क्या राज्य पारंपरिक पशु खेलों जैसे जल्लीकट्टू को संवैधानिक अधिकारों और पशु कल्याण कानूनों का उल्लंघन किए बिना वैध बना सकते हैं?

Himanshu Mishra

6 Jun 2025 5:16 PM IST

  • क्या राज्य पारंपरिक पशु खेलों जैसे जल्लीकट्टू को संवैधानिक अधिकारों और पशु कल्याण कानूनों का उल्लंघन किए बिना वैध बना सकते हैं?

    मूल संवैधानिक और कानूनी प्रश्न (Core Constitutional and Legal Question)

    सुप्रीम कोर्ट ने एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2023) के ऐतिहासिक निर्णय में यह तय किया कि क्या तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्य पारंपरिक पशु खेलों—जैसे जल्लीकट्टू, कम्बाला और बैलगाड़ी दौड़—को वैध कर सकते हैं, जबकि ए. नागराजा (2014) निर्णय में इन्हें अमानवीय (Cruel) और अवैध घोषित किया गया था।

    इस निर्णय में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि क्या इन खेलों को सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) कहकर वैध बनाना भारत के संविधान और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 (Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960) के तहत स्वीकार्य है।

    पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 196 और उसकी व्याख्या (PCA Act and Its Interpretation)

    यह अधिनियम भारतीय संसद द्वारा बनाया गया था, जिसका उद्देश्य है कि जानवरों पर अनावश्यक पीड़ा या कष्ट (Unnecessary Pain or Suffering) न डाला जाए। इसकी धारा 3, 11(1)(a) और 11(1)(m) मनुष्यों को यह कर्तव्य देती है कि वे जानवरों की देखभाल करें और उनके साथ क्रूरता न करें।

    ए. नागराजा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2014) के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जल्लीकट्टू जैसे खेल जानवरों के साथ क्रूरता करते हैं और इन्हें केवल पारंपरिक या सांस्कृतिक कह कर जायज नहीं ठहराया जा सकता।

    तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र द्वारा किए गए संशोधन (State Amendments)

    2014 के फैसले के बाद, इन राज्यों ने 2017 में अपने-अपने राज्य संशोधन अधिनियम बनाए। इन अधिनियमों ने जल्लीकट्टू, कम्बाला और बैलगाड़ी दौड़ जैसे खेलों को "सांस्कृतिक विरासत" बताया और इन्हें PCA अधिनियम की कुछ धाराओं से छूट दी।

    तमिलनाडु संशोधन अधिनियम ने अधिनियम में धारा 28A जोड़ी, जिसमें कहा गया कि PCA अधिनियम की कोई भी धारा जल्लीकट्टू पर लागू नहीं होगी। इसी तरह, कर्नाटक और महाराष्ट्र ने भी ऐसे ही संशोधन किए और राष्ट्रपति की सहमति (Presidential Assent) प्राप्त की, जैसा कि संविधान की धारा 254(2) में प्रावधान है।

    प्रमुख संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या (Interpretation of Key Constitutional Provisions)

    मामले का मूल प्रश्न यह था कि क्या ये संशोधन विधायी शक्ति (Legislative Competence) के अंतर्गत आते हैं और क्या ये "Colourable Legislation" हैं—यानी ऐसे कानून जो दिखाने को कुछ और हैं, लेकिन असल में कोई असंवैधानिक उद्देश्य साधते हैं।

    सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ये राज्य संशोधन संविधान के अनुच्छेद 29 (Cultural Rights) और समवर्ती सूची (Concurrent List) की एंट्री 17 के अंतर्गत वैध हैं। अदालत ने यह भी कहा कि क्या कोई परंपरा सांस्कृतिक विरासत है या नहीं, यह तय करने के लिए न्यायपालिका नहीं बल्कि विधायिका (Legislature) अधिक उपयुक्त है।

    क्या जानवरों को मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) मिल सकते हैं?

