सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 103: आदेश 21 नियम 1 के प्रावधान

Shadab Salim

26 Jan 2024 9:18 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 103: आदेश 21 नियम 1 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। सिविल लॉ में किसी भी प्रकरण को जीत जाने पर ही मुकदमेंबाजी का अंत नहीं हो जाता है अपितु उसके बाद भी निर्णय को लागू करवाने के लिए निष्पादन के लिए अलग से मुकदमेबाजी करनी होती है।

    सीपीसी का आदेश 20 पर एक वाद के निर्णय के साथ उसका अंत हो जाता है किंतु ऐसा अंत होकर भी नहीं होता है और डिक्री का निष्पादन कराने हेतु पृथक मुकदमा लगाना होता है। आदेश 21 में यही निष्पादन के नियम दिए गए हैं। यह अत्यंत विस्तृत आदेश हैं जहां कई नियम हैं जिनके माध्यम से सीपीसी यह निर्धारित करती है कि डिक्री का निष्पादन कैसे करवाया जाएगा। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 21 के पहले नियम पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-1 डिक्री के अधीन धन के संदाय की रीतियां (1) डिक्री के अधीन संदेय सभी धन का निम्नलिखित रीति से संदाय किया जाएगा, अर्थात् :-

    (क) उस न्यायालय में, जिसका कर्तव्य उस डिकी का निष्पादन करना है, जमा करके या उस न्यायालय को मनीआर्डर द्वारा अथवा बैंक के माध्यम से भेजकर; या

    (ख) न्यायालय के बाहर डिक्रीदार को मनीआर्डर द्वारा या किसी बैंक के माध्यम से या किसी अन्य रीति से जिसने संदाय का लिखित साक्ष्य हो; या

    (ग) अन्य रोति से जो वह न्यायालय जिसने डिक्री दी, निदेश दे।

    (2) जहां संदाय उपनियन (1) के खण्ड (क) या खण्ड (ग) के अधीन किया जाता है वहां निर्णीत ऋणी डिक्रीदार को उसकी सूचना न्यायालय के माध्यम से देगा या रसीदी रजिस्ट्री डाक द्वारा सीधे देगा।

    (3) जहां धन का संदाय उपनियन (1) के खण्ड (क) या खण्ड (ख) के अधीन मनीआर्डर द्वारा या बैंक के माध्यम से किया जाता है वहां, यथास्थिति, मनीआर्डर में या बैंक के माध्यम से किए गए संदाय में निम्नलिखित विशिष्ठियों का स्पष्ट रूप से कथन होगा, अर्थात्:-

    (अ) मूल वाद का संख्यांक

    (ब) पक्षकारों के या जहां दो से अधिक वादी या दो से अधिक प्रतिवादी है वहां, यथास्थिति, पहले दो वादियों और दो प्रतिवादियों के नाम:

    (स) प्रेषित धन का समायोजन किस प्रकार किया जाना है, अर्थात् वह संदाय मूल के प्रति, व्याज के प्रति या खर्च के प्रति है,

    (घ) न्यायालय के निष्पादन मामले का संख्यांक जहां ऐसा मामला लंबित है; और

    (ड) संदाय कर्ता का नाम और पता।

    (4) उपनियम (1) के खण्ड (क) या खण्ड (ग) के अधीन संदत्त किसी रकम पर ब्याज़, यदि कोई हो, उपनियम (2) में निर्दिष्ट सूचना की तामील की तारीख से नहीं लगेगा।

    (5) उपनियम (1) के खण्ड (ख) के अधीन संदत्त किसी रकम पर ब्याज, यदि कोई हो, ऐसे संदाय की तारीख से नहीं लगेगा।

    परन्तु जहां डिकीदार मनीआर्डर या बैंक के माध्यम से संदाय स्वीकार करने से इंकार करता है वहां ब्याज़, उस तारीख से, जिसको धन उसे निविदत्त किया गया था, नहीं लगेगा अथवा जहां वह मनीआर्डर या बैंक के माध्यम से किए गए संदाय को स्वीकार करने से बचता है, वहां ब्याज उस तारीख से, जिसको धन उसे, यथास्थिति, डाक प्राधिकारियों के या बैंक के कारबार के मामूली अनुक्रम में दिया गया होता, नहीं लगेगा।

    आदेश 21, नियम में किसी डिक्री के अधीन संदाय करने के तरीके बताये गये हैं। 1976 में इस प्रतिस्थापित किया गया और इस नियम में डिक्रीदार को डाक मनी आर्डर से या बैंक के माध्यम से या अन्य तरीके से भुगतान करने की व्यवस्था जोड़ दी गई है, ताकि ऐसे भुगतान का लिखित साक्ष्य प्राप्त हो सके। दूसरी व्यवस्था ब्याज के बन्द होने के बारे में की गई है।

