सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 100: आदेश 20 नियम 14 के प्रावधान

Shadab Salim

24 Jan 2024 2:13 PM IST

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 100: आदेश 20 नियम 14 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 14 शुफ़ा के दावे में डिक्री कैसी हो इस संबंध में उल्लेख कर रहा है। शुफ़ा का अधिकार एक मुस्लिम व्यक्ति को अपने रक्तसंबंधि व्यक्ति की संपत्ति पर रहता है। यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी किसी पैतृक संपत्ति में प्राप्त हिस्से को विक्रय करना चाहता है तो उसे खरीदने का पहला अधिकार उसके उस हिस्से का है जिसकी संपत्ति उस विक्रय की जाने वाली संपत्ति के एकदम पास स्थित है। सीपीसी के आदेश 20 नियम 14 में ऐसे ही शुफ़ा के वाद में डिक्री कैसी हो इसके संबंध में उल्लेख है जिस पर सारगर्भित चर्चा इस आलेख के अंतर्गत की जा रही है।

    नियम-14 शुफा के दावे में डिक्री-(1) जहां न्यायालय सम्पत्ति के किसी विशिष्ट विषय के बारे में शुफा के दावे की डिक्री देता है और क्रय-धन ऐसे न्यायालय में जमा नहीं किया गया है वहां डिकी में-

    (क) ऐसा दिन विनिर्दिष्ट होगा जिस दिन या जिसके पूर्व क्रय-धन ऐसे जमा किया जाएगा, तथा

    (ख) यह निदेश देगा कि वादी के विरुद्ध डिक्रीत के सहित (यदि कोई हो) ऐसे क्या धन को न्यायालय में उस दिन या उस दिन के पूर्व, जो खण्ड (क) में निर्दिष्ट किया गया है, जमा कर दिये जाने पर प्रतिवादी सम्पत्ति का कब्जा वादी को परिदत्त कर देगा जिसका हक ऐसे जमा करने की तारीख से उन पर प्रोद्भूत हुआ समझा जायेगा, किन्तु यदि जब-धन और खर्च (यदि कोई हो), ऐसे जमा नहीं किये जाएंगे तो वाद खर्ची के सहित खारिज कर दिया जाएगा।

    (2) जहां न्यायालय ने शुफा के परस्पर विरोधी दावों का न्यायनिर्णयन कर दिया है वहां डिक्री में यह निर्दिष्ट होगा कि-

    (क) यदि और जहां तक डिक्रीत दावे समान कोटि के हैं तो और वहां तक उपनियम (1) के उपबंधों का अनुपालन करने वाले हर एक शुफाधिकारी का दावा उस सम्पत्ति के आनुपातिक अंश के बारे में प्रभावी होगा, जिस सम्पत्ति के अन्तर्गत ऐसा कोई आनुपातिक अंश भी होगा जिसके बारे में किसी ऐसे शुफाधारी का, जो उक्त उपबंधों का अनुपालन करने में असफल रहा है, दावा ऐसे व्यतिक्रम न होने पर प्रभावी होता; तथा

    (ख) यदि और जहां तक डिक्रीत दावे विभिन्न कोटि के हैं तो और वहां तक अवर शुफाधिकारी का दावा तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक वरिष्ठ शुफाधिकारी उक्त उपबंधों का अनुपालन करने में असफल न हो गया हो।

    आदेश 20 का नियम 14 अग्रक्रयाधिकार (शुफ़ा) की डिक्री का स्वरूप बताता है।

    अग्रक्रयाधिकार का स्वरूप अग्रक्रय या शुफ़ा का अधिकार, वह अधिकार है, जो किसी स्थावर सम्पत्ति का स्वामी (मालिक) कोई अन्य स्थावर सम्पत्ति खरीद कर अर्जित करना चाहता है, जो किसी अन्य व्यक्ति को बेची गई है। यह प्रतिस्थापन का एक अधिकार है, जिसमें क्रेता के स्थान पर वादी को क्रेता बनाया जा सकता है। अग्रक्रय के लिए वाद (1) मुस्लिम विधि, (2) स्थानीय रूढ़ि, (3) संविदा या (4) किसी विशेष अधिनियम पर आधारित किया जा सकता है। विभित्र राज्यों में इस विषय पर अधिनियम बनाए गए हैं-जैसे-पंजाब दिल्परत एक्ट, 1913, आगरा प्रिरम्परान एक्ट, राजस्थान अग्रक्रय अधिनियम आदि।

    यह अग्रक्रयाधिकार मुस्लिम विधि पर आधारित है।

    अग्रक्रय का दावा करने के हकदार या अग्रक्रय कर्ताओं की मुस्लिम - विधि में तीन श्रेणियाँ बताई गई हैं-

    (1) सम्पत्ति का सह अंशधारी (शफी-ए-शरीकCo-Sharer)

