National Security Act में निरोध आदेश रद्द करना

Shadab Salim

27 Jun 2025 10:08 AM IST

  • National Security Act में निरोध आदेश रद्द करना

    इस एक्ट में दिया गया कोई भी निरोध का आदेश रद्द भी किया जा सकता है। इस एक्ट की धारा 14 में निरोध के आदेश को रद्द करने के संबंध में प्रावधान है-

    "(1) | जनरल क्लाजेज एक्ट, 1897 (1897 का क्रमांक 10) की धारा 21 के उपबन्ध को हानि पहुँचाये बिना निरोधादेश किसी भी समय उपांतरित या रद्द किया जा सकेगा।

    (क) भले ही वह आदेश धारा 3 की उपधारा (3) में वर्णित राज्य सरकार द्वारा जिसका कि वह अधिकारी अधीनस्थ है या केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाया गया हो;

    (ख) भले ही वह आदेश राज्य सरकार द्वारा बनाया गया हो या केन्द्रीय सरकार द्वारा।

    (2) एक निरोध आदेश का वापस लेने या अवसान होना (एतद्पश्चात् इस उपधारा में पूर्ववर्ती निरोध आदेश के रूप में निर्दिष्ट) चाहे ऐसा पूर्ववर्ती निरोध आदेश राष्ट्रीय सुरक्षा (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1984 के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात् दिया गया हो उसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 3 के अधीन दूसरा निरोध आदेश (एतद्पश्चात् इस उपधारा में पश्तचात्वर्ती निरोध आदेश के रूप में निर्दिष्ट) दिया जाना वर्जित नहीं करेगा :

    परन्तु उस दशा में जहाँ कि ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध दिए गए पूर्ववर्ती निरोध आदेश की वापसी या अवसान के पश्चात् कोई नवीन तथ्य उत्पन्न न हुए हों, तो वह अधिकतम कालावधि जिनके लिए ऐसा व्यक्ति पश्चात्वर्ती निरोध आदेश के अनुसरण में निरुद्ध किया जा सके, किसी भी दशा में पूर्ववर्ती निरोध आदेश के अधीन निरोध की तारीख से बाहर मासों की कालावधि के अवसान के आगे तक की नहीं हो सकेगी।"

    इस धारा के उपबंध के अधीन राज्य या केन्द्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह निरोध आदेश को उपांतरित कर सकेगी और आवश्यक होने पर उसे रद्द कर सकेगी। इस हेतु यह आवश्यक नहीं है कि वह राज्य सरकार के अधीनस्थ किसी अधिकारी द्वारा दिया गया है या केन्द्र सरकार के अधीन रहते हुए दिया गया। यह आदेश राज्य सरकार या केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया हो। उसे उपांतरित करने या रद्द किए जाने में उसका महत्व गौण है।

    किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध किए जाने के पश्चात् परिस्थितियों में अचानक परिवर्तन आ जाएँ या व्यवस्था पर नियंत्रण कर लिया जाए, उस स्थिति में किसी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से नजरबंद रखा जाना उसको नैसर्गिक स्वतंत्रता के लिए हितकर नहीं है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को आदेश में उपान्तरण किए जाने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता एवं अधिकारिता दी गई है।

    कविता बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1981) के मामले में लोक व्यवस्था का मामला न होने से निरोध आदेश विधिविरुद्ध ठहराया गया और आदेश अभिखंडित किया गया । निरुद्ध व्यक्ति को रिहा किया गया। टिम्मी बनाम म.प्र. राज्य, 1993 MPLJ844, सलाहकार मंडल के समक्ष निरुद्ध व्यक्ति द्वारा यह प्रार्थना की जा सकती है अथवा की जाएँ कि उसे अधिवक्ता के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर एवं अनुमति दो जाएँ। यह प्रार्थना सरकार को की जाने योग्य नहीं है।

    किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जा सकता है, परन्तु निरुद्ध किया जाना उस स्थिति में न्यायसंगत नहीं है, जब निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन न किया जाएं. संतुष्टि का समुचित आधार न हो और निरुद्ध किए जाने की परिस्थितियाँ विद्यमान न हो। राज्य अथवा केन्द्र सरकार को उक्त अधिकारिता का प्रयोग बहुत सावधानी पूर्वक किया जाना होता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष भाव से उक्त अधिकारिता का प्रयोग न किया जाएँ। संविधान में दिए गए मूलभूत अधिकारों का हनन् न हो, इस हेतु प्रक्रिया एवं विनिश्चय की समीक्षा और पारदर्शिता के लिए कठोर उपबंध किए गए हैं।

    मोहम्मद रमजान अली बनाम भारत संघ एवं अन्य, 2008 के प्रकरण में असम सरकार द्वारा दिनांक 27-09-2007 को निरोध आदेश पारित किया गया, परन्तु आदेश पुष्टि हेतु केन्द्र सरकार को नहीं भेजा गया, जो कि अधिनियम धारा 3 (5) के अनुसार सात दिन की अवधि में भेजा जाना अनिवार्य है। शपथ-पत्र और अन्य अभिलेख से यह प्रकट नहीं होता है कि केन्द्र सरकार को इस संबंध में संसूचित किया गया।

    केन्द्र सरकार के शपथ-पत्र में विवादास्पद कथन किया गया कि निरुद्ध व्यक्ति का अभ्यावेदन केन्द्र सरकार को प्राप्त होने पर उसका निराकरण 1-11-2007 को किया गया, परन्तु शपथ-पत्र में यह कथन नहीं किया गया कि धारा 3(5) के अंतगंत प्रतिवेदन प्राप्त करने की प्राप्ति रसीद उपलब्ध है। इस तरह धारा 3(5) के उपबंधों का अनुपालन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा नहीं किया गया। निरोध आदेश अभिखंडित किया गया।

    निरोध आदेश की पुष्टि करते समय सामान्यतः निरुद्ध रखे जाने की अवधि का विवरण दिया जाना अपेक्षित है और यह आवश्यक नहीं है कि वह अधिकतम अवधि हो। कई बार आदेश दिए जाने में अवधि का उल्लेख किया जाना रह जाता है या अन्य कोई लिपिकीय त्रुटि अवधि के संबंध में की जाती है।

    कोर्ट द्वारा इस बिन्दु पर अभिमत दिया गया है कि अवधि का उल्लेख किया जाना गौण है और इसे आधार बनाकर न तो आदेश रद्द किया जायेग और न ही उसे अवैध व्हराया जायेगा। व्यक्ति का निरुद्ध रखा जाना परिस्थितियों के अधीन है और अवधि का उल्लेख न किए जाने पर सामान्यतः यह अवधि किसी भी रूप में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी।

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