    संदाय की रीतियाँ (तरीके) - उप नियम (1) में खण्ड (क) (ख) और (ग) में डिक्री का धन देने के तरीके बताये गये हैं, जो तीन प्रकार के हैं-

    (क) न्यायालय के माध्यम से इसमें निष्पादन न्यायालय में-

    (1) रकम जमा कराई जा सकती है, या मनीऑर्डर से या बैंक के माध्यम से भेजी जा सकती है।

    (ख) न्यायालय के बाहर - इसमें निर्णीत-ऋणी डिक्रीदार को तीन तरीकों से डिक्री की राशि का भुगतान कर सकता है- डिक्रीदार को मनीऑर्डर भेजकर या किसी बैंक के माध्यम से (ड्राफ्ट, चैक द्वारा) या अन्य तरीके से जिसमें रकम देने का लिखित साक्ष्य हो।

    (ग) अन्य रीति से - जो डिक्री देने वाला न्यायालय निर्देश दे।

    डिक्रीदार को सूचना (नोटिस) - उपनियम (2) के अनुसार, जब उपरोक्त (क) या (ग) के अधीन भुगतान किया जाता है, तो निर्णीत ऋणी डिक्रीदार को सूचना देगा, जो (1) न्यायालय के माध्यम से या रजिस्ट्री डाक से पावती सहित (ए. डी) देगा। इस प्रकार भुगतान को सूचना देना आवश्यक है।

    विशिष्टियाँ देन-

    जब उपरोक्त (क) या (ख) के अनुसार डिक्री को राशि का भुगतान मनीऑर्डर द्वारा या बैंक के माध्यम से किया जाता है तो वहाँ उपनियम (3) में बताई गई विशिष्टियाँ (क) से (ङ) तक दी जायेंगी, ताकि भुगतान की पहचान की जा सके।

    ब्याज लगना बन्द होना - उपनियम (4) व (5)-

    (1) जब भुगतान न्यायालय के माध्यम से खण्ड (क) या (ग) के अधीन किया जावे और उपनियम (2) को सूचना की तामील डिक्रीदार पर हो जावे, तो उस तामील की दिनांक के बाद ब्याज लगना बन्द हो जायेगा।

    (2) जब खण्ड (ख) के अधीन डिक्रीदार को रकम प्राप्त हो जाये, उस दिन से ब्याज नहीं लगेगा। परन्तु डिक्रीदार ने मनीऑर्डर या बैंक के माध्यम से उस रकम को स्वीकार नहीं किया या उसे लेने से टालता रहता है, तो डाक प्राधिकारी या बैंक के कारबार के मामूली (साधारण) अनुक्रम में दिये जाने को तारीख से ब्याज नहीं लगेगा।

    न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त

    निष्पादन याचिका समय से पूर्व संस्थित की गई। इस आधार पर इसको निरस्त नहीं किया जा सकता है। ऐसी याचिका पर समय पूर्व वाद दायर करने की प्रक्रिया लागू होगी।

    डिक्री के धन का न्यायालय में संदाय आदेश 21, नियम 1 डिक्री के अधीन संदेय धन न्यायालय में ही जमा कराने का निदेश होने पर न्यायालय में ही जमा किया जाएगा और सीधे सम्बद्ध पक्षकार को नहीं दिया जा सकता।

    एक मामले को आदेश 21 नियम 1(ग) लागू होता है, क्योंकि समझौता डिक्री में विनिर्दिष्टः यह उपबन्धित था कि रकम न्यायालय में जमा की जाएगी। यदि डिक्री में यह उपबन्धित होता कि रकम चाहे तो न्यायालय में जमा कर दी जाए या चाहे अपीलार्थों को दे दी जाए तो निश्चय हो प्रत्यर्थी को रकम को अदायगी 1-1-1960 तक करनी पड़ती, क्योंकि 1-1-1960 को यदि न्यायालय बन्द था तो रकम प्रत्यर्थी को उस तारीख को दी ही जा सकती थी।

    ऐसी दशा में रकम 2-1-1960 को जमा की जाती तो निश्चित कालावधि के बाद जमा की गई रकम मानी जाती और वाद डिक्री हो जाता। किन्तु प्रस्तुत मामले में रकम न्यायालय में ही जमा को जानी थी, अत: जब 1-1-1960 को न्यायालय बन्द था तो रकम 2-1-1960 को जमा कराने के अलावा प्रत्यर्थी के पास और कोई विकल्प नहीं था।

    समस्त धन शब्दावली की व्यापकता - नियम 1(1) में प्रस्तुत समस्त धन (All money) का अर्थ उस समस्त (सारे) धन की राशि से नहीं है, जो डिक्री में दी गई है। अत: डिक्रांत राशि के एक भाग का भुगतान उस भुगतान की सीमा तक वैध है।

