा है, तो जब तक कि नगरपालिक विधि में उक्त प्रसंविदा को स्थान देने की दृष्टि से तबदीली न कर दी जाए, तब तक जो बात न्यायालय को बाध्य करती है, वह पूर्वकथित विधि है, न कि पश्चात्कथित।

    किसी दिन इस बात के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है क्या सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के नियम 37 के साथ पठित धारा 51 का परन्तुक संविधान के अनुच्छेद 21 में दी गई सांविधानिक आज्ञा के आधिक्य में है और भागतः अवैध है। प्रस्तुत मामले में चूंकि यह मामला पुनर्विचार के लिए वापस भेजा जा रहा है, इसलिए उसकी शक्तियों पर विचार करने की स्थिति इस प्रक्रम में नहीं है।

    नोटिस तथा गिरफ्तारी का वारंट साथ साथ निकालना-

    वैधता का प्रश्न- यह न्यायिक विवेक का प्रयोग नहीं है कि-न्यायालय एक साथ नोटिस भी दे और वारंट भी निकाले, परन्तु ऐसा करना केरल उच्च न्यायालय के मतानुसार अवैध नहीं है। परन्तु यह मत अब पुराना हो गया है। निष्पादन के संबंध में आदेश 21, नियम 16, आदेश 21, नियम 22; आदेश 21, नियम 24 (1) तथा आदेश 21, नियम 37 के अधीन निर्णीत-ऋणी को सूचनायें दी जाती हैं। निर्णीत-ऋणी को सूचना एवं गिरफ्तारी का वारंट साथ-साथ निकालना न्यायोचित नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे अवैध ठहराया है।'ल निर्णीत 'ऋणी को सिविल कारागार में भेजने के बारे में विचार करते समय धारा 51,55 और 59 का उपबंधों पर विचार करना आवश्यक है।

    नोटिस देना आवश्यक- निर्वाह भत्ते की बकाया की डिक्री के निष्पादन में डिक्रीदार (पत्नी) ने पति को गिरफ्तार कर सिविल जेल में भेजने का आवेदन किया, तो आदेश 21, नियम 37 के अधीन उस निर्णीत-ऋणी (पति) को नोटिस देना आवश्यक था। नोटिस देने की इस आज्ञापक शर्त को केवल तभी त्यागा जा सकता है, जबकि निर्णीत-ऋणी के फरार होने या न्यायालय के क्षेत्र को छोड़ देने की कुछ साक्ष्य हो। जहाँ न कोई ऐसी साक्ष्य हो और न कोई शपथ पत्र ही डिक्रीदार द्वारा दिया गया हो, तो बिना नोटिस दिये गिरफ्तारी का वारंट निकालना एक तात्विक अनियमितता है।

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