क्या हाईकोर्ट आपराधिक मामलों में पूर्व में हुई जांच को निरस्त करके नई जांच का आदेश दे सकता है?
Himanshu Mishra
5 Jun 2025 8:50 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने वाई. बालाजी बनाम कार्तिक देसारी एवं अन्य (2023) मामले में एक अत्यंत गंभीर प्रश्न पर विचार किया कि क्या कोई हाईकोर्ट आपराधिक मामलों में पूर्व में हुई जांच को पूरी तरह निरस्त करके नई जांच (De Novo Investigation) का आदेश दे सकता है, वह भी तब जब जांच के दौरान कई चरण पूरे हो चुके हों, रिपोर्ट दाखिल हो चुकी हो और अदालतों द्वारा संज्ञान (Cognizance) भी लिया जा चुका हो।
यह निर्णय न्यायिक शक्ति की सीमा, निष्पक्ष जांच (Fair Investigation), और सार्वजनिक सेवा में भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में न्यायपालिका की जिम्मेदारी को रेखांकित करता है।
डि नोवो जांच (De Novo Investigation) क्या है?
"De Novo Investigation" का अर्थ है जांच की प्रक्रिया को पूरी तरह से शुरू से दोबारा आरंभ करना, जैसे कि पहले कोई जांच हुई ही नहीं। यह केवल "Further Investigation" (धारा 173(8) CrPC के तहत अतिरिक्त जांच) से अलग होती है, जिसमें पहले की गई जांच की पुष्टि या विस्तार किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार Vinay Tyagi बनाम इर्शाद अली (2013) निर्णय में स्पष्ट किया गया कि De Novo जांच का आदेश केवल हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ही दे सकते हैं और केवल तभी जब यह साबित हो जाए कि पहली जांच पूरी तरह से पक्षपाती (Biased), अनुचित (Unfair) या भ्रष्ट (Corrupt) थी।
सुप्रीम कोर्ट की चिंताएँ (Supreme Court's Concerns)
इस मामले में मद्रास हाईकोर्ट ने एक बड़े नौकरी-के-बदले-रिश्वत (Jobs-for-Cash Scam) मामले में सभी आपराधिक मामलों की फिर से नई जांच का आदेश दिया। अदालत ने कहा कि पहले की जांच को "पूरी तरह से मिटा दिया जाए" (Wiping out the earlier investigation altogether) और "नई सामग्री और साक्ष्य एकत्र किए जाएं" (Collect fresh evidence and material)।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि यह आदेश बिना किसी विधिक आधार (Legal Basis) के दिया गया और इससे पूर्व की रिपोर्टें और जांच निष्प्रभावी (Nullified) हो जाती हैं। यह न्यायिक अनुशासन (Judicial Discipline) के खिलाफ था, खासकर जब पहले सुप्रीम कोर्ट स्वयं इन मामलों में आदेश दे चुका था।
प्रमुख कानूनी धाराएँ (Key Legal Provisions)
यह मामला दो महत्वपूर्ण धाराओं पर केन्द्रित था:
1. धारा 173(8) CrPC – इसके तहत पहले से दर्ज की गई चार्जशीट के बाद भी अतिरिक्त जांच की जा सकती है, लेकिन पहले की गई जांच को पूरी तरह से खत्म करने का अधिकार इसमें नहीं है।
2. धारा 482 CrPC – यह हाईकोर्ट को न्याय की रक्षा और प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए अंतर्निहित शक्ति (Inherent Powers) देता है, लेकिन इस शक्ति का प्रयोग अत्यंत संयम से किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि De Novo जांच का आदेश सिर्फ उन्हीं मामलों में दिया जा सकता है जहाँ पहले की जांच से न्यायिक विवेक (Judicial Conscience) को ठेस पहुंचे।
याचिकाकर्ता की भूमिका और लोकस स्टैंडी (Complainant and Locus Standi)
इस मामले में एक शिकायतकर्ता (Complainant) देवासगायम, जिसने पहले भ्रष्टाचार की शिकायत की थी, बाद में उसी आरोपियों की ओर से खड़ा दिखा। उसने नई जांच की मांग करते हुए कहा कि पहले की गई जांच में ऐसे लोग शामिल हैं जिनका उसके मामले से कोई लेना-देना नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि देवासगायम की मंशा जांच को निष्प्रभावी करना था और उसने आरोपी पक्ष को लाभ पहुंचाने का प्रयास किया। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जब भ्रष्टाचार सार्वजनिक पदों से जुड़ा हो, तो पीड़ित पक्ष, ईमानदार एनजीओ, और जाँच एजेंसियाँ — सभी को अपील का अधिकार (Locus Standi) मिलना चाहिए।
समझौते का दुरुपयोग (Misuse of Compromise)
मामले में कई आरोपी और शिकायतकर्ता मिलकर समझौते (Compromise) की आड़ में केस रद्द (Quash) कराने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे मामलों में भ्रष्टाचार, जो समाज के खिलाफ अपराध होता है, को समझौते के आधार पर बंद करना कानून की मूल भावना के विरुद्ध है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गैर-समझौतायोग्य अपराधों (Non-compoundable Offences), विशेषकर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोपों को समझौते के जरिए समाप्त नहीं किया जा सकता।
धन शोधन मामले पर प्रभाव (Impact on Money Laundering Cases)
धन शोधन निवारण अधिनियम (Prevention of Money Laundering Act, 2002 - PMLA) की धारा 2(1)(u) और धारा 3 के अनुसार यदि किसी अपराध से आय उत्पन्न होती है, तो वह “Proceeds of Crime” कहलाती है। यह तभी सिद्ध हो सकता है जब मूल अपराध (Scheduled Offence) की सही और निष्पक्ष जांच हो।
अगर De Novo जांच का आदेश ऐसे ही बिना ठोस आधार के दिया जाए, तो वह ED की कार्यवाही को भी अवैध ठहरा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ऐसे आदेश से भ्रष्टाचार के मामलों में दोषियों को कानूनी छूट मिल सकती है, जिससे जांच और अभियोजन की प्रक्रिया प्रभावित होगी।
वाई. बालाजी बनाम कार्तिक देसारी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट जब De Novo जांच का आदेश देता है, तो उसे बहुत सावधानी से, उचित कारणों और विधिक ठोस आधार के साथ ही देना चाहिए।
कोई भी आदेश जो पहले की संपूर्ण जांच को “वाइप आउट” कर दे, वह केवल तभी दिया जा सकता है जब यह दिखाया जाए कि पहले की जांच पूरी तरह से असंवैधानिक, पक्षपातपूर्ण और न्याय के विरुद्ध थी। अन्यथा, ऐसे आदेश कानून की प्रक्रिया को ही क्षति पहुंचाते हैं।
इस निर्णय ने यह भी स्थापित किया कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में कोई भी पक्ष — चाहे वह शिकायतकर्ता हो, एनजीओ हो, या पीड़ित उम्मीदवार — न्याय के लिए आवाज़ उठा सकता है। न्यायालयों को ऐसे मामलों में राजनीति से ऊपर उठकर न्याय की मर्यादा बनाए रखनी चाहिए।
यह फैसला न्यायिक संयम, प्रक्रिया की गरिमा, और जनता के अधिकारों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

