सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 105: आदेश 21 नियम 3 से 9 तक के प्रावधान

Shadab Salim

27 Jan 2024 3:06 PM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 105: आदेश 21 नियम 3 से 9 तक के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 3 से 9 तक के प्रावधानों पर चर्चा प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-3 एक से अधिक अधिकारिता में स्थित भूमि-जहां स्थावर सम्पत्ति दो या अधिक न्यायालयों की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित एक सम्पदा या भूधृति के रूप में है वहां पूरी सम्पदा या भूधृत्ति को ऐसे न्यायालयों में से कोई भी एक न्यायालय कुर्क कर सकेगा और उसका विक्रय कर सकेगा।

    नियम-4 लघुवाद न्यायालय को अन्तरण - जहां डिक्री किसी ऐसे वाद में पारित की गई है, जिसका वादपत्र में उपवर्णित मूल्य दो हजार रुपए से अधिक नहीं है और जहां तक उसकी विषय-वस्तु का सम्बन्ध है वह या तो प्रेसिडेन्सी या प्रान्तीय लघुवाद न्यायालयों के संज्ञान से तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा अपवादित नहीं है और यह न्यायालय जिसने उसे पारित किया था यह चाहता है कि वह कलकता, मद्रास5 [या मुम्बई] निष्पादित की जाएं वहां ऐसा न्यायालय, यथास्थिति, कलकत्ता, मद्रास [या मुम्बई में के लघुवाद न्यायालय से नियम 6 में वर्णित प्रतियां और प्रमाणपत्र भेज सकेगा और तब ऐसा लघुवाद न्यायालय उस डिक्री का निष्पादन ऐसे करेगा मानो वह स्वयं उसके द्वारा पारित की गई हो।

    नियम-5 अन्तरण की रीति- जहां डिक्री निष्पादन के लिए दूसरे न्यायालय को भेजी जानी है वहां वह न्यायालय जिसने ऐसी डिक्री पारित की है डिक्री को सीधे ऐसे दूसरे न्यायालय को भेजेगा चाहे ऐसा दूसरा न्यायालय उसी राज्य में स्थित हो या नहीं, किन्तु वह न्यायालय जिससे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है उस दशा में जिसमें उसे डिकी को निष्पादित करने की अधिकारिता नहीं है ऐसे न्यायालय को भेजेगा जिसे ऐसी अधिकारिता है।

    नियम-6 जहां न्यायालय यह चाहता है कि उसकी अपनी डिक्री किसी अन्य न्यायालय द्वारा निष्पादित की जाए वहां प्रक्रिया- डिक्री को निष्पादन के लिए भेजने वाला न्यायालय निम्नलिखित भेजेगा, अर्थात् -

    (क) डिक्री की प्रति,

    (ख) यह उपवर्णित करने वाला प्रमाण पत्र कि डिक्री की तुष्टि उस न्यायालय की अधिकारिता के भीतर जिसने उसे पारित किया था निष्पादन द्वारा अभिप्राप्त नहीं की गई है या जहां डिक्री का निष्पादन भागतः हुआ है वहां वह विस्तार जिस तक तुष्टि अभिप्राप्त कर ली गई है और डिकी का जो भाग अतुष्ट रहा है वह भाग उपवर्णित करने वाला प्रमाणपत्र, तथा

    (ग) डिक्री के निष्पादन के किसी आदेश की प्रति या यदि ऐसा कोई भी आदेश नहीं किया गया है तो उस भाव का प्रमाणपत्र।

    नियम-7 डिक्री आदि की प्रतियां प्राप्त करने वाला न्यायालय उन्हें सबूत के बिना फाइल कर लेगा वह न्यायालय जिसे डिक्री ऐसे भेजी गई है, ऐसी प्रतियों और प्रमाणपत्रों को उस डिक्री या आदेश के जो निष्पादन के लिए है या उसकी प्रतियों के किसी अतिरिक्त सबूत के बिना, फाइल कर लेगा यदि वह उन विशेष कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएंगे और जिन पर न्यायाधीश के हस्ताक्षर होंगे, ऐसे सबूत की अपेक्षा न करे।

    नियम-8 डिक्री या आदेश का उस न्यायालय द्वारा निष्पादन जिसे वह भेजा गया है जहां ऐसी प्रतियां इस प्रकार फाइल कर ली गई है वहां यदि वह न्यायालय जिसे वह डिक्री या आदेश भेजा गया है, जिला न्यायालय है तो वह ऐसे न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकेगा या सक्षम अधिकारिता वाले किसी अधीनस्थ न्यायालय को निष्पादन के लिए अन्तरित किया जा सकेगा।

    नियम-9 अन्य न्यायालय द्वारा अन्तरित डिक्री का उस न्यायालय द्वारा निष्पादन जहां वह न्यायालय जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है उस न्यायालय है वहां डिकी ऐसे न्यायालय द्वारा उसी रीति से निष्पादित की जाएगी मानो वह ऐसे न्यायालय द्वारा अपनी मामूली आरम्भिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में पारित की गई थी।

