बाल विवाह निषेध और महत्वपूर्ण कानून

Idris Mohammad

26 July 2021 2:08 PM GMT

  • बाल विवाह निषेध और  महत्वपूर्ण कानून

    भारत में बाल विवाह सदियों से प्रचलित है और यह किसी धर्म विशेष से नहीं होकर सभी धर्मों, समुदायों और वर्गों में लम्बे समय से चल रही एक प्रथा है। वर्तमान समय में यह प्रथा ग्रामीण इलाकों में ज्यादा देखने को मिलती है। बाल विवाह के पीछे कारणों में मुख्यतः गरीबी, अशिक्षा, पितृसत्ता जैसे कारक हैं।

    बाल विवाह से तात्पर्य है उस विवाह से जब बालक अथवा बालिका अथवा दोनों विवाह के लिए निर्धारित उम्र से काम के हों। वर्तमान समय में बालक के लिए 21 साल एवं बालिका के लिए 18 साल निर्धारित है। यदि कोई भी व्यक्ति इस निर्धारित उम्र से काम उम्र में शादी करता है तो उसे बाल विवाह करार दिया जायेगा। बाल विवाह मुख्यतया परिवार द्वारा बनाई गयी व्यवस्था के अधीन होते हैं, जहां सहमति का कोई स्थान नहीं होता है। किन्तु सहमति से किया गया बाल विवाह भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। वर्तमान समय में बाल विवाह को किसी भी एक व्यक्ति द्वारा शून्य या शून्यकरण घोषित करवाया जा सकता है।

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

    हर बिलास शारदा ने 1929 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली (Central Legislative Assembly) में बाल विवाह के रोकथाम हेतु बिल प्रस्तावित किया था। शारदा ने इस बिल का प्राथमिक उद्देश्य बाल-विधवा को रोकना बताया। चूँकि विधवा विवाह समाज में अनुमत नहीं था। आगे जाकर यह बिल 'बाल विवाह रोकथाम अधिनियम' कहलाया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत्त, विवाह के लिए न्यूनतम आयु तय की गयी। लड़की के न्यूनतम आयु 14 साल एवं लड़को के लिए 18 साल की गयी। 1978 में, विवाह के लिए न्यूनतम को बदला गया एवं लड़के के लिए 21 साल एवं लड़की के लिए 18 साल कर दी गयी।

    यह बिल पारित करने के लिए ब्रिटिश अधिकारी कभी भी सहमत नहीं थे लेकिन सदन में भारतीयों की बहुसंख्यता के कारण यह पारित हो गया। समाज के रूढ़िवादियों को यह कानून कभी पसंद नहीं आया और इसलिए ब्रिटिश हुकूमत ने पूरी तरीके से लागू करने पर ज्यादा जोर नहीं दिया।

    बाल विवाह रोकथाम अधिनियम 1929:

    इस कानून को शारदा अधिनियम (शारदा एक्ट) भी कहा जाता है। इस अधिनियम की विशेषता यह थी कि इसमें केवल विवाह के अनुष्ठापन (solemnization of marriage) को रोकने के प्रावधान थे, बाल विवाह की रोकथाम या निषेध के लिए नहीं। और यह कारण था कि यह अधिनियम बहुत प्रभावशाली नहीं था।

    इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि मूल रूप से इस अधिनियम के तहत अपराध संज्ञेय नहीं थे।

    1962 में, गुजरात सरकार ने युवा लड़कियों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामलों की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की। जब इस समिति ने कम उम्र की विवाहित लड़कियों और उक्त विवाह के कारण आत्महत्या के बीच एक सीधा संबंध पाया, तो राज्य सरकार ने अधिनियम के तहत अपराधों को संज्ञेय बनाने के लिए अपने (राज्य के) बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम में संशोधन किया। 1978 में, महिलाओं की स्थिति पर राष्ट्रीय आयोग (National Commission on the Status of Women) ने गुजरात की उपरोक्त रिपोर्ट का हवाला दिया और केंद्र सरकार के अधिनियम में संशोधन की सिफारिश की।

    संसद ने 1929 अधिनियम में एक संशोधन किया और अधिनियम के तहत अपराधों को संज्ञेय बना दिया। 1978 के संशोधन के अंतर्गत्त अधिनियम के तहत किसी भी अपराध को जांच और अन्य मामलों के लिए संज्ञेय घोषित किया, लेकिन बिना वारंट के किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए नहीं। इस प्रकार न्यायालय बाल विवाह को होने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा देने तक सीमित था।

