क्या झूठे आरोप और कानूनी आधारहीन FIR अदालत रद्द कर सकती है?
Himanshu Mishra
9 July 2025 1:10 PM

सलीब @ शालू @ सलीम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सवाल का उत्तर दिया – क्या किसी व्यक्ति के खिलाफ दर्ज एफआईआर (First Information Report) को रद्द (Quash) किया जा सकता है, जब वह प्रथम दृष्टया (Prima Facie) कोई अपराध (Offence) नहीं दर्शाती हो या केवल व्यक्तिगत दुश्मनी (Personal Grudge) के कारण दर्ज की गई हो?
यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 482 और भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code – IPC) की धारा 195A (झूठा साक्ष्य दिलवाने की धमकी) और 386 (जबरदस्ती वसूली) की व्याख्या करता है।
CrPC की धारा 482 के अंतर्गत FIR को रद्द करने की शक्ति (Power to Quash FIR under Section 482 of CrPC)
CrPC की धारा 482 अदालत को यह शक्ति देती है कि वह किसी भी आपराधिक कार्यवाही (Criminal Proceedings) को रद्द कर सकती है, यदि वह प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process) हो या न्याय के उद्देश्य (Ends of Justice) की पूर्ति में बाधा बनती हो।
सुप्रीम कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) के फैसले का उल्लेख करते हुए यह दोहराया कि यदि एफआईआर में किए गए आरोप, अगर सच भी मान लिए जाएं, फिर भी कोई अपराध नहीं बनता, या आरोप पूरी तरह अविश्वसनीय (Inherently Improbable) लगते हैं, तो ऐसी एफआईआर को रद्द किया जा सकता है।
IPC की धारा 195A: झूठा साक्ष्य देने के लिए धमकाना (Section 195A IPC – Threatening to Give False Evidence)
इस मामले में आरोप था कि शिकायतकर्ता को केस वापस लेने के लिए धमकाया गया, और IPC की धारा 195A लागू की गई। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 195A तब लागू होती है जब किसी व्यक्ति को इस उद्देश्य से धमकाया जाए कि वह न्यायालय (Court) में झूठा साक्ष्य (False Evidence) दे।
यदि धमकी केवल केस वापस लेने या समझौते (Settlement) के लिए हो, और उसमें गवाही में झूठ बोलने की बात न हो, तो यह धारा लागू नहीं होती। इसके अलावा, CrPC की धारा 195A के अनुसार, इस प्रकार की शिकायत केवल उस न्यायालय में की जा सकती है जहाँ गवाही दी जानी है।
इसका अर्थ यह है कि बिना न्यायालय में शिकायत किए सीधे पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती, जब तक कि मामला स्पष्ट रूप से गवाही को प्रभावित करने के उद्देश्य से धमकी का न हो।
IPC की धारा 386: जबरदस्ती वसूली और उसका कानूनी अर्थ (Section 386 IPC – Extortion and Its Legal Meaning)
धारा 386 का संबंध Extortion (जबरदस्ती वसूली) से है, जिसमें किसी व्यक्ति को मृत्यु या गंभीर चोट के डर से डराकर उससे संपत्ति (Property) या कोई मूल्यवान चीज (Valuable Security) लेने की बात होती है। इसमें ज़रूरी है कि डर के कारण व्यक्ति ने अपनी इच्छा से (Consent) कोई चीज दी हो।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई संपत्ति दी ही नहीं गई, या डर दिखाकर जबरदस्ती नहीं ली गई, तो जबरदस्ती वसूली का अपराध नहीं बनता।
कोर्ट ने Ramyad Singh v. Emperor जैसे पुराने फैसलों का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि अगर कोई अंगूठा ज़बरदस्ती पकड़कर लगा दिया जाए, तो यह Extortion नहीं है क्योंकि इसमें सहमति (Consent) नहीं है, भले ही वह डर से मिली हो।
इस केस में शिकायतकर्ता ने न तो कोई पैसा दिया और न ही ऐसी कोई बात कही कि डर के कारण उसने संपत्ति सौंपी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 386 लागू नहीं होती।
झूठा फंसाने और मनगढ़ंत आरोपों की न्यायिक जांच (False Implication and Fabricated Allegations)
कोर्ट ने देखा कि आरोपी का नाम एफआईआर में शुरू से नहीं था, बल्कि बाद में दर्ज बयान (Supplementary Statement) में जोड़ा गया। इसके अलावा, घटनाक्रम को बाद में घड़ा गया प्रतीत होता है। कोर्ट ने कहा कि जब कोई केस झूठे फंसाने की नीयत से बनाया जाता है, तो अदालत को एफआईआर के शब्दों से आगे जाकर पूरे घटनाक्रम को देखना चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब किसी मामले में कई एफआईआर दर्ज होती हैं या राजनीति से प्रेरित व्यक्तिगत द्वेष (Political Rivalry and Personal Grudge) का मामला होता है, तो कोर्ट को सावधानीपूर्वक (With Circumspection) तथ्यों की जांच करनी चाहिए।
न्यायालय की भूमिका: प्रक्रिया की आड़ में अन्याय न हो (Role of Court: To Prevent Injustice in the Guise of Procedure)
Neeharika Infrastructure v. State of Maharashtra (2021) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रारंभिक जांच के समय न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, लेकिन अगर एफआईआर साफ तौर पर दुर्भावना से प्रेरित हो (Maliciously Instituted), तो अदालत को हस्तक्षेप करना ही होगा।
इसी सिद्धांत पर चलते हुए कोर्ट ने कहा कि झूठे आरोप, बार-बार एफआईआर दर्ज करना, और व्यक्तिगत या राजनीतिक बदले की भावना से कानूनी प्रक्रिया का उपयोग करना, आपराधिक कानून का दुरुपयोग है।
सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष: एफआईआर रद्द करने के कारण (Conclusion of the Supreme Court – Reasons for Quashing the FIR)
कोर्ट ने यह पाया कि न तो IPC की धारा 195A के लिए आवश्यक तत्व मौजूद थे, न ही जबरदस्ती वसूली (Extortion) जैसा कोई कृत्य हुआ था। आरोपियों ने कोई झूठी गवाही दिलवाने की कोशिश नहीं की और शिकायतकर्ता ने भी डर से कोई संपत्ति नहीं सौंपी।
Anand Kumar Mohatta v. State (2019) में कहा गया था कि अदालत किसी भी समय एफआईआर या आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकती है, यदि वह न्याय के विपरीत हो। इसी के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने Salib के खिलाफ दर्ज FIR को रद्द किया।
सलीब बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि आपराधिक कानून को बदले की भावना या राजनीतिक द्वेष के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि अगर कोई एफआईआर प्रथम दृष्टया किसी अपराध को नहीं दर्शाती या केवल दुश्मनी के चलते दर्ज की गई हो, तो उसे रद्द किया जा सकता है।
यह फैसला यह संदेश देता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि न्याय की आत्मा को भी प्राथमिकता देती है। और यदि कोई प्रक्रिया न्याय को बाधित कर रही हो, तो अदालत उस पर रोक लगाने के लिए बाध्य है।