क्या दहेज के मामलों में कोर्ट Arnesh Kumar के दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज़ करके अग्रिम ज़मानत से इनकार कर सकती है?
Himanshu Mishra
21 Jun 2025 6:18 PM

प्रस्तावना (Introduction): गिरफ्तारी के दुरुपयोग से स्वतंत्रता की रक्षा
सुप्रीम कोर्ट का फैसला मोहम्मद असफाक आलम बनाम झारखंड राज्य (2023) उन मामलों में अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहां पति या उसके परिजनों के खिलाफ दहेज उत्पीड़न (Dowry Harassment) या क्रूरता (Cruelty) के आरोप में धारा 498A भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code – IPC) के तहत एफआईआर दर्ज की जाती है।
कोर्ट ने यह दोहराया कि यदि अपराध 7 साल या उससे कम सजा वाला है, तो Arnesh Kumar बनाम बिहार राज्य (2014) में दिए गए दिशा-निर्देशों (Guidelines) का पालन करना अनिवार्य है और गिरफ्तारी को अंतिम विकल्प के रूप में ही अपनाना चाहिए।
धारा 438 CrPC और अग्रिम ज़मानत का अधिकार (Section 438 CrPC and Anticipatory Bail)
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (Code of Criminal Procedure – CrPC) की धारा 438 एक ऐसा संवैधानिक सुरक्षा प्रावधान है जो व्यक्ति को अग्रिम ज़मानत (Anticipatory Bail) के लिए आवेदन करने का अधिकार देता है, जब उसे यह डर हो कि उसे किसी गैर-जमानती अपराध (Non-bailable Offence) में गिरफ्तार किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि आरोपी जांच में सहयोग कर रहा है और मामला गंभीर प्रकृति (Grave Nature) का नहीं है, तो अग्रिम ज़मानत देने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
धारा 498A IPC और दहेज कानूनों का संतुलन (498A IPC and Balance in Dowry Laws)
IPC की धारा 498A उन महिलाओं की सुरक्षा के लिए है जिन्हें उनके पति या ससुराल वाले मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। इसी के साथ Dowry Prohibition Act की धाराएं 3 और 4 दहेज मांगने को अपराध बनाती हैं। लेकिन कोर्ट ने यह भी माना कि इन प्रावधानों का दुरुपयोग (Misuse) भी हुआ है, इसलिए गिरफ्तारी से पहले न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial Approach) जरूरी है।
अनुच्छेद 21 और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (Article 21 and Right to Personal Liberty)
संविधान का अनुच्छेद 21 (Article 21) हर नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार देता है। कोर्ट ने यह दोहराया कि केवल यह कहकर कि गिरफ्तारी वैध (Lawful) है, उसे उचित (Justified) नहीं माना जा सकता। यदि आरोपी की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, तो उसे ज़मानत दी जानी चाहिए और गिरफ्तार करना अंतिम विकल्प होना चाहिए।
Arnesh Kumar दिशानिर्देश: सभी मामलों में पालन जरूरी (Mandatory Compliance with Arnesh Kumar Guidelines)
Arnesh Kumar बनाम बिहार राज्य (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ऐसे अपराध जिनमें सजा 7 साल या उससे कम है, वहां पुलिस को गिरफ्तारी से पहले यह दर्ज करना होगा कि गिरफ्तारी क्यों जरूरी है। और अगर गिरफ्तारी नहीं कर रहे, तो उसके कारण भी दर्ज करने होंगे।
मजिस्ट्रेट को भी यह देखना होगा कि पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के कारण सही हैं या नहीं। मोहम्मद असफाक आलम केस में कोर्ट ने पाया कि इन नियमों का पालन नहीं किया गया और दोहराया कि अब इनका सख्ती से पालन अनिवार्य है।
न्यायिक विवेक और ज़मानत का सिद्धांत (Judicial Discretion and Bail Jurisprudence)