    दूसरा कारण था कि इस अधिनियम ने बाल विवाह के अनुष्ठापन को तो प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन विवाहों को शून्य या शून्यकरण (void or voidable) घोषित नहीं किया।

    दिल्ली हाई कोर्ट ने 2005 में दिए एक निर्णय मनीष सिंह बनाम दिल्ली राज्य, AIR 2006 DELHI 37 में कहा कि:

    "विधायिका इस तथ्य से अवगत थी कि यदि आयु प्रतिबंध के उल्लंघन में किए गए ऐसे विवाहों को शून्य या शून्य करने योग्य बना दिया जाता है, तो इससे उन महिलाओं को गंभीर परिणाम और शोषण का सामना करना पड़ेगा जो अपनी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण कमजोर हैं ... कोई भी कानून जो इस तरह के कम उम्र के विवाहों को शून्य या शून्यकरण योग्य बनाता है, उसका नतीजा महिलाओं और उनकी संतानों को ही भुगतना पड़ेगा।"

    सीमा - कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के तहत किसी अपराध का संज्ञान उस तारीख से एक वर्ष की समाप्ति के बाद नहीं ले सकता जिस तारीख को अपराध करने का आरोप लगाया गया है।

    जिन बच्चों की शादी बहुत काम उम्र में करवा दी जाती थी, उनके पास अपने शादी को शून्य करवाने के लिए केवल वर्ष का समय था। और यह समय उन बच्चों के लिए काफी नहीं होता था जो 5-6 वर्ष जैसी आयु में बाल विवाह के शिकार हो जाते थे।

    सजा का प्रावधान:

    उक्त अधिनियम के अन्तर्गत्त सजा का प्रावधान भी बहुत सामान्य था।

    अधिनियम के तहत, यदि एक पुरुष, जो अठारह वर्ष से अधिक एवं इक्कीस वर्ष से काम है, एक बाल विवाह करता है तो इसके लिए पंद्रह दिन का सामान्य कारावास अथवा एक हजार रुपये अथवा दोनों तक के जुर्माने का प्रावधान है।

    यदि पुरुष की आयु इक्कीस वर्ष से अधिक है तो सजा तीन महीने तक की साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों थी।

    किसी भी बाल विवाह को करने, संचालित करने, निर्देशित करने या उकसाने वाले या बाल विवाह में शामिल माता-पिता या अभिभावकों के लिए तीन महीने तक की सजा का प्रावधान था।

    इस तरह के प्रावधान कानून की प्रभावशीलता को और ज्यादा कमजोर करता है।

    बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006:

    वर्ष 2006 में, संसद ने 1929 के अधिनियम और उसके बाद के संशोधनों को निरस्त करते हुए "बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006" पारित किया।

    वर्तमान कानून- बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 तीन उद्देश्य को पूरा करता है: बाल विवाह की रोकथाम, बाल विवाह में शामिल बच्चों की सुरक्षा और अपराधियों पर मुकदमा चलाना।

    रोकथाम:

    इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं में से एक यह है कि इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध संज्ञेय और गैर -जमानती है।

    धारा 13 के तहत, बालक जिसका बाल विवाह हो रहा हो, कोई भी व्यक्ति जिसको बाल विवाह होने को जानकारी हो, बाल विवाह प्रतिषेध अधिकारी अथवा गैर सरकारी संगठन, न्यायालय में आवेदन कर बाल विवाह रुकवाने की व्यादेश (Injunction) प्राप्त कर सकते है।

    यदि ऐसी व्यादेश के बावजूद भी बाल विवाह किया जाता है तो इसके लिए दो वर्ष तक की सजा अथवा एक लाख रूपये के जुर्माने का प्रावधान है।

    इस धारा के तहत, जिला मजिस्ट्रेट को कुछ विशेष दिनों (जैसे अक्षय तृतीया) पर होने विवाह/सामूहिक विवाह रोकने के लिए बाल विवाह प्रतिषेध अधिकारी के अधिकार प्राप्त होते है।

    बाल विवाह का शून्य एवं शून्यकरण (Void and Voidable):

    इस अधिनियम की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि यह बाल विवाह को शुरू से ही रद्द नहीं करता है, बल्कि इसके बजाय न्यायालय में एक याचिका की आवश्यकता होती है।