    आदेश 21 के नियम 3 से 9 में डिक्रियों का निष्पादन करने वाले न्यायालय (निष्पादन न्यायालय) के बारे में नियम दिये गये हैं। संहिता की धारा 37 से 40 में डिक्री पारित करने वाले तथा उसका निष्पादन करने वाले न्यायालयों और अन्तरिती-न्यायालय की शक्तियों तथा कार्यवाही के बारे में सिद्धान्त बताये गये हैं। ये नियम 3 से 9 उन सिद्धान्तों की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं।

    भूमि को कुर्क व विक्रय करने की अधिकारिता (नियम-3)- जहां कोई भूमि या स्थावर सम्पत्ति एक सम्पदा या भूप्रति (टिनेन्सी) के रूप में है और वह दो या अधिक न्यायालयों की अधिकारिता की सीमाओं में फैली हुई है, तो उस पूरी सम्पदा या भूपुति को इनमें से कोई भी न्यायालय कुर्क और विक्रय कर सकेगा। सामान्य नियम यह है कि विवादग्रस्त सम्पत्ति जिस न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में स्थित नहीं है, वह न्यायालय कुर्क व विक्रय द्वारा उस विवादग्रस्त सम्पत्ति का निष्पादन नहीं कर सकता। परन्तु यह नियम-३ उक्त सामान्य नियम का एक अपवाद है, जो निष्पादन न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता का विस्तार करता है।

    अन्तरण की रीति (तरीका) [नियम-5]- इस नियम को 1976 के संशोधन द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, क्योंकि डिक्री का अन्तरण जिला न्यायालय के माध्यम से करने से बहुत समय लगता था। इसलिए इस देरी को कम करने के लिए इस नियम में यह उपबंधित किया गया है कि निष्पादन के लिए भेजी या अन्तरित की जाने वाली डिक्री को सीधे उस न्यायालय में भेज दी जावेगी, जहां उसका निष्पादन किया जाएगा, चाहे वह किसी भी राज्य में स्थित क्यों न हो। यदि ऐसी डिक्री प्राप्त करने वाला न्यायालय सक्षम नहीं है, तो वह उस डिक्री को सक्षम न्यायालय को सीधी भेज देगा। इस प्रकार जिला न्यायालय के माध्यम से डिक्री भेजने के पुराने तरीके को बदल दिया गया है।

    डिक्री को भेजना- जब नियम 5 के अनुसार किसी डिक्री को निष्पादन के लिए किसी दूसरे न्यायालय को भेजा जावेगा, तो नियम 6 के अनुसार उसके लिए (क) डिक्री की एक प्रति, (ख) अतुष्ट व तुष्ट भाग के बारे में एक प्रमाणपत्र और (ग) निष्पादन के आदेश की प्रति या उस बारे में प्रमाणपत्र उस न्यायालय को भेज दिये बाकी और डिक्री आदि प्राप्त करने वाला न्यायालय उन्हें बिना किसी सबूत के फाइल कर लेगा। इसके बाद वह न्यायालय यदि जिला न्यायालय है, तो वह उसे सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय को निष्पादन के लिए भेज देगा। परन्तु यदि वह न्यायालय उच्च न्यायालय है, तो वह डिक्री उसकी आरंभिक सिवित अधिकारिता में पारित डिक्री की तरह निभादित की जावेगी।

    डिक्री के संप्रेषण में अनियमितता जब एक डिक्री को जिला न्यायालय के माध्यम से न भेजकर निष्पादन न्यायालय को भेज दिया, तो यह एक अनियमितता मात्र है। पर इस एतराज को प्रथम अवसर पर नहीं उठाये जाने से इसे वेव कर दिया समझा जावेगा।

    अनियमितता का प्रभाव-

    नियम 6 के खण्ड (घ) के अधीन प्रमाण पत्र न भेजने से या खंड (क) के अधीन डिक्री की प्रति न भेजने से अन्तरिती न्यायालय द्वारा की गई कार्यवाही की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि ये आदेश 21, नियम 90 के अधीन कोई तात्विक अनियमितायें नहीं हैं। अतः इस नियम की पालना नहीं होने पर नीलाम-विक्रय अपास्त नहीं किया जा सकता।

    डिक्री के अन्तरण के आदेश का लागू होना-

    यह स्थापित विधि है कि इस नियम 6 के अधीन डिक्री के अन्तरग का आदेश उसी दिन से प्रभावशील (लागू) हो जाता है, जिस दिन आदेश दिया जाता है और उस डिक्री की प्रति निष्पादन न्यायालय को नहीं भेजने पर डिक्रीदार को उस न्यायालय में निष्पादन का आवेदन देना वर्जित (मना) नहीं है। इस बारे में अनेक निर्णय हैं।

    प्रतिस्थापन के लिए आवेदन देरी के कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता- (आदेश 22, नियम 6)- एक वाद में विचारण के दौरान एक प्रतिवादी की मृत्यु हो गई और प्रतिस्थापन के लिए आवश्यक समय के बीच डिक्री पारित हो गई। डिक्री पारित होने के पहले अपीलार्थी-वादी को इस मृत्यु का पता नहीं चला। ऐसी स्थिति में आदेश 22, नियम 6 तथा उड़ीसा उच्च न्यायालय नियम की दृष्टि में देरी के कारण आवेदन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

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