क्या हाईकोर्ट, आर्म्ड फोर्सेज ट्राइब्यूनल के फैसलों को चुनौती देने वाली रिट याचिकाएं सुन सकता है?
Himanshu Mishra
25 April 2025 12:57 PM

सुप्रीम कोर्ट द्वारा Union of India बनाम परशोतम दास (Parashotam Dass) [2023] में दिया गया निर्णय एक ऐतिहासिक फ़ैसला है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि क्या देश के हाई कोर्ट्स (High Courts) आर्म्ड फोर्सेज ट्राइब्यूनल (Armed Forces Tribunal – AFT) के निर्णयों को रिट याचिका (Writ Petition) द्वारा चुनौती देने वाले मामलों की सुनवाई कर सकते हैं या नहीं।
इस फैसले से पहले Union of India बनाम मेजर जनरल श्रीकांत शर्मा (Shri Kant Sharma) (2015) के मामले में कहा गया था कि हाईकोर्ट ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन परशोतम दास के निर्णय ने यह स्थिति स्पष्ट कर दी और यह दोहराया कि संविधान के अनुच्छेद 226 (Article 226 – Power of High Courts to issue Writs) के तहत हाई कोर्ट की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति को कोई भी कानून समाप्त नहीं कर सकता।
न्यायिक समीक्षा की संवैधानिक नींव (Constitutional Foundation of Judicial Review)
इस फैसले की मूल भावना यह है कि हाई कोर्ट की न्यायिक समीक्षा की शक्ति संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) का हिस्सा है, जिसे हटाया नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय में L. Chandra Kumar बनाम Union of India (1997) का उल्लेख करते हुए कहा कि चाहे कोई भी कानून हो, हाई कोर्ट के पास अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिकाएं सुनने का अधिकार बना रहेगा।
इस फैसले में यह दोहराया गया कि न्यायिक समीक्षा केवल एक प्रशासनिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह एक मौलिक संवैधानिक शक्ति (Fundamental Constitutional Power) है, जो हर नागरिक को न्याय पाने का अवसर देती है, चाहे वह सिविल सेवा में हो या सेना में।
अनुच्छेद 227(4) का गलत अर्थ और उसकी सीमाएं (Misinterpretation and Limitations of Article 227(4))
पहले के फैसलों में अनुच्छेद 227(4) को इस रूप में देखा गया था कि हाई कोर्ट को ट्राइब्यूनल्स पर किसी भी प्रकार की निगरानी (Superintendence) नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह प्रतिबंध केवल प्रशासनिक निगरानी (Administrative Supervision) तक सीमित है, न कि न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) पर।
यानी कि हाई कोर्ट प्रशासनिक आदेशों में हस्तक्षेप नहीं करेगा, लेकिन अगर कोई आदेश या निर्णय विधिक त्रुटि (Legal Error) से ग्रसित हो या मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन हो रहा हो, तो उस पर न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
महत्वपूर्ण फैसलों का संदर्भ (Reference to Key Judgments)
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने S.N. Mukherjee बनाम Union of India (1990) का हवाला देते हुए यह भी दोहराया कि कोर्ट मार्शल (Court Martial) जैसी सैन्य कार्यवाहियों पर भी न्यायिक समीक्षा संभव है।
साथ ही Rojer Mathew बनाम South Indian Bank (2020) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि अनुच्छेद 226 की शक्ति को सीमित नहीं किया जा सकता, और अनुच्छेद 227(4) केवल प्रशासनिक नियंत्रण की सीमा तय करता है, न कि संवैधानिक शक्तियों को खत्म करता है।
आर्म्ड फोर्सेज ट्राइब्यूनल की भूमिका (Role of Armed Forces Tribunal – AFT)
