क्या किसी एक मुद्दे (सिविल) पर बार-बार मुकदमा दायर किया जा सकता है?

Idris Mohammad

30 July 2021 10:57 AM GMT

  • क्या किसी एक मुद्दे (सिविल) पर बार-बार मुकदमा दायर किया जा सकता है?

    Res Judicata (पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित) का सिद्धांत

    मुक़दमे दायर करने सम्बन्धी सवालों में एक सवाल बहुत आम है, वो यह है कि क्या एक ही मुद्दे पर बार-बार मुकदमा दायर किया जा सकता है। क्या किसी भी विवाद का कोई अन्त होता है या फिर किसी भी मुद्दे को जीवन भर बार-बार न्यायालयों में ताउम्र खींचा जा सकता है।

    क्या किसी कानून के तहत एक बार न्यायालय द्वारा हल किये गए विवाद को आखिरी माना जा सकता है। इन सब सवालों से सम्बंधित है - पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत। अंग्रेजी में इसे Res Judicata का सिद्धान्त कहा जाता है।

    "Res" शब्द का अर्थ है "विषय वस्तु" और "Judicata" का अर्थ है "निर्णयित" या "निर्णय लिया गया"। वाक्यांश के रूप में इसका अर्थ निर्णयित किया गया मामला है। इसे निर्णायकता का नियम भी कहा जाता है। रेस-जुडिकाटा के सिद्धांत का दुनिया के विभिन्न हिस्सों और भारत में कानूनी व्यवस्था में लंबा इतिहास है।

    इस सिद्धांत की जड़ें रोमन कानूनी प्रणाली और अन्य प्राचीन कानूनी प्रणालियों में हैं। U.S.A. ने भी अपने सातवें संशोधन में इस सिद्धांत को शामिल किया। इंग्लैंड में यह सिद्धांत मौजूद रहा है किन्तु अव्यवस्थित तरीके से। लेकिन बाद में इंग्लैंड ने अपनी कानूनी व्यवस्था के आधार पर इस सिद्धांत को विकसित किया।

    भारत में इस सिद्धांत को पहले पूर्व न्याय के रूप में जाना जाता है जिसका अर्थ है पूर्व निर्णय। आधुनिक भारतीय कानूनी प्रणाली ने इस सिद्धांत को इंग्लैंड की सामान्य कानून प्रणाली से अपनाया और रेस-जुडिकाटा के प्राचीन रूपों को बदल दिया गया।

    Res-Judicata के सिद्धांत को सिविल सूट, मध्यस्थता कार्यवाही, कराधान मामलों, औद्योगिक निर्णयों, रिट याचिकाओं, प्रशासनिक आदेश, अंतरिम आदेश, आपराधिक कार्यवाही आदि में लागू किया जा रहा है। यह सिद्धांत सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत सर्वग्राही नहीं है।

    उद्देश्य:

    रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत मुकदमों को जल्द से जल्द समाप्त करने की दृष्टि से व्यापक जनहित में प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धांत को न्याय, समानता और एक अच्छे विवेक के आधार पर प्रतिपादित किया गया है, जिसके लिए एक ही मुद्दे को शामिल करते हुए एक पक्षकार को कई बार परेशान नहीं करने की आवश्यकता होती है।

    भारत में न्यायिक प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के तहत "पूर्व न्याय" का नियम निहित है जो इस सिद्धांत को वैधानिक रूप में निर्धारित करता है। यह नियम सार्वजनिक नीति और न्यायिक निर्णयों को अंतिम रूप देने की आवश्यकता पर आधारित है।

    Res-Judicata के घटक:

    (1) Res-Judicata के नियम को साबित करने के लिए बाद के मुकदमे में पक्षकारों को समान होना चाहिए या उन्हीं पार्टियों के बीच होना चाहिए जिनके तहत उनका दावा / मुकदमा था।

    (2) Res-Judicata के नियम को साबित करने के लिए मुकदमा लड़ने वाले पक्षकारों द्वारा शीर्षक समान होना चाहिए।

    (3) न्यायालयों को सभी पक्षों को गुण-दोष के आधार पर सुनना चाहिए और गुण-दोष के आधार पर अपना निर्णय देना चाहिए।

    (4) धारा -11, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 को आकर्षित करने के लिए विवाद की विषय वस्तु पूर्व और बाद के मुकदमों में समान होनी चाहिए।

    रेस-जुडिकाटा का सिद्धांत निन्मलिखित रोमन सिद्धांतों से उत्पन्न हुआ है:

    1. Nemo debet lis vaxari pro eadem cause - किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिए।

    2. Interest republicae ut sit finis litium - यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी का अंत होना चाहिए

    3. Re judicata pro veritate occipitur - न्यायालय के निर्णय को सत्य मानना चाहिए।

    सत्यध्यान घोषाल बनाम देवराजिन देवी [1960 SCR (3) 590] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत की व्याख्या निन्मलिखित रूप से की:

