सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 114: आदेश 21 नियम 29 के प्रावधान

Shadab Salim

5 Feb 2024 7:20 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 114: आदेश 21 नियम 29 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 29 पर व्यख्यात्मक प्रकाश डाला जा रहा है।

    नियम-29 डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी के बीच वाद लम्बित रहने तक निष्पादन का रोका जाना- जहां उस व्यक्ति की ओर से, जिसके विरुद्ध डिक्री पारित की गई थी, कोई वाद ऐसे न्यायालय की डिक्री के धारक के [या ऐसी डिक्री के जो ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित की जा रही है धारक के] विरुद्ध किसी न्यायालय में लम्बित है वहां न्यायालय प्रतिभूति के बारे में या अन्यथा ऐसे निबन्धनों पर, जो वह ठीक समझे, डिक्री के निष्पादन को तब तक के लिए रोक सकेगा जब तक लम्बित वाद का विनिश्चय न हो जाए

    [परन्तु यदि डिक्री धन के संदाय के लिए है तो न्यायालय उस दशा में जिसमें वह प्रतिभूति अपेक्षित किए बिना उसका रोकना मंजूर करता है, ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा।]

    आदेश 21, नियम 29 पक्षकारों के बीच निष्पादन के बारे में वाद लम्बित होने पर उसके निर्णीत तक निष्पादन को रोकने की व्यवस्था करता है। इस नियम में दो संशोधन किये गये हैं।

    ऐसी डिक्री जो ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित की जा रही है - यह शब्दावली संसोधन द्वारा जोड़ी गई है। पहले बम्बई तथा कलकत्ता न्यायालय इस नियम के अधीन अन्तरिती (निष्पादन) न्यायालय को अधिकारिता मानते थे, पर मध्यप्रदेश तथा मैसूर का विपरीत मत था। अतः जिस न्यायालय को डिक्री निष्पादन के लिए अन्तरित की गई है-अर्थात् निष्पादन न्यायालय इस नियम के अधीन कार्यवाही कर सके, ऐसी व्यवस्था के लिए इस नियम में उक्त शब्दावली जोड़ी गई।

    अत: संशोधित आदेश 21, नियम 29 के अधीन न्यायालय ने केवल अपने द्वारा पारित डिक्री का ही स्थगन कर सकता है, वरन् दूसरे न्यायालय द्वारा पारित डिक्री का भी स्थगन कर सकता है, जिसे निष्पादन के लिए उसे अन्तरित किया गया है।

    न्यायालयों के निर्णयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त - आदेश 21, नियम 29 के उपबन्ध आज्ञापक स्वरूप के न होकर वैवेकिक स्वरूप के हैं। सामान्य रूप में निष्पादन के रोक को लागू होने वाले सिद्धांत वे ही हैं जो आदेश 21 के नियम 29 में दिये गये हैं। रोक मंजूर करने की शक्ति वैवेकिक होने से न्यायालय पर्याप्त हेतुक होने की बात को भी विचार में ले सकता है।

    आदेश 21 नियम 29 के प्रावधान उन प्रकरणों में लागू नहीं होता है, जहाँ कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान निर्णीत अदायी ने सम्पत्ति को किसी तीसरे पक्षकार को अन्तरित कर दी हो।

    अन्तनिहित शक्ति का प्रयोग- [ आदेश 21, नियम 29 सपठित धारा 151] - न्यायालय द्वारा रोक आदेश को शक्ति का प्रयोग तब किया जा सकता है, जब निर्णीत-ऋणी के अनुरोध पर डिक्रीधारक के विरुद्ध वाद लम्बित हो, परन्तु यह भी तब जबकि ऐसा वाद या तो प्रत्यक्षतः ऐसे न्यायालय के डिक्रीधारक या उस डिक्री से संबंधित हो, जो ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित को जा रही हो धारा 151 के अधीन प्रदत्त शक्तियाँ न्यायालय को विनिर्दिष्टः प्रदत्त शक्तियों को अनुपूरक हैं अतः उक्त धारा में उल्लिखित प्रयोजनों के लिए न्यायालय इन शक्तियों का प्रयोग करने के लिए स्वतन्त्र है।

    नियम 29 के अधीन कार्यवाही करने के लिए डिक्रीदार को ओर से निष्पादन कार्यवाही और निर्णीत ऋणी की ओर से उस डिक्रीदार के विरुद्ध वाद एक ही न्यायालय में होने आवश्यक हैं। आदेश 21, नियम 29 - डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी के बीच वाद लम्बित रहने तक निष्पादन का रोका जाना-इस विषय में न्यायालय की शक्ति का आधार - निष्पादनाधीन डिक्री का उस न्यायालय द्वारा पारित डिक्री न होना-न्यायालय को निष्पादन रोक देने की अधिकारिता नहीं होगी।

