क्या IBC की धारा 7 के तहत डिफॉल्ट साबित होने के बाद आवेदन खारिज किया जा सकता है?

Himanshu Mishra

18 Jun 2025 11:28 AM

  • क्या IBC की धारा 7 के तहत डिफॉल्ट साबित होने के बाद आवेदन खारिज किया जा सकता है?

    भूमिका (Introduction): IBC की धारा 7 (Section 7) की व्याख्या

    सुप्रीम कोर्ट ने एम. सुरेश कुमार रेड्डी बनाम केनरा बैंक एवं अन्य (2023) के फैसले में इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC) की धारा 7 की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि कोई फाइनेंशियल डिफॉल्ट (Financial Default) साबित हो जाए, तो नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) के पास उस आवेदन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि IBC एक क्रेडिटर-चालित (Creditor-Driven) कानून है, और इसका मूल उद्देश्य है समय पर समाधान सुनिश्चित करना, न कि लंबी न्यायिक प्रक्रिया से देरी करना। इस फैसले में विदर्भ इंडस्ट्रीज और ई. एस. कृष्णमूर्ति जैसे पुराने निर्णयों की भी तुलना कर यह बताया गया कि धारा 7 को कैसे समझा जाना चाहिए।

    धारा 7 का दायरा (Scope of Section 7): डिफॉल्ट (Default) साबित होने पर अनिवार्य स्वीकृति

    IBC की धारा 7 एक फाइनेंशियल क्रेडिटर (Financial Creditor) को यह अधिकार देती है कि वह कंपनी द्वारा डिफॉल्ट किए जाने पर कॉरपोरेट इनसॉल्वेंसी रेजोल्यूशन प्रोसेस (Corporate Insolvency Resolution Process – CIRP) शुरू कर सके।

    इस धारा की उपधारा (5) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि Adjudicating Authority यह पाती है कि डिफॉल्ट हुआ है, तो उसे आवेदन को स्वीकार करना ही होगा (Shall Admit)। कोर्ट ने दोहराया कि “shall” शब्द का उपयोग यह बताने के लिए किया गया है कि यह कोई विवेकाधीन (Discretionary) शक्ति नहीं है, बल्कि अनिवार्यता है।

    IBC में डिफॉल्ट की परिभाषा (Definition of Default under IBC)

    IBC की धारा 3(12) के अनुसार, डिफॉल्ट का अर्थ है – कोई भी बकाया ऋण (Debt), जो देय (Due) है, यदि वह चुकाया नहीं गया हो। यह पूरी राशि हो सकती है या उसका कोई हिस्सा। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब फाइनेंशियल डिफॉल्ट का दस्तावेजों द्वारा प्रमाण मिल जाता है, तो ट्रिब्यूनल को बस यह देखना होता है कि कर्ज है और भुगतान नहीं हुआ है। यह जरूरी नहीं है कि डिफॉल्ट केवल टर्म लोन (Term Loan) से हुआ हो – ओवरड्राफ्ट सुविधा (Overdraft), बैंक गारंटी (Bank Guarantee) या अन्य किसी माध्यम से भी हो सकता है।

    इनोवेंटिव और कृष्णमूर्ति केस (Innoventive and Krishnamurthy): मुख्य मिसालें

    कोर्ट ने Innoventive Industries Ltd. v. ICICI Bank और E.S. Krishnamurthy v. Bharath Hi-tech Builders जैसे मामलों को दोहराते हुए यह बताया कि NCLT को सिर्फ दो बातें देखनी हैं – क्या कर्ज है (Debt) और क्या डिफॉल्ट हुआ है (Default)। Innoventive केस (2018) में यह स्पष्ट किया गया था कि अगर ये दोनों शर्तें पूरी हो जाती हैं, तो ट्रिब्यूनल को आवेदन स्वीकार करना ही होगा। KrishnaMurthy मामले ने इसी सिद्धांत को फिर से दोहराया।

    विदर्भ इंडस्ट्रीज की स्थिति स्पष्ट (Clarifying Vidarbha Industries)