    "Res Judicata का सिद्धांत न्यायिक निर्णयों को अंतिम रूप देने की आवश्यकता पर आधारित है। यह कहता है कि एक बार जब कोई निर्णय न्यायिक हो जाता है, तो उस पर फिर से निर्णय नहीं लिया जाएगा। मुख्य रूप से यह पिछले मुकदमेबाजी और भविष्य के मुकदमेबाजी के बीच के रूप में लागू होता है।

    जब कोई मामला - तथ्य के प्रश्न पर या कानून के प्रश्न पर - एक मुकदमे या कार्यवाही में दो पक्षों के बीच निर्णय लिया गया है और निर्णय अंतिम है, या तो उच्च न्यायालय में कोई अपील नहीं की गई थी या क्योंकि अपील खारिज कर दी गई थी, या कोई अपील नहीं है, किसी भी पक्ष को भविष्य के मुकदमे में या उसी पक्ष के बीच मामले को फिर से दायर करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

    न्यायिक प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में वादों के संबंध में Res Judicata का यह सिद्धांत सन्निहित है; लेकिन यहां तक कि जहां धारा 11 लागू नहीं होती है, मुकदमेबाजी में अंतिमता प्राप्त करने के उद्देश्य से न्यायालयों द्वारा रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत को लागू किया गया है। इसका परिणाम यह होता है कि मूल न्यायालय के साथ-साथ किसी भी उच्च न्यायालय को भविष्य के किसी भी मुकदमे में इस आधार पर आगे बढ़ना चाहिए कि पिछला निर्णय सही था।

    Res Judicata का सिद्धांत एक ही मुकदमे में दो चरणों के बीच इस हद तक भी लागू होता है कि एक अदालत, चाहे निचली अदालत हो या उच्च न्यायालय, ने पहले चरण में एक मामले में एक तरह से फैसला किया हो, पार्टियों को फिर से मुकदमेबाज़ी करने की अनुमति नहीं देगा।"

    दरियाव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [AIR 1961 SC 1457] के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालयों द्वारा सुनाए गए निर्णयों का बाध्यकारी चरित्र स्वयं कानून के शासन का एक अनिवार्य हिस्सा है, और कानून का शासन स्पष्ट रूप से न्यायिक प्रशासन का आधार जिस पर संविधान इतना जोर देता है।

    न्यायालय ने इस प्रकार यह माना कि Res Judicata का नियम संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका पर भी लागू होता है और यदि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता द्वारा दायर याचिका को गुणदोष के आधार पर खारिज कर दिया जाता है, तो ऐसा निर्णय Res Judicata के तहत कार्य करेगा ताकि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में इसी तरह की याचिका पर रोक लगाई जा सके।

    Res Judicata के लिए पूर्वापेक्षाएं:

    1. सक्षम अदालत या ट्रिब्यूनल द्वारा न्यायिक निर्णय

    2. अंतिम और बाध्यकारी

    3. गुण-दोष के आधार पर लिया गया कोई भी निर्णय

    4. निष्पक्ष सुनवाई

    5. पहले का निर्णय चाहे सही या गलत हो

    MSM शर्मा बनाम डॉ श्री कृष्णा [AIR 1960 SC 1186] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहली दफा निर्धारित किया कि Res Judicata के सामान्य सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत दायर की गई एक रिट याचिका पर भी लागू होते है।

    विट्ठल यशवंत बनाम सिकंदर खान [AIR 1963 SC 385] के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि यदि पार्टियों के बीच किसी भी मामले में अंतिम निर्णय एक से अधिक बिंदुओं पर अपने फैसलों पर अदालत द्वारा आधारित है- जिनमें से प्रत्येक अपने आप में अंतिम के लिए पर्याप्त होगा निर्णय- इनमें से प्रत्येक बिंदु पर निर्णय पक्षों के बीच निर्णय के रूप में कार्य करता है।

    कंस्ट्रक्टिव Res Judicata (Constructive Res Judicata):

    सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में कंस्ट्रक्टिव Res Judicata, दरअसल Res Judicata का एक कृत्रिम रूप है। कंस्ट्रक्टिव Res Judicata की स्थिति में यदि किसी पक्ष द्वारा उसके और प्रतिवादी के बीच की कार्यवाही में एक दलील दी गई है, तो उसे उसी मामले के संदर्भ में निम्नलिखित कार्यवाही में उसी पक्ष के खिलाफ याचिका लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

    यह उन जन नीतियों का विरोध करता है जिन पर न्यायनिर्णय का सिद्धांत आधारित है। यह उस स्थिति को प्रेरित करेगा जिसमे प्रतिवादी को उत्पीड़न और कठिनाई होगी। कंस्ट्रक्टिव Res Judicata का नियम उच्च मानक स्थापित करने में मदद करता है। इसलिए इस नियम को कंस्ट्रक्टिव Res Judicata के नियम के रूप में जाना जाता है जो वास्तव में न्याय न्याय के सामान्य सिद्धांतों के संवर्धन का एक पहलू है।