    निष्पादन को रोकने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि डिक्रीदार की ओर से निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध निष्पादन तथा निर्णीत-ऋणी की ओर से डिक्रीदार के विरुद्ध वाद, दोनों प्रकार की कार्यवाहियों एक ही न्यायालय में एक ही समय पर लम्बित हो। उसी न्यायालय में लम्बित होने के अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि ऐसा वाद उसी न्यायालय की डिक्री के डिक्रीदार के विरुद्ध हो।

    एक पुराने वाद में न्यायालय ने उन्हें 590/- रुपये की प्रतिभूति 5 अगस्त, 1963 तक जमा कराने का निदेश दिया जो अपीलार्थियों द्वारा न दी जा सकी। अतः यह मानकर कि 5 अगस्त, 1963 के बाद कोई भी रोक वाला आदेश विद्यमान नहीं था, सम्पत्ति का विक्रय कर दिया गया तथा डिक्रीदार ने उसे खरीद लिया।

    अपीलार्थियों में से एक ने सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के अधीन विक्रय को अपास्त करने के लिए एक आवेदन फाइल किया, जिसे स्वीकार करते हुए मुन्सिफ ने उस विक्रय को इस आधार पर अवैध मान लिया कि विक्रय सम्बन्धी उद्‌घोषणा रोक वाले आदेश विद्यमान रहते हुए जारी की गई थी और इसी कारण उसने विक्रय को अपास्त कर दिया। अधीनस्थ न्यायाधीश ने भी मुन्सिफ के निर्णय को कायम रखा।

    प्रत्यर्थी डिक्रीदार द्वारा उच्च न्यायालय में अपील किए जाने पर, यह अभिनिर्धारित किया गया कि मुन्सिफ का न्यायालय डिक्री के निष्पादन के सम्बन्ध में रोक वाला आदेश देने के लिए सक्षम नहीं था; अतः वह आदेश शून्य है और विक्रय सम्बन्धी सभी कार्यवाहियां वैध है। निष्पादन सम्बन्धी आदेश को इस कारण भी वैध बताया गया कि 5 अगस्त, 1963 तक प्रतिभूति के जमा न किए जाने के कारण रोक वाला आदेश अपने आप ही समाप्त हो गया था।

    उसी आदेश के विरुद्ध ही निर्णीत-ऋणी अपीलार्थियों ने विशेष इजाजत लेकर उच्चतम न्यायालय में अपील की है। अपील खारिज करते हुए अभिनिर्धारित किया गया कि - (1) आदेश 21 के नियम 29 को देखने मात्र से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक न्यायालय में एक ही समय पर दो कार्यवाहियों होनी चाहिए। एक कार्यवाही निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध डिक्रीधारक की ओर से निष्पादन में की गई कार्यवाही होनी चाहिए और दूसरी डिक्रीधारक के विरुद्ध निर्णीत-ऋणी की ओर से एक वाद होना चाहिए।

    यह वह स्थिति है जिसमें ऐसा न्यायालय जिसमें कि वाद लम्बित हो, अपने समक्ष वाले निष्पादन सम्बन्धी कार्यवाहियों रोक सकता है। यह बात काफी नहीं है कि निर्णीत-ऋणी द्वारा कोई वाद लम्बित हो, बल्कि इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि यह वाद ऐसे न्यायालय की डिक्री के धारक के विरुद्ध ही होना चाहिए। ऐसे न्यायालय शब्द महत्त्वपूर्ण है। ऐसे न्यायालय शब्दों से उन नियम के सम्बन्ध में ऐसा न्यायालय अभिप्रेत है जिसमें वाद लम्बित हो। दूसरे शब्दों में वाद को ऐसा होना चाहिए जो कि न केवल उस न्यायालय में लम्बित हो बल्कि ऐसा वाद होना चाहिए जो कि उस न्यायालय की डिक्री के धारक के विरुद्ध भी हो।

    यह बात सच है कि समुचित न्यायालयों में कोई न्यायालय किसी अन्य न्यायालय में कार्यवाहियों को चलाने के सम्बन्ध में किसी पक्षकार के विरुद्ध व्यादेश नहीं दे सकता किन्तु जब तक कि न्यायालय अपीलों या पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता का प्रयोग नहीं करते हैं, तब तक मामूली तौर से उनको ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं होती है जिससे वे किसी आदेश द्वारा अन्य न्यायालयों को इस बात के लिए निदिष्ट कर सकें कि उनमें चल रही कार्यवाहियों रोक दी जाएं।

    इस कारण से विधि के विनिर्दिष्ट उपबन्ध आवश्यक हैं। आदेश 21 के नियम 29 से यह बात स्पष्ट दर्शित होती है कि- किसी न्यायालय के समक्ष निष्पादन की कार्यवाहियों पर उसके द्वारा रोक लगाने की शक्ति इस तथ्य से प्राप्त होती है कि निष्पादन ऐसे डिक्रीदार की प्रार्थना पर किया गया है जिसकी डिक्री केवल उसी न्यायालय ने पारित की थी। यदि निष्पादन में की गई डिक्री उसके द्वारा पारित नहीं की गई थी, तो उसे निष्पादन की कार्यवाहियों पर रोक लगाने की कोई भी अधिकारिता प्राप्त नहीं होती है।