    (2) शकी-ए-खलील-अनुलप्रकों (भवन से जुड़े भवन या स्थान) का सहभागी और

    (3) शकी-ए-जार- संलग्न स्थावर सम्पति का स्वामी या पड़ौसी। भूमि, बाल आदि स्थावर (अचल) सम्पत्ति के विक्रय पर ऐसे व्यक्ति अग्रक्रयाधिकार की मांग कर सकते हैं। तीसरी श्रेणी के व्यक्ति अब अग्रक्रय के अधिकार की मांग नहीं कर सकते। पड़ौस के आधार पर अग्रक्रयाधिकार को उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है।

    अग्रक्रय की डिक्री का स्वरूप (उपनियम-1) यदि क्रय-धन (बेचने का मूल्य) न्यायालय में पहले बाद के विचारण के दोहरान वादी ने जमा नहीं कराया हो, तो न्यायालय उस विशिष्ट विक्रय के बारे में शुफ़ा के दावे की डिक्री में दो बातों का स्पष्ट उल्लेख करेगा-

    (क) एक दिनांक निश्चित किया जाएगा, जिस दिन या जिसके पहले डिक्रीदार क्रय-धन न्यायालय में जमा करायेगा, और

    (ख) उस डिक्री में यह स्पष्ट निर्देश दिया जाएगा कि उपरोक्त निश्चित दिनांक (तारीख) को या उससे पहले क्रम -धन डिक्रीत खर्च सहित (यदि कोई हो) न्यायालय में जमा करा देने पर -

    (1) प्रतिवादी उस सम्पत्ति का कब्जा वादी (डिक्रीदार/अग्रक्रयकर्ता) को दे देगा और जमा कराने के उस दिनांक से उस सम्पत्ति का हक (स्वामित्व) प्रतिवादी को प्राप्त हो जाएगा; किन्तु यदि क्रयधन और डिक्रीत खर्चे (यदि कोई हो) उस नियत दिनांक को जमा नहीं कराने पर बाद, मय खर्वे के, खारिज कर दिया जाएगा।

    विराधी दात्रों के निर्णय पर शुफा की डिक्री का स्वरूप (उपनियम-2)

    जब समान कोटि के अनेक विरोधी दायों का निपटारा कर हर एक दावेदार (शुकाधिकारी) का आनुपातिक अंश निर्धारित किया जाता है, तो उसमें शुफ़ाधिकारी के अंश का भी ध्यान रखा जावेगा, जो न्यायालय के समक्ष अपने हिस्से की क्रयराशि उपरोक्त नियम (1) के अनुसार जमा नहीं करा सका। इस प्रकार उक्त सम्पत्ति के आनुपातिक अंश के बारे में ही डिक्रीत दावा प्रभावशील होगा।

    यदि डिक्रीत दावे विभिन्न कोटि (प्रकार) के हो, तो यदि वरिष्ठ शुभाधिकारी (प्रधान व्यक्ति) उक्त उपनियम (1) के अनुसार क्रयधन जमा कराने में असफल रह जाता है, तभी उससे अवर (अगले / निचले) शुफ़ाधिकारी का दावा प्रभावी होगा, अन्यथा नहीं। ये स्पष्ट प्रावधान इस नियम में दिये गये हैं।

    अग्रक्रम के वाद में पक्षकार अग्रक्रय का अधिकार मूल क्रेता के स्थान पर प्रतिस्थापन का अधिकार है। अग्रक्रय के अधिकार की मांग करने वाला वादी किसी सम्पति के खरीददार से वह सम्पत्ति प्राप्त कर सकता है, जो उसने खरीदी है, यदि अग्रक्रय संबंधी उपरोक्त शर्तें पूरी हो जाती हैं।

    एक सहभागी (कोशेयरर) क दूसरे सहभागी ख का अंश (भाग / हिस्सा) का अग्रक्रय कर सकता है, जब छ अपना अंश ग (बाहरी व्यक्ति) को बेचता है। परन्तु यदि वाद संस्थित करने के दिन से पहले ख द्वारा ग को किया गया विक्रय पूरा हो जाता है, तो ख का उस सम्पत्ति में अधिकार नहीं रह जाता, वह अग्रक्रय के वाद में एक आवश्यक पक्षकार नहीं है।

    डिक्री का स्वरूप अन्तिम डिक्री ऐसे वाद में जब अविभाजित अंश (बिना बंटवारा किए हिस्सा) के लिये दावा किया गया, तो डिक्री अन्तिम होगी, प्रारम्भिक नहीं। इसी प्रकार कई दावेदारों में आनुपातिक वितरण की डिक्री भी अन्तिम डिक्री होगी। ऐसे मामलों में अधिकारों को निष्पादन में लागू करना होगा। ऐसी डिक्री पारस्परिक बाध्यता आरोपित करती है।

    वादी को स्वत्व (हक) कब उत्पन्न होगा? जब वादी क्रय राशि का भुगतान कर देता है, तो उसका हक (टाइटल) उत्पन्न होता है। इसके लिए सम्पत्ति का अन्तरण करने हेतु रजिस्टर्ड विलेख (दस्तावेज) होना आवश्यक नहीं है।