कोर्ट ने कहा कि अग्रिम ज़मानत देने या न देने का निर्णय सिर्फ औपचारिक नहीं होना चाहिए। अगर आरोपी का आचरण (Conduct) सहयोगी है और वह सबूतों से छेड़छाड़ नहीं कर रहा, तो ज़मानत देने से इनकार करना व्यक्ति की प्रतिष्ठा (Reputation) और गरिमा (Dignity) का हनन हो सकता है। कोर्ट ने Siddharth बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) का हवाला देते हुए कहा कि अनावश्यक गिरफ्तारी से व्यक्ति को सामाजिक और मानसिक क्षति पहुँचती है।
चार्जशीट दाखिल होने के बाद ज़मानत की दृष्टि (Effect of Filing Chargesheet)
अगर जांच पूरी हो चुकी है और चार्जशीट (Chargesheet) दाखिल हो चुकी है, तो आम तौर पर गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं रहती। ऐसे में अग्रिम ज़मानत देना बिल्कुल तर्कसंगत होता है जब तक कि अभियोजन पक्ष यह न दिखा दे कि आरोपी भागने की कोशिश कर सकता है या गवाहों को प्रभावित कर सकता है।
मोहम्मद असफाक आलम के मामले में हाईकोर्ट ने चार्जशीट दाखिल होने के बावजूद केवल "सरेंडर करो और रेगुलर ज़मानत लो" कहकर अग्रिम ज़मानत से इनकार कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अस्वीकार्य बताया।
Sushila Aggarwal मामला और शर्तों की विवेकपूर्ण व्याख्या (Sushila Aggarwal and Discretion in Conditions)
सुषीला अग्रवाल बनाम दिल्ली राज्य (2020) में संविधान पीठ ने यह कहा था कि अग्रिम ज़मानत की अवधि को सामान्य रूप से सीमित नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट परिस्थितियों के अनुसार ज़मानत की शर्तें तय कर सकती है। मोहम्मद असफाक आलम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जब तक कोई विशेष कारण न हो, तब तक अग्रिम ज़मानत निरंतर प्रभाव में रह सकती है।
धारा 41A CrPC और गिरफ्तारी से पहले नोटिस (Section 41A CrPC and Notice Before Arrest)
CrPC की धारा 41A कहती है कि जब किसी आरोपी की गिरफ्तारी जरूरी नहीं है, तब उसे पहले नोटिस ऑफ अपीयरेंस (Notice of Appearance) भेजा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों (Procedural Safeguards) का पालन अत्यंत आवश्यक है ताकि व्यक्ति को बिना कारण जेल भेजने से रोका जा सके। दहेज उत्पीड़न जैसे मामलों में अक्सर गिरफ्तारी का उपयोग दबाव बनाने के लिए किया जाता है।
राज्यों और हाईकोर्ट को निर्देश (Directions to High Courts and Police)
कोर्ट ने सभी हाईकोर्ट और राज्य पुलिस महानिदेशकों को निर्देश दिया कि वे सर्कुलर और नोटिफिकेशन जारी करके सुनिश्चित करें कि Arnesh Kumar के दिशा-निर्देशों का पालन हो। सभी मजिस्ट्रेटों और पुलिस अधिकारियों को यह सिखाया जाए कि बिना कारण गिरफ्तारी न की जाए और गिरफ्तारी करने या न करने के कारण दर्ज किए जाएं। अगर ऐसा नहीं होता, तो संबंधित अधिकारियों पर Contempt of Court और विभागीय कार्यवाही की जाएगी।
मोहम्मद असफाक आलम बनाम झारखंड राज्य का यह फैसला यह याद दिलाता है कि ज़मानत न देना ही न्याय नहीं है, और गिरफ्तारी को शक्ति के रूप में नहीं बल्कि ज़रूरत के आधार पर ही प्रयोग किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि अग्रिम ज़मानत व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक आवश्यक उपाय है, जिसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही रोका जाना चाहिए।
यह निर्णय भारत की न्याय प्रणाली को यह जिम्मेदारी देता है कि वह केवल कानून का पालन न करे, बल्कि उसके मूल उद्देश्य – न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्षता – की रक्षा भी करे।