    याचिकाकर्ताओं ने यह भी दलील दी कि जानवरों को भी अनुच्छेद 21 (Right to Life) के तहत "व्यक्तित्व" (Personhood) दिया जाना चाहिए, ताकि उनके साथ क्रूरता एक मौलिक अधिकार का उल्लंघन मानी जाए।

    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय संविधान में जानवरों को अभी तक ऐसा कोई मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है। हां, अनुच्छेद 51A(g) और (h) के तहत नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे जीवों के प्रति दया और करुणा रखें, लेकिन इससे जानवरों को स्वयं अधिकार नहीं मिलते।

    रंगा-रंगी कानून और न्यायिक समीक्षा (Colourable Legislation and Judicial Review)

    याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि राज्य सरकारों द्वारा किए गए संशोधन ए. नागराजा निर्णय को दरकिनार करने का प्रयास हैं, जबकि उसके द्वारा बताए गए दोषों को दूर नहीं किया गया। यह विधायी प्रक्रिया संविधान के विरुद्ध कही गई और इसे "Colourable Legislation" कहा गया।

    अदालत ने इन तर्कों को खारिज किया और कहा कि जब राज्य ने विधायिका के माध्यम से सांस्कृतिक उद्देश्य को मान्यता दी है और राष्ट्रपति की सहमति मिल चुकी है, तो कोर्ट को इसका सम्मान करना चाहिए। साथ ही, नए नियमों और गाइडलाइनों में पशुओं की सुरक्षा के लिए अनेक प्रावधान जोड़े गए हैं, जैसे — तेज वस्तु से मारना, मिर्ची डालना, पूंछ मरोड़ना आदि स्पष्ट रूप से वर्जित (Prohibited) हैं।

    ए. नागराज निर्णय के साथ न्यायिक सामंजस्य (Judicial Harmony with Past Decisions)

    ए. नागराज निर्णय ने जल्लीकट्टू को पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया था। परंतु संविधान पीठ ने यह देखा कि अब राज्य विधायिका ने नए नियमों के साथ उन दोषों को सुधारने की कोशिश की है।

    अदालत ने कहा कि कानून हमेशा सामाजिक परिस्थितियों (Social Context) के साथ बदलता है। यदि आज नए संशोधनों में पशुओं की सुरक्षा सुनिश्चित की गई है, तो केवल पुराने निर्णय के आधार पर उसे रोका नहीं जा सकता।

    पशु कल्याण और सांस्कृतिक अधिकारों के बीच संतुलन (Balancing Animal Welfare and Cultural Rights)

    यह मामला वास्तव में दो संवैधानिक मूल्यों के बीच संतुलन का था—एक ओर पशु कल्याण (Animal Welfare) और दूसरी ओर सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं की रक्षा (Cultural Preservation)।

    सुप्रीम कोर्ट ने न तो पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया, न ही पूरी तरह छूट दी। उसने इन खेलों को नियंत्रित (Regulated) रूप में अनुमति दी, जिसमें पशुओं को अनावश्यक कष्ट न हो, इसका प्रबंध किया गया है। यह “सख्त विनियमन” (Strict Regulation) और “निषेध” (Prohibition) के बीच का रास्ता है।

    एनिमल वेलफेयर बोर्ड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2023) का निर्णय इस बात का प्रतीक है कि कैसे न्यायपालिका और विधायिका के अधिकारों में संतुलन बनाया जा सकता है। कोर्ट ने माना कि जब एक कानून संविधान के तहत सही प्रक्रिया से बना हो, और उसमें पर्याप्त सुरक्षा प्रावधान हों, तो उसे रद्द नहीं किया जाना चाहिए।

    इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि न्यायिक निर्णय स्थायी नहीं होते, और समय के साथ सामाजिक जरूरतों, सांस्कृतिक मान्यताओं और विधायी निर्णयों के साथ उनका संतुलन ज़रूरी है। पशु कल्याण ज़रूरी है, लेकिन परंपराओं को उचित रूप में बनाए रखना भी संविधान के मूल्यों का हिस्सा है।

    इस प्रकार, यह निर्णय “सांस्कृतिक अधिकार बनाम पशु अधिकार” की बहस में एक समन्वयकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है—जो न न्यायिक अधिकारों की सीमा लांघता है, न विधायी स्वायत्तता की उपेक्षा करता है।

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