    अपीलकर्ता ने Vidarbha Industries Power Ltd. v. Axis Bank का हवाला दिया, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि NCLT “may admit” का प्रयोग कर सकता है और आवेदन को अस्वीकार भी कर सकता है। लेकिन बाद में Vidarbha केस में की गई समीक्षा (Review) में यह स्पष्ट कर दिया गया कि वह निर्णय केवल उस विशेष परिस्थिति तक सीमित था और इसे सामान्य सिद्धांत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। सुरेश कुमार रेड्डी केस में कोर्ट ने दृढ़ता से कहा कि Vidarbha को Innoventive और Krishnamurthy के विपरीत नहीं माना जा सकता।

    NCLT की भूमिका (NCLT's Role): प्रारंभिक स्तर पर सीमित कार्य

    कोर्ट ने यह दोहराया कि आवेदन को स्वीकार करते समय NCLT की भूमिका केवल यह जांचने तक सीमित है कि क्या कर्ज था और क्या भुगतान नहीं हुआ। NCLT को यह नहीं देखना चाहिए कि कंपनी अब कैसे चल रही है, या उसकी व्यावसायिक स्थिति क्या है। IBC को समयबद्ध समाधान (Time-Bound Resolution) के लिए बनाया गया है और अगर ट्रिब्यूनल को अधिक विवेक का अधिकार दिया जाए, तो पूरा उद्देश्य विफल हो जाएगा।

    बैंक गारंटी और ओवरड्राफ्ट भी फाइनेंशियल डेब्ट (Bank Guarantee and Overdraft as Financial Debt)

    कोर्ट ने कहा कि बैंक गारंटी (Bank Guarantee), ओवरड्राफ्ट (Overdraft) और अन्य फंड-आधारित (Fund-Based) या नॉन-फंड-आधारित (Non-Fund-Based) उधार व्यवस्थाएं, जो चुकाई नहीं गई हों, उन्हें भी फाइनेंशियल डेब्ट माना जाएगा। यदि इनका भुगतान नहीं होता, तो यह IBC के तहत डिफॉल्ट माना जाएगा और CIRP शुरू किया जा सकता है।

    आंतरिम आदेश बाधा नहीं बन सकते (Interim Orders Not a Barrier)

    मामले में यह तर्क दिया गया था कि तेलंगाना हाईकोर्ट का एक अंतरिम आदेश था, जिसने बैंक को कोरसिव रिकवरी (Coercive Recovery) से रोका था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई भी अंतरिम आदेश यह साबित नहीं करता कि कर्ज देय नहीं है या डिफॉल्ट नहीं हुआ है। साथ ही, सरकार की ओर से दिए गए पत्र जो बैंक गारंटी को आगे बढ़ाने की सलाह देते हैं, वे भी कंपनी को राहत नहीं दे सकते यदि उसका कर्ज चुकाया नहीं गया हो।

    विवेक (Discretion) केवल उचित कारण पर आधारित हो

    हालांकि धारा 7(5) में “may admit” शब्द का प्रयोग हुआ है, कोर्ट ने कहा कि यह केवल उन मामलों के लिए है जहां आवेदन अधूरा हो या तकनीकी रूप से त्रुटिपूर्ण हो। लेकिन जब कर्ज और डिफॉल्ट दोनों सिद्ध हो जाते हैं, तो ट्रिब्यूनल के पास कोई कारण नहीं बचता कि वह आवेदन को अस्वीकार करे। विवेक का उपयोग तभी किया जा सकता है जब अत्यंत विशेष परिस्थितियां मौजूद हों।

    एम. सुरेश कुमार रेड्डी बनाम केनरा बैंक का यह निर्णय IBC प्रणाली में स्पष्टता और अनिवार्यता को मजबूत करता है। यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि अगर कर्ज है और डिफॉल्ट हुआ है, तो ट्रिब्यूनल को आवेदन स्वीकार करना ही होगा। इससे वित्तीय लेन-देन में अनुशासन (Discipline) आता है और कर्जदाता को शीघ्र समाधान का रास्ता मिलता है।

    यह फैसला Vidarbha Industries की गलत व्याख्याओं को भी स्पष्ट करता है और यह तय करता है कि Section 7 का उद्देश्य विवादों की गहराई में जाना नहीं, बल्कि डिफॉल्ट के आधार पर समाधान की प्रक्रिया शुरू करना है। अब NCLT की भूमिका इस स्तर पर बिल्कुल स्पष्ट है – यदि फाइनेंशियल डेब्ट और डिफॉल्ट मौजूद हैं, तो इनसॉल्वेंसी की प्रक्रिया अवश्य शुरू होनी चाहिए।

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