    अग्रक्रय की राशि का संदाय न्यायालय के बाहर अग्रक्रय की राशि का भुगतान या निविदा (टेण्डर) करना डिक्री का पर्याप्त पालन माना गया है। निष्पादन न्यायालय को यह देखना होगा कि राशि जमा करा दी गई है। अपील में स्थगन जब अपील की जाती है, और उसमें स्थगनादेश दे दिया जाता है, तो फिर अपील खारिज होने पर यह माना जाएगा कि भुगतान का समय बढ़ा दिया गया है।

    यदि स्थगन आदेश नहीं दिया गया हो, तो निश्चित समय में राशि जमा नहीं कराने पर बाद स्वतः ही खारिज समझा जावेगा और यदि निर्णीत-ऋणी उस डिक्री को इस कारण से अनिष्पादनीय कह कर चुनौती देता है, तो उसके इस कथन को स्वीकार करना होगा।

    समय के भीतर राशि जमा कराना आवश्यक डिक्री में दिये गये समय के भीतर अग्रक्रय की डिक्री की राशि न्यायालय में जमा करा दी जाती है, तो वादी को कब्जा पाने का अधिकार होगा, परन्तु राशि समय पर जमा नहीं कराने पर वह इस अधिकार को खो देगा। यह जमा कराने का निदेश यदि डिक्री में अंकित न हो, तो भी इसे इस नियम के आज्ञापक उपबंध का परिणाम समझा जावेगा।

    जब प्रतिवादी अन्य प्रस्थिति में या भोगबंधक के कारण यदि कब्जे में है, तो भी हक बादी को भुगतान के साथ प्राप्त हो जाता है।

    अग्रक्रय वाद में विचारण न्यायालय द्वारा डिक्री दी गई तथा डिक्री की रकम जमा करने के लिए समय दिए जाने पर अग्रक्रेता द्वारा उनका पालन नहीं किया गया। विहित समय के भीतर ऐसे अननुपालन का परिणाम वाद की खारिजी होगा और अपील न्यायालय भुगतान करने के लिए समय को नहीं बढ़ा सकता। शुफ़ा अर्थात् अग्रक्रय (Pre-emption) के वाद में डिक्री में उल्लिखित समय के भीतर सम्पूर्ण अग्रक्रयधन जमा नहीं किया जाता है तो ऐसा वाद विधिमान्य रूप से खारिज किया जा सकता है।

    शुफा (अग्रक्रय) के वाद में डिक्री डिक्री में नियत समय के भीतर क्रय-धन जमा करने में विफल रहने पर समय बढ़ाये जाने की अधिकारिता डिक्री पारित करने के पश्चात् न्यायालय पद कार्यनिवृत्त हो जाता है और तत्पश्चात् उसे समय बढ़ाने की अधिकारिता नहीं रह जाती।

    जहाँ आदेश 20 नियम 14 के अधीन डिक्री की अपील की जाती है और उसके निष्पादन का स्थगन आदेश दे दिया जाता है, तो अपील न्यायालय की डिक्री अंतिम डिक्री होगी और विक्रय मूल्य को जमा कराने की डिक्री में दी गई शर्त भी प्रभावित होगी।

    अग्रक्रय (शुफा) की डिक्री रकम जमा कराने में देरी- डिक्रीदार को निदेश दिया गया था कि वह पिछला प्रतिफल निश्चित समय के भीतर न्यायालय में जमा करा दे। जिला न्यायाधीश का आदेश प्राप्त करके उक्त रकम एक दिन की देरी से जमा कराई गई, क्योंकि विचारण-न्यायालय के न्यायाधीश का स्थानान्तरण हो गया था और उसका कार्यभार किसी ने ग्रहण नहीं किया था। जब पक्षकार का कोई दोष नहीं, तो उसे हानि नहीं हो सकती। अतः यह देरी नहीं है और उक्त राशि को समय के भीतर जमा कराई गई समझा जाय।

    समय बढ़ाने की शक्ति एक वाद में न्यायालय द्वारा नियत समय के भीतर खर्चे सहित क्रय की रकम जमा की गई, परन्तु मात्र पच्चीस पैसे की नगण्य रकम समय बीत जाने पर जमा की गई। ऐसे मामले में निष्पादन न्यायालय वैवेकिक अधिकार का प्रयोग कर विलम्ब को माफ कर सकता है। न्यायालय का न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यकतानुसार समय बढ़ाने की धारा 143 के अधीन पूरी शक्ति प्राप्त है।

    डिक्री के विक्रय या अन्तरण का प्रभाव निष्पादन का अधिकार चूंकि अग्रक्रयाधिकार के वाद में डिक्रीदार ने प्रश्नगत भूमि में अपना हक पक्का करने के बाद ही भूमि बेची थी, अतः उससे खरीदने वाले क्रेता मूल अग्रक्रयाधिकारी डिक्रीदार के अधीन दावा करने वाले व्यक्ति होंगे और यदि अग्रक्रयाधिकारी डिक्रीदार के नाते डिक्री निष्पादन कराने के लिए हकदार हो सकता था, तो उससे खरीदने वाला क्रेता भी धारा 145 के अधीन निष्पादन कराने के लिए हकदार होगा।

    Next Story