    इस अधिनियम के तहत, कुछ परिस्थितयों में बाल विवाह पूरी तरीक से शुन्य समझे जाते है एवं कुछ परिस्थितयों में बालक एवं बालिका दोनों में से एक के विकल्प पर। यानी बालक-बालिका दोनों अगर चाहे तो व्यस्क होने पर बाल विवाह को जारी रख कर वैधता प्राप्त कर सकते है।

    धारा 3 के तहत प्रत्येक बाल विवाह, दोनों में से एक पक्षकार (लड़का और लड़की) के विकल्प पर शून्यकरण होगी। यानी दोनों में से कोई भी एक बाल विवाह रद्द करवाने के लिए जिला न्यायालय में अर्जी दाखिल कर सकता है।

    लेकिन बाल विवाह शुन्य घोषित करवाने की अर्जी को वयस्कता प्राप्त करने के दो साल के भीतर या उस से पहले दाखिल किया जा सकता है।

    धारा 12 के तहत बाल विवाह को 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले ही शून्य घोषित किया जा सकता है, जब बच्चे का अपहरण, अपहरण, तस्करी या बलपूर्वक, छल, जबरदस्ती या गलत बयानी के तहत शादी करने के लिए मजबूर किया गया हो।

    धारा 14 के तहत यदि कोई बाल विवाह न्यायालय द्वारा पारित आदेश के खिलाफ आयोजित किया गया हो तो ऐसा बाल विवाह प्रारम्भ से ही शुन्य होगा।

    बाल विवाह निषेध अधिकारी:

    धारा 16 के अनुसार, हर राज्य में पूर्णकालिक "बाल विवाह निषेध अधिकारी" नियुक्त किए जाते हैं और उनके द्वारा बाल विवाह के मामले की निगरानी राखी जाती है। इन अधिकारियों को बाल विवाह को रोकने, उल्लंघनों की प्रलेखित रिपोर्ट बनाने, अपराधियों पर आरोप लगाने, जिसमें बच्चे के माता-पिता भी शामिल हो सकते हैं और यहां तक कि बच्चों को खतरनाक और संभावित खतरनाक स्थितियों से निकालने का अधिकार दिया गया है।

    पर्सनल लॉ (व्यक्तिगत कानून) एवं बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम में विसंगतियां:

    चूंकि कुछ समुदायों के व्यक्तिगत कानून अभी भी बाल विवाह की अनुमति देते हैं, और पीसीएमए (अधिनियम 2006) उन्हें रोकने की कोशिश करता है, ऐसे में कुछ महत्वपूर्ण कानूनी जटिलताओं उत्पन्न होती है।

    पंजाब एंड हरियाणा उच्च न्यायालय मो. शमीम बनाम हरियाणा राज्य के मामले में कहा कि इस तरह (बाल विवाह) की प्रथाएं अवैध नहीं हैं और पीसीएमए (अधिनियम 2006) के दायरे में नहीं आती हैं।

    गुजरात उच्च न्यायालय ने यूसुफ इब्राहिम मोहम्मद लोखत बनाम गुजरात राज्य के मामले में कहा है कि एक लड़की, पंद्रह साल की उम्र या माहवारी शुरू होने (दोनों में जो भी पहले हो), अपने माता-पिता की सहमति के बिना शादी करने के लिए सक्षम है।

    लज्जा बनाम राज्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि पीसीएमए (2019 अधिनियम) एवं व्यक्तिगत कानूनों के विरोधाभास के मामलों में पीसीएमए (2019 अधिनियम) प्रभावी होगा। सीमा बेगम बनाम राज्य में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा भी यही दोहराया गया था।

    भारतीय दंड संहिता, पोक्सो एवं PCMA (2006 अधिनियम):

    पॉक्सो की धारा 5(ढ़) किसी भी (सम्बंधित व्यक्ति) द्वारा बच्चे पर प्रवेशन लैंगिक हमले को दंडित करता है। आईपीसी की धारा 375 के अनुसार किसी भी अठारह साल से काम उम्र की महिला के साथ संभोग कानूनी रूप से दंडनीय है।

    धारा 375 के अपवाद के रूप में पुरुषों को 15 वर्ष से अधिक लेकिन 18 वर्ष से कम उम्र की अपनी वधु के साथ विवाह में सम्बन्ध की अनुमति दी गई है।

    2017 में इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में यह निर्धारित किया गया था कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी, जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम है, के साथ यौन संबंध भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत बलात्कार के बराबर है।

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