क्या न्यायिक नियुक्तियों के लिए समय-सीमा न्यायपालिका की दक्षता सुनिश्चित कर सकती है?
Himanshu Mishra
25 Nov 2024 5:43 PM IST
न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया का परिचय
भारत में हाईकोर्ट (High Courts) और सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में न्यायाधीशों की नियुक्ति एक संवैधानिक प्रक्रिया (Constitutional Process) है, जिसका उद्देश्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को सुनिश्चित करना है। यह प्रक्रिया कई चरणों में होती है, जिसमें हाई कोर्ट कोलेजियम (High Court Collegium) की सिफारिश, सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की स्वीकृति, और अंततः कार्यपालिका (Executive) द्वारा नियुक्ति शामिल है।
हालांकि, इस प्रक्रिया में देरी के कारण बड़ी संख्या में न्यायिक पद खाली रह जाते हैं, जिससे न्यायिक प्रणाली (Judicial System) पर भार बढ़ता है।
सुप्रीम कोर्ट ने M/s. PLR Projects Pvt. Ltd. v. Mahanadi Coalfields Ltd. मामले में इस समस्या का विश्लेषण किया और नियुक्तियों में देरी को रोकने के लिए एक संगठित समय-सीमा (Structured Timelines) की सिफारिश की।
संवैधानिक प्रावधान और मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (Constitutional Provisions and Memorandum of Procedure)
हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारतीय संविधान (Indian Constitution) के अनुच्छेद 217 और 224 के तहत होती है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति अनुच्छेद 124 के तहत होती है। नियुक्ति की प्रक्रिया को मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (Memorandum of Procedure - MoP) के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है, जो कार्यपालिका द्वारा निर्धारित किया गया एक दस्तावेज है।
1999 और 2017 में तैयार किए गए MoP में विभिन्न चरणों के लिए समय-सीमाएं तय की गई थीं, जैसे:
1. राज्य (State) छह सप्ताह के भीतर अपनी राय प्रस्तुत करें।
2. चीफ जस्टिस (Chief Justice) चार सप्ताह में सिफारिशें भेजें।
3. विधि मंत्री (Law Minister) तीन सप्ताह में प्रस्ताव प्रधानमंत्री (Prime Minister) के पास भेजें।
हालांकि, इन समय-सीमाओं का अक्सर पालन नहीं किया जाता है, जिससे नियुक्तियों में देरी होती है।
सुप्रीम कोर्ट के समय-सीमा पर निर्देश (The Supreme Court's Guidelines on Timelines)
सुप्रीम कोर्ट ने इन समय-सीमाओं के पालन में आने वाली समस्याओं को स्वीकार किया और नियुक्तियों को तेज़ करने के लिए विशेष कदम सुझाए। अदालत ने न्यायपालिका (Judiciary) और कार्यपालिका के बीच सहयोग (Collaboration) पर ज़ोर दिया।
कोर्ट ने सुझाव दिया:
1. इंटेलिजेंस ब्यूरो (Intelligence Bureau - IB) को हाईकोर्ट कोलेजियम की सिफारिश के बाद 4 से 6 सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए।
2. केंद्र सरकार (Central Government) राज्य सरकार और IB से रिपोर्ट मिलने के 8 से 12 सप्ताह के भीतर सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम को भेजे।
3. यदि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम अपनी सिफारिश दोबारा और सर्वसम्मति से करता है, तो केंद्र सरकार को 3 से 4 सप्ताह के भीतर नियुक्ति करनी चाहिए।
नियुक्ति प्रक्रिया पर प्रमुख निर्णय (Judicial Precedents on Appointment Processes)
इस निर्णय में कई महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया गया:
• Second Judges Case (1993): इसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस की प्राथमिकता को स्थापित किया गया।
• Third Judges Case (1998): इसमें कोलेजियम प्रणाली (Collegium System) में बहुलता (Plurality) की भूमिका पर ज़ोर दिया गया।
• State of Rajasthan v. Union of India: इसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने की आवश्यकता बताई गई।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि Second Judges Case और Third Judges Case में न्यायिक पुनर्विचार (Judicial Review) पर की गई टिप्पणियां समय-सीमाओं के निर्धारण को बाधित नहीं करती हैं।
खाली पदों का संकट (The Current Crisis of Vacancies)
अदालत ने बताया कि हाईकोर्ट में लगभग 40% न्यायिक पद खाली हैं, जिसमें कई बड़े उच्च न्यायालय अपने स्वीकृत पदों (Sanctioned Strength) के 50% से भी कम क्षमता पर कार्य कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया कि वे रिक्तियों (Vacancies) की सिफारिश छह महीने पहले से शुरू करें और नई सिफारिशों को पुरानी सिफारिशों के परिणाम का इंतजार किए बिना भेजें।
न्यायपालिका की दक्षता के लिए सहयोग (Collaborative Efforts for Timely Justice)
अदालत ने कहा कि न्यायिक नियुक्ति एक सहयोगात्मक प्रक्रिया (Collaborative Process) है, जिसमें सभी पक्षों की तत्परता (Promptness) आवश्यक है। अदालत ने हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम और केंद्र सरकार से आग्रह किया कि वे सुझाई गई समय-सीमाओं का पालन करें और न्यायिक नियुक्तियों के संकट को प्रभावी ढंग से हल करें।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता को उजागर करता है।
अदालत द्वारा प्रस्तावित समय-सीमाएं और प्रत्येक पक्ष की जिम्मेदारियों को स्पष्ट करने से नियुक्तियों में देरी को रोकने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। यह पहल न्यायपालिका की क्षमता को मजबूत करने और न्यायिक प्रक्रिया को समयबद्ध (Time-Bound) बनाने का उद्देश्य रखती है।