क्या सरकार बिना मुआवजा दिए और कानूनी प्रक्रिया अपनाए किसी की जमीन पर कब्जा कर सकती है?
Himanshu Mishra
11 April 2025 12:32 PM

सुप्रीम कोर्ट ने Sukh Dutt Ratra & Anr. v. State of Himachal Pradesh मामले में एक बहुत ही अहम सवाल पर फैसला सुनाया—क्या राज्य (State) किसी नागरिक की ज़मीन जबरदस्ती लेकर बिना कानून के अनुसार प्रक्रिया अपनाए और बिना मुआवज़ा दिए, सिर्फ इसलिए बच सकता है कि ज़मीन के मालिक ने देर से कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया? कोर्ट ने इसका जवाब साफ़ तौर पर “नहीं” दिया और यह कहा कि ज़मीन का अधिकार एक संवैधानिक (Constitutional) और मानव अधिकार (Human Right) है, जिसे छीना नहीं जा सकता।
अनुच्छेद 300-A और संपत्ति का अधिकार (Article 300-A and Right to Property)
भारत के संविधान (Constitution) का अनुच्छेद 300-A यह कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि उसके लिए कानून (Law) की अनुमति न हो। भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं रहा, फिर भी यह एक मजबूत संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) है। कोर्ट ने कहा कि राज्य (State) को भी पूरी तरह से कानून की प्रक्रिया (Due Process) का पालन करना होगा, वरना यह संविधान का उल्लंघन होगा।
कानून का शासन और उचित प्रक्रिया (Rule of Law and Due Process)
कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि "Rule of Law" का मतलब यही है कि कोई भी, चाहे वह सरकार हो या आम नागरिक, कानून के बाहर जाकर काम नहीं कर सकता। यह सिद्धांत 1765 में इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध मामले Entick v. Carrington में स्थापित हुआ था और भारत में Wazir Chand v. State of Himachal Pradesh (1955) में सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपनाया। अगर राज्य (State) किसी की संपत्ति लेता है, तो उसे पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है।
राज्य की ज़िम्मेदारी भूमि अधिग्रहण में (State's Responsibility in Land Acquisition)
कोर्ट ने यह साफ़ किया कि जब राज्य (State) किसी की ज़मीन लेता है, तो उस पर ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है, न कि छूट। किसी की निजी ज़मीन (Private Property) को जबरदस्ती लेना और फिर मुआवज़ा न देना, एक गंभीर गलत कार्य (Wrongdoing) है। Bishandas v. State of Punjab (1961) में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि सरकार किसी भी व्यक्ति को बिना अदालत की प्रक्रिया के उसकी ज़मीन से नहीं हटा सकती।
ज़मीन देने के लिए लिखित सहमति की अनिवार्यता (Need for Written Consent in Land Acquisition)
राज्य (State) ने दलील दी थी कि लोगों ने सड़क निर्माण के लिए अपनी ज़मीन "मौखिक रूप से" (Orally) दे दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि भूमि अधिग्रहण (Land Acquisition) जैसी प्रक्रिया में केवल लिखित सहमति (Written Consent) ही मान्य है। Vidya Devi v. State of Himachal Pradesh (2020) में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही बात कही थी कि मौखिक सहमति के आधार पर ज़मीन लेना अवैध है।
देरी और विलंब से न्याय नहीं रोका जा सकता (Delay and Laches Cannot Override Justice)
राज्य (State) ने यह भी तर्क दिया कि ज़मीन मालिकों ने बहुत देर से याचिका दायर की थी, इसलिए उन्हें मुआवज़ा नहीं मिलना चाहिए। लेकिन कोर्ट ने इसे भी ठुकरा दिया और कहा कि जब न्याय (Justice) का सवाल हो, और जब किसी के संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) का उल्लंघन हुआ हो, तो देरी का तर्क नहीं चल सकता। Maharashtra State Road Transport Corporation v. Balwant Regular Motor Service (1969) में भी कोर्ट ने कहा था कि न्याय करने में देरी अगर समझदारी से हुई हो तो उसे माफ़ किया जा सकता है।
इसी तरह Tukaram Kana Joshi v. MIDC (2013) में भी कोर्ट ने यह कहा था कि राज्य को मुआवज़ा देना ही होगा, चाहे याचिका कितनी भी देर से आई हो। राज्य यदि कानूनी प्रक्रिया (Legal Procedure) का पालन नहीं करता, तो वह केवल देरी का बहाना बनाकर न्याय से नहीं बच सकता।
बराबरी का सिद्धांत और मुआवज़ा (Parity in Compensation)
कोर्ट ने यह भी देखा कि उन्हीं हालातों में दूसरे ज़मीन मालिकों को मुआवज़ा मिला है। लेकिन राज्य (State) ने उन्हें ही मुआवज़ा दिया जो कोर्ट गए, बाकियों को नहीं दिया। कोर्ट ने कहा कि यह भेदभाव (Discrimination) है और कानून के खिलाफ़ है। यदि कोई काम एक ही उद्देश्य (Purpose) से हुआ है, तो सभी को बराबर मुआवज़ा मिलना चाहिए, चाहे वे कोर्ट गए हों या नहीं।
संपत्ति का अधिकार एक मानव अधिकार भी है (Right to Property is Also a Human Right)
कोर्ट ने दोहराया कि संपत्ति का अधिकार न केवल एक संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) है, बल्कि यह एक मानव अधिकार (Human Right) भी है। State of Haryana v. Mukesh Kumar (2011) में कोर्ट ने कहा था कि किसी की ज़मीन को उसके बिना अनुमति लिए छीनना मानव गरिमा (Dignity) का उल्लंघन है। सरकार अगर कानून का पालन नहीं करती और ज़मीन ले लेती है, तो वह संविधान के विरुद्ध काम करती है।
कोर्ट का हस्तक्षेप और अंतिम निर्णय (Judicial Intervention and Final Relief)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए निर्देश दिया कि राज्य (State) इन ज़मीनों को "deemed acquisition" यानी मानी गई अधिग्रहण माने, और उसी प्रकार मुआवज़ा दे जैसे अन्य मालिकों को मिला। कोर्ट ने निर्देश दिया कि Land Acquisition Collector चार महीने के अंदर मुआवज़ा निर्धारित करे और सभी कानूनी लाभ जैसे solatium (अतिरिक्त राशि) और interest (ब्याज) भी दे। साथ ही कोर्ट ने राज्य को ₹50,000 की लागत भी अदा करने का निर्देश दिया।
Sukh Dutt Ratra v. State of Himachal Pradesh का फैसला संपत्ति के अधिकार (Right to Property), न्याय के सिद्धांत (Principles of Justice), और कानून के शासन (Rule of Law) की अहमियत को दोहराता है। यह साफ़ करता है कि राज्य (State) अपनी ज़िम्मेदारी से केवल इसलिए नहीं बच सकता कि कोई व्यक्ति देर से कोर्ट गया। जब अन्याय (Injustice) लगातार हो रहा हो, तो अदालतें समय की सीमा से परे जाकर भी न्याय दे सकती हैं।
यह निर्णय यह सिखाता है कि किसी लोकतांत्रिक समाज (Democratic Society) में हर नागरिक का अधिकार बराबरी का है। संविधान की रक्षा करने का काम केवल कागज़ पर नहीं, बल्कि ज़मीनी हकीकत में न्याय देकर पूरा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इसी भावना से काम लिया और न्याय को तकनीकी पेचिदगियों से ऊपर रखा।