    नियम जब लागू नहीं होता- जब कोई डिक्री उसकी शर्तों के कारण निष्पादन योग्य नहीं हों, तो नियम 1 लागू नहीं होता। जहाँ समझौता डिक्री में यह शर्तें दी गई है कि राशि का भुगतान नहीं किया, तो वाद के द्वारा वसूली को जा सकेगी तो ऐसी स्थिति में यह नियम लागू नहीं होगा।

    धनीय डिक्री में संदाय का उपयोग (समायोजन) करना - संविदा अधिनियम की धारा 60 के अनुसार धनीय-डिक्री के समायोजन के लिए साधारण नियम यह है कि- (1) सबसे पहले प्रात्र भुगतान का समायोजन ब्याज की राशि के पेटे किया जाय और (2) उसके बाद मूलधन राशि के पेटे। परन्तु आदेश 21 के नियम 1 के संशोधन के बाद यह नियम प्रभावशाली नहीं रहा है और संविदा अधिनियम की धारा 60 को इस साधारण नियम को लागू करने के लिए जज नहीं किया जा सका।

    (क) यदि धन की डिक्री में डिक्री सुशुदा राशि से कम राशि जमा की जाती है तो प्रथम ब्याज व खचों में जमा की जायेगी, उसके पश्चात् मूल राति में जमा होगी। इस मानते में मुख्य प्रश्न यह था ब्याज कब से लागू (चालू) रहना बन्द हो जाएगा। ब्याज सहित डिक्रीत राशि की पूर्ति के लिए भुगतान कर देने पर यह अभिनिधरित कि-नये उपबंधों को दृष्टि में, डिक्रीदार को अब यह छूट नहीं है कि वह उसके द्वारा प्राप्त राशि का उस डिक्रीत राशि के उस भाग में साथ समायोजन (विनियोजन) करे, जिसमें ब्याज़ नहीं लगता है। ऐसा भुगतान पहले उस डिक्रीत राशि के लिए काम में नहीं लिया जाएगा, जो कोई ब्याज नहीं मांगती। इस प्रकार पहले ब्याज सहित डिक्रीत राशि का भुगतान से समायोजन करना होगा।

    बैंक से जमा कराना - न्यायालय में बैंक के द्वारा चालान से डिक्रीत राशि को जमा कराना (निक्षेप) आदेश 21, नियम 1(1) (क) के अर्थ में न्यायालय को बैंक के माध्यम से राशि भेजने में नहीं आता है और आदेश 21, नियम 1(1) के अधीन विवरण देना आवश्यक नहीं है।

    डिक्रीत-राशि का भाग जमा कराने पर न्यायालय के आदेश की शर्तों के अनुसार डिक्रीत राशि का एक भाग जमा करा दिया गया। यह निक्षेप (जमा) नियम 1 के अधीन जमा नहीं है। अतः जमा की गई राशि पर ब्याज बन्द नहीं हो पाएगा डिक्रीत राशि के भुगतान का दायित्व-राशि की वसूली के दावे में डिक्री पारित की गई। पक्षकारों ने अपील में अनुपस्थित रहने का चयन किया। अत: उन्होंने डिक्री की राशि वसूल कर ली, यह उपधारणा बनाई जा सकती है।

    डिक्री राशि के भुगतान का तरीका-न तो विचारण-न्यायालय ने भुगतान के तरीके के बारे में कोई निर्देश दिया और न ऐसा कोई करार ही पक्षकारों के बीच में था। ऋणी ने भुगतान करते समय उसके समायोजन का तरीका बताया। ऋणदाता उसे स्वीकार करने को बाध्य नहीं है और यह सामान्य नियम के अनुसार पहले राशि को ब्याज व खर्च के पेटे और बाद में मूलधन पेटे समायोजित करेगा। ऐसी स्थिति में ऋणी संविदा अधिनियम की धारा 59 से 61 तक का सहारा नहीं ले सकता।

    बेदखली/निष्कासन की डिक्री का निष्पादन- जब निष्पादन के दौरान डिक्रीदार या निर्णीत-ऋणी को मृत्यु हो जाती है, तो निष्पादन-याचिका का उपशमन नहीं होता। अत: किराया नियन्त्रक विधिक-प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए उचित समय तय कर सकता है।

    डिक्रीत-राशि पर ब्याज़- प्रतिकर की राशि न्यायालय में जमा करा दी गई, पर दावेदारों को निर्णीत ऋणी या न्यायालय ने कोई सूचना नहीं दी। अभिनिर्धारित कि आदेश 21, नियम 1 के प्रयोग द्वारा जमा के दिनांक से डिक्रीदार द्वारा सूचना पाने के दिनांक तक का ब्याज वैध है।

    डिक्री का निष्पादन - किरायेदार का कथन है कि- स्वामी के अटॉर्नी को कब्जा दे दिया गया था, जिसने उसे कब्जा एक लाइसेन्सदार के रूप में जारी रखने की इजाजत दे दी थी। ऐसे करार से डिक्री अतिलधित नहीं हो जाती है।

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