    प्रस्तुत मामले में, जिस डिक्री के निष्पादन की कोशिश की गई थी, वह गया के अधीनस्थ न्यायाधीश द्वारा लघुवाद न्यायालय की अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए पारित की गई डिक्री नहीं थी। अतः यह बात स्पष्ट है कि गया के मुन्सिफ द्वारा पारित निष्पादन पर रोक लगाने संबंधी आदेश सक्षम नहीं था और अधिकारिता के बिना ही किया गया था।

    डिक्री पारित करने वाला न्यायालय ही स्थगन दे सकेगा [आदेश 21, नियम 29] वही न्यायालय डिक्री का निष्पादन रोक सकता है जिसने उसे पारित किया हो। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध आदेश शून्य एवं अस्तित्वहीन माना जाएगा।

    एक अन्य मामले में विवाद वाराणसी के जगतगंज मोहल्ले के मकान सं. सी-27/33 का था। यह गुरु आत्मविवेकानन्द ने प्रवापाट मठ को दे दिया था। किन्तु उनके मरने के बाद उनके पुत्र कृष्ण सिंह ने उसका कब्जा नहीं छोड़ा। अतः मथुरा अहीर ने बेदखली का दावा किया जो उच्चतम न्यायालय तक स्थिर रहा।

    उच्चतम न्यायालय ने यह प्रश्न खुला छोड़ दिया कि हरशंकरानन्द यथाविधि महन्त थे या नहीं। किन्तु फिर भी उनके मठ के प्रबन्धक होने के नाते मठ के लिए उनके पक्ष में बेदखली की डिक्री दी गई। तब कृष्ण सिंह ने सिविल न्यायाधीश के न्यायालय में हरशंकरानन्द के अधिकार को चुनौती देते हुए एक वाद प्रस्तुत कर दिया, जिसमें सिविल न्यायाधीश ने डिक्री का निष्पादन रोक दिया। उसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अर्जी दी गई जिस पर उस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का सारांश निम्नलिखित है:-

    इस मामले में पहले यह न्यायालय निर्णय कर चुका है कि प्रश्नगत संपत्ति गरबाघाट मठ की है, श्री कृष्ण सिंह आदि को उसमें कोई अधिकार न होकर वे अतिचारी मात्र हैं, तथा हालांकि हरशंकरानन्द का हक तय नहीं किया गया फिर भी वह प्रबंधक एवं अंतःक्षेपी होने के कारण सिविल प्रक्रिया संहिता की पारा 2(11) के अर्थ में विधिक प्रतिनिधि हैं। उन्हें मठ की ओर से कब्जा प्राप्त करने का अधिकार है। इस विषय में प्रिवी कौंसिल के दो निर्णय उल्लेखनीय है, 1933 प्रिवी कौंसिल 75 तथा 1935 प्रिवी कौसिल 44।

    ऐसी दशा में कृष्ण सिंह से कब्जा हरशंकरानन्द को दिला दिया जाना था। किन्तु ऐसा न करके सिविल न्यायाधीश ने डिक्री का निष्पादन रोक दिया। डिक्री उनके द्वारा पारित न होने के कारण उनको उसका निष्पादन रोकने का अधिकार ही नहीं था, क्योंकि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1948 का आदेश 21, नियम 29 डिक्री पारित करने वाले न्यायालय को ही उसका निष्पादन रोकने का अधिकार देता है।

    इससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता कि उक्त नियम में 1976 के अधिनियम सं. 104 की धारा 72 द्वारा संशोधन किया गया क्योंकि संशोधन द्वारा जोड़े गए शब्दों में भी ऐसे न्यायालय (such court) द्वारा डिक्री पारित करने वाले न्यायालय का ही उल्लेख है। प्रस्तुत मामले में डिक्री मुंसिफ ने पारित की थी, सिविल न्यायाधीश ने नहीं।

    इसके अतिरिक्त, सिविल न्यायाधीश का निष्पादन रोकने का आदेश इस दृष्टि से भी शून्य और अस्तित्वहीन है कि वह इस न्यायालय के निर्णय के प्रतिकूल होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन करता है। अतः उस आदेश को रद्द किए बिना भी उसे अस्तित्वहीन माना जा सकता है।

    इस मामले में यह स्पष्ट है कि श्री कृष्ण सिंह ने इस मामले में निर्णय को कोई महत्व न देकर उसको व्यर्थ करने की तरकीब निकाली है। अतः उन्हें नोटिस जारी हो कि वह 25/9/1981 को उपस्थित होकर बताएं कि उन्हें न्यायालय का अवमान करने के लिए दण्डित क्यों न किया जाए। सिविल न्यायाधीश भी स्पष्टीकरण दें कि उन्होंने किन परिस्थितियों में प्रश्नगत आदेश पारित किया। उन्हें यह निदेश दिया जाता है कि इस आदेश की प्राप्ति से एक सप्ताह के भीतर प्रश्नगत सम्पत्ति का कब्जा हरशंकरानन्द को दिला दें।

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