    उत्तर प्रदेश राज्य बनाम नवाब हुसैन [AIR 1977 SC 1680]: M. एक पुलिस में एक सब-इंस्पेक्टर था और उसे डी.आई.जी ने सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। उन्होंने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर बर्खास्तगी के आदेश को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा कि आदेश पारित होने से पहले उन्हें सुनवाई का उचित अवसर नहीं मिला। हालांकि, इस तर्क को नकार दिया गया और याचिका खारिज कर दी गई।

    उन्होंने इस आधार पर फिर से एक याचिका दायर की कि उन्हें आई.जी.पी. द्वारा नियुक्त किया गया है और डी.आई.जी. को उसे बर्खास्त करने की कोई शक्ति नहीं थी। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि मामला को कंस्ट्रक्टिव Res Judicata से प्रतिबंधित है।

    हालांकि, ट्रायल कोर्ट, प्रथम अपीलीय अदालत के साथ-साथ उच्च न्यायालय ने माना कि वाद Res Judicata से प्रतिबंधित नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह मुकदमा कंस्ट्रक्टिव Res Judicata से प्रतिबंधित था क्योंकि याचिका वादी, M के ज्ञान में थी और वह अपने पहले के मुकदमे में यह तर्क ले सकता था।

    सिद्धांत के अपवाद:

    सुप्रीम कोर्ट ने राजू रामसिंह वासवे बनाम महेश देओराव भिवापुरकर [(2008) 9 SCC 54] के मामले में पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित के सिद्धांत के निम्नलिखित तीन अपवाद निर्धारित किए।

    (1) जब फैसला / निर्णय बिना अधिकार-क्षेत्र के पारित किया गया हो।

    (2) जब मुक़दमे में पूर्ण रूप से कानून सम्बन्धी सवाल उप्तन्न हो।

    (3) जब फैसला / निर्णय न्यायालय के साथ धोखाधड़ी करके प्राप्त किया गया हो।

    आपराधिक मामलों में इस सिद्धांत को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फातिमा बीबी अहमद पटेल बनाम गुजरात राज्य [(2008) 6 SCC 789] के मामले में यह बताया गया कि पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत अपराधिक / फौज़दारी के मामलों में लागू नहीं होता है।

    किन्तु इसके अलावा जब कानून में किसी तरह का बदलाव आ जाए तो पक्षकरों को कुछ नए अधिकार प्राप्त हो जाते है और उस स्थिति में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 इस प्रकार दायर किये गए मुकदमों में किसी भी तरह का प्रतिबन्ध नहीं लगाती है।

    अगर पक्षकारों के मध्य में किसी नए तरह का वादकरण उत्पन्न हो जाए तो भी धारा 11 के तहत किसी भी तरह का प्रतिबन्ध नहीं होता है। यह ध्यान में रखना अतिआवश्यक है कि न्यायालय द्वारा पारित फैसले में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन पूरी तरह किया गया हो।

    बन्दी प्रत्यक्षीकरण के मामले में पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत:

    सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ग़ुलाम सरवर बनाम भारत संघ (AIR 1967 SC 1335) के मामले में पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित के सिद्धांत की बन्दी प्रत्यक्षीकरण के मामले में प्रयोज्यता की व्याख्या की।

    "जहां तक उच्च न्यायालयों का संबंध है, पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित के सिद्धांत की प्रयोज्यता बन्दी प्रत्यक्षीकरण के रिट मामले में लागू नहीं होती है। ब्रितानी और अमेरिकी न्यायालयों द्वारा स्वीकार किए गए सिद्धांत, अर्थात Res Judicata बंदी प्रत्यक्षीकरण के रिट में लागू नहीं होता, एक अच्छा सिद्धांत है। लेकिन इंग्लैंड के विपरीत, भारत में हिरासत में लिया गया व्यक्ति उच्च न्यायालय के अलावा किसी अन्य न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट में) के समक्ष स्वतंत्रता के अपने मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए मूल याचिका दायर कर सकता है। जैसा कि अंग्रेजी और अमेरिकी न्यायालयों द्वारा धारित किया गया है कि इस तरह के मामले में उच्च न्यायालय का आदेश पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत से प्रभावित नहीं होगा क्योंकि यह या तो निर्णय ही नहीं है या क्योंकि न्यायिकता का सिद्धांत मौलिक रूप से कानूनविहीन आदेश पर लागू नहीं होता है।"

    निष्कर्ष:

    पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत कानून की दृष्टि में नागरिकों को उनके अधिकारों से सम्बंधित दिए गए न्याय्रिक फैसलों को ताउम्र वैधता देता है। किन्तु इसे अपील करने के अधिकार से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। अपील किसी भी न्यायिक फैसले से व्यथित होकर दाखिल किया गया आवेदन है जो कि उस न्यायिक फैसले को कानूनी आधार पर चुनौती देता है। पूर्व न्याय / निर्णय न्यायोचित का सिद्धांत सामान्य रूप से मुकदमेबाजी पर पूर्ण रूप से पूर्ण विराम लगता है और कानून के दुरूपयोग से बचाता है। तथा न्यायिक प्रणाली में नागरिकों का भरोसा बढ़ता है।

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