क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 को पूर्वव्यापी रूप से लागू किया जा सकता है? प्रकाश बनाम फुलवती का विश्लेषण

Himanshu Mishra

20 Nov 2024 7:28 PM IST

  • क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 को पूर्वव्यापी रूप से लागू किया जा सकता है? प्रकाश बनाम फुलवती का विश्लेषण

    प्रकाश बनाम फुलवती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह तय किया कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (Hindu Succession Amendment Act, 2005), जो बेटियों को हिंदू संयुक्त परिवार (Hindu Joint Family) में समान उत्तराधिकार अधिकार (Equal Coparcenary Rights) प्रदान करता है, क्या इसे पूर्वव्यापी (Retrospective) रूप से लागू किया जा सकता है। इस मामले में कोर्ट ने संशोधन के दायरे और सीमाओं को स्पष्ट किया।

    मुख्य मुद्दा: क्या संशोधन पूर्वव्यापी है?

    1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act, 1956) की धारा 6 को 2005 के संशोधन के माध्यम से बदला गया। इस संशोधन ने बेटियों को बेटों के समान अधिकार प्रदान किए, जिससे उन्हें जन्म से ही परिवार की संपत्ति (Coparcenary Property) में हिस्सेदारी का हकदार बनाया गया।

    मामला यह था कि क्या यह अधिकार उन मामलों में लागू होगा जहां बेटी के पिता (जो परिवार के कर्ता या Coparcener थे) की मृत्यु 9 सितंबर, 2005 से पहले हो चुकी थी, जो कि संशोधन की प्रभावी तिथि है।

    कोर्ट द्वारा धारा 6 की व्याख्या

    1. संशोधन का केवल प्रगतिशील (Prospective) प्रभाव:

    सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 6 का संशोधित प्रावधान केवल 9 सितंबर, 2005 से लागू होता है और इसे पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि जिन संशोधनों से मौलिक अधिकार (Substantive Rights) प्रभावित होते हैं, वे तब तक प्रगतिशील माने जाते हैं जब तक कि कानून में स्पष्ट रूप से इसे पूर्वव्यापी करने का उल्लेख न हो।

    2. जीवित कर्ता और जीवित बेटियां:

    कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अधिकार केवल उन्हीं मामलों में लागू होगा जब पिता (कर्त्ता) और बेटी दोनों 9 सितंबर, 2005 तक जीवित हों। यह शर्त यह सुनिश्चित करती है कि संशोधन पूर्व में स्थापित अधिकारों को बाधित न करे।

    3. कल्पित विभाजन और कानूनी अंतिमता (Notional Partition and Legal Finality):

    अगर कर्ता की मृत्यु 2005 के संशोधन से पहले हुई थी, तो उत्तराधिकार (Succession) उस समय लागू कानून के अनुसार निर्धारित होगा। ऐसे मामलों में, कल्पित विभाजन (Notional Partition), जो कर्ता की मृत्यु के समय संपत्ति के हिस्से तय करने के लिए लागू होता है, पहले ही कानूनी रूप से अधिकार तय कर चुका होता है। इस स्थिति में, संशोधित कानून को लागू करने का कोई औचित्य नहीं होता।

    संबंधित मामलों में चर्चा

    इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया:

    • Sheela Devi बनाम Lal Chand (2006): कोर्ट ने कहा कि 2005 का संशोधन उन मामलों पर लागू नहीं होता जहां उत्तराधिकार 2005 से पहले खुला हो।

    • Ganduri Koteshwaramma बनाम Chakiri Yanadi (2011): इसमें संशोधन को लंबित मामलों (Pending Proceedings) पर लागू करने की अनुमति दी गई, लेकिन केवल तब, जब उत्तराधिकार को अंतिम रूप से तय नहीं किया गया हो।

    कोर्ट ने यह भी पुष्टि की कि संशोधन के प्रावधान, जब तक स्पष्ट रूप से न कहा जाए, पूर्वव्यापी नहीं माने जाएंगे।

    महत्वपूर्ण प्रावधानों की व्याख्या

    धारा 6(1): बेटियों के समान अधिकार (Equal Rights for Daughters)

    यह प्रावधान बेटियों को जन्म से ही परिवार की संपत्ति में समान हिस्सेदारी का अधिकार देता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार तभी लागू होगा जब पिता (कर्त्ता) 9 सितंबर, 2005 को जीवित हों।

    धारा 6(5): पूर्व के लेन-देन का संरक्षण (Protection of Past Transactions)

    यह प्रावधान 20 दिसंबर, 2004 से पहले दर्ज विभाजनों (Partitions) को कानूनी रूप से सुरक्षित रखता है। कोर्ट ने कहा कि इस उपधारा की व्याख्या यह सुनिश्चित करने के लिए की जानी चाहिए कि पहले के कानूनी लेन-देन को चुनौती न दी जाए।

    सामाजिक और कानूनी प्रभाव

    हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया था। हालांकि, प्रकाश बनाम फुलवती निर्णय ने इन सुधारों की सीमाएं स्पष्ट कर दीं।

    संशोधन ने समानता के सिद्धांत को आगे बढ़ाया, लेकिन कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि यह पहले से स्थापित अधिकारों को प्रभावित न करे। यह निर्णय सामाजिक सुधार और कानूनी निश्चितता के बीच संतुलन को दर्शाता है।

    प्रकाश बनाम फुलवती का निर्णय 2005 के संशोधन के आवेदन को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसने पुष्टि की कि यह संशोधन केवल प्रगतिशील है और बेटियों को उनके अधिकार तभी प्रदान करता है जब पिता 2005 के संशोधन के समय जीवित हों।

    यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि विधायी (Legislative) सुधार स्थापित कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप हो और अतीत के अधिकारों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करे। यह न्यायपालिका की भूमिका को भी उजागर करता है कि वह सामाजिक सुधार और कानूनी सिद्धांतों के बीच संतुलन बनाए रखे।

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