AFT का गठन Armed Forces Tribunal Act, 2007 के तहत किया गया था, ताकि सेना के कर्मियों की सेवा संबंधी शिकायतों का समाधान विशेषज्ञ तरीके से किया जा सके। AFT के फैसलों के खिलाफ अपील सुप्रीम कोर्ट में केवल तभी की जा सकती है जब मामला "सार्वजनिक महत्व का विधिक प्रश्न (Question of Law of General Public Importance)" हो।
इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से मामले – जैसे कि वेतन, पेंशन, प्रोन्नति, या छुट्टी संबंधी विवाद – सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुँच सकते। इन मामलों के लिए हाई कोर्ट ही एकमात्र व्यवहारिक उपाय (Practical Remedy) बचता है।
सरकार की आपत्तियों को कोर्ट ने किया खारिज (Rejection of Government's Objections)
सरकार ने यह तर्क दिया कि कुछ विशिष्ट मामलों – जैसे जासूसी, पेंशन, अनुशासन, आदि – में हाई कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन कोर्ट ने इसे स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट पहले से ही सावधानीपूर्वक अपने क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) का प्रयोग करता है और वह सैन्य अनुशासन (Military Discipline) के महत्व को समझता है।
इसलिए किसी भी मामले को पहले से बाहर रखना अनुचित और असंवैधानिक होगा।
दो स्तरीय न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत (Doctrine of Dual Judicial Scrutiny)
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सभी नागरिकों को न्याय प्राप्ति के लिए कम से कम दो स्तरों पर स्वतंत्र न्यायिक जांच (Independent Judicial Review) का अधिकार मिलना चाहिए। AFT के आदेशों के विरुद्ध अगर अपील सुप्रीम कोर्ट में सीमित हो, और हाई कोर्ट को भी निष्क्रिय कर दिया जाए, तो न्याय पाने का रास्ता ही बंद हो जाएगा।
इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि AFT के फैसलों के विरुद्ध हाई कोर्ट में रिट याचिका दाखिल की जा सके।
पूर्व के निर्णय को रद्द किया गया (Overruling of Shri Kant Sharma Case)
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि Major General Shri Kant Sharma बनाम Union of India (2015) का फैसला गलत कानून पर आधारित था और यह संविधान की भावना के विपरीत था। अतः उसे रद्द किया गया और यह पुनः स्थापित किया गया कि हाई कोर्ट की रिट शक्तियां सीमित नहीं की जा सकतीं।
फैसले के व्यापक प्रभाव (Wider Implications of the Judgment)
यह निर्णय केवल कानूनी तकनीकीताओं की व्याख्या नहीं करता, बल्कि यह सैनिकों और सेवानिवृत्त कर्मियों को न्याय दिलाने का वास्तविक रास्ता खोलता है। अब सेवा से जुड़ी व्यक्तिगत शिकायतें, जैसे कि पेंशन, सेवा की शर्तें, या प्रोन्नति संबंधी विवाद, AFT के निर्णयों के बाद भी हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती हैं।
इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता (Credibility) और संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution) को पुनः स्थापित किया गया है।
Union of India बनाम परशोतम दास का यह ऐतिहासिक फैसला स्पष्ट करता है कि AFT के निर्णयों के खिलाफ रिट याचिका अनुच्छेद 226 के अंतर्गत हाई कोर्ट में दायर की जा सकती है। यह संविधान के मूल ढांचे, विशेषकर न्यायिक समीक्षा के अधिकार, को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
यह निर्णय न्यायिक स्वतंत्रता, सैनिकों के अधिकारों की रक्षा और संविधान की गरिमा को बनाए रखने वाला है। इस फैसले के बाद यह एक बार फिर से स्थापित हो गया है कि भारत में कोई भी कानून न्यायिक समीक्षा की शक्ति को समाप्त नहीं कर सकता, चाहे वह किसी विशेष न्यायाधिकरण (Tribunal) से संबंधित क्यों न हो। High Court का Article 226 का क्षेत्राधिकार अब पूरी तरह बहाल और सुरक्षित है।