क्या विधायक विधानसभा में आपराधिक कार्यों के लिए विशेषाधिकार का दावा कर सकते हैं?
Himanshu Mishra
3 Dec 2024 5:23 PM IST
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए केरल विधानसभा हंगामा मामला (Kerala Legislative Assembly Ruckus Case) में यह स्पष्ट किया गया कि विधायकों (MLAs) को संविधान के अनुच्छेद 194 (Article 194) के तहत जो विशेषाधिकार मिलते हैं, वे उन्हें आपराधिक कार्यों से बचाने के लिए नहीं हैं।
इस निर्णय ने सार्वजनिक हित (Public Interest) और कानून के शासन (Rule of Law) के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है।
प्रमुख विधिक प्रावधान और मुद्दे (Key Legal Provisions and Issues)
इस मामले में जिन मुख्य प्रावधानों पर विचार किया गया, वे हैं:
1. अनुच्छेद 194 (Article 194): यह विधायकों को विधानसभा के अंदर किए गए कार्यों के लिए कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन यह सुरक्षा केवल उनके विधायी कार्यों तक सीमित है।
2. सीआरपीसी (CrPC) की धारा 321 (Section 321): यह सार्वजनिक अभियोजक (Public Prosecutor) को कोर्ट की अनुमति से मुकदमा वापस लेने का अधिकार देती है, यदि ऐसा करना न्याय और सार्वजनिक हित में हो।
3. सार्वजनिक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम, 1984 (Prevention of Damage to Public Property Act, 1984): यह अधिनियम सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराने का प्रावधान करता है, चाहे वह विधानसभा परिसर के भीतर ही क्यों न हो।
न्यायालय की दलीलें (Judicial Reasoning)
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) डी. वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व में दिए गए इस निर्णय ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया:
1. विधायी विशेषाधिकार बनाम आपराधिक उत्तरदायित्व (Legislative Privileges vs. Criminal Accountability)
अदालत ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 194 के तहत मिलने वाले विशेषाधिकार विधायकों को किसी भी तरह के हिंसक या अवैध कार्यों से बचाने के लिए नहीं हैं। पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (P.V. Narasimha Rao v. State) के निर्णय का हवाला देते हुए, यह कहा गया कि ये विशेषाधिकार केवल विधायी कार्यों को स्वतंत्र रूप से करने के लिए दिए गए हैं।
अदालत ने ब्रिटिश मामलों, जैसे आर बनाम चैटर (R v. Chaytor) से तुलना की, जिसमें यह तय किया गया था कि "साधारण अपराध" (Ordinary Crimes), जो विधायकों के अनिवार्य विधायी कार्यों से संबंधित नहीं हैं, उन्हें विशेषाधिकारों का संरक्षण नहीं मिल सकता।
2. सार्वजनिक अभियोजक की भूमिका (Role of the Public Prosecutor)
सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मुकदमा वापस लेने की अनुमति सार्वजनिक हित में दी जा सकती है। लेकिन अदालत ने पाया कि इस मामले में अभियोजक (Prosecutor) ने स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं लिया था और बाहरी दबाव से प्रभावित था। अदालत ने शेओनंदन पासवान बनाम बिहार राज्य (Sheonandan Paswan v. State of Bihar) जैसे मामलों में स्थापित सिद्धांतों पर जोर दिया, जहां कहा गया था कि मुकदमे की वापसी केवल न्यायिक और सार्वजनिक हित के लिए होनी चाहिए।
3. अध्यक्ष की अनुमति (Sanction of the Speaker)
अदालत ने स्पष्ट किया कि विधानसभा परिसर में हुए आपराधिक कृत्यों के लिए मुकदमा चलाने में अध्यक्ष (Speaker) की अनुमति की आवश्यकता हमेशा नहीं होती। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सार्वजनिक व्यवस्था और जवाबदेही बनी रहे, यह नियम आवश्यक रूप से लागू नहीं किया जा सकता।
4. सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान (Damage to Public Property)
विधानसभा के भीतर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के कृत्यों को सार्वजनिक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम के तहत देखा गया। अदालत ने कहा कि इन कृत्यों को राजनीतिक प्रदर्शन (Political Protest) के रूप में न्यायोचित ठहराकर अभियोजन से बचाया नहीं जा सकता। इस संदर्भ में अदालत ने बैराम मुरलीधर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (Bairam Muralidhar v. State of Andhra Pradesh) के निर्णय का भी हवाला दिया।
व्यापक प्रभाव (Broader Implications)
इस निर्णय के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव हैं:
1. कानून का शासन बनाए रखना (Upholding Rule of Law): विधायी विशेषाधिकार संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिए और कानून से बचने के लिए इनका उपयोग नहीं किया जा सकता।
2. न्यायिक पर्यवेक्षण (Judicial Supervision): यह सुनिश्चित करने के लिए अदालतें अपने पर्यवेक्षी अधिकार (Supervisory Jurisdiction) का उपयोग कर सकती हैं कि अभियोजक स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे हैं।
3. सार्वजनिक जवाबदेही (Public Accountability): विधायकों को जनता के प्रतिनिधि के रूप में सार्वजनिक विश्वास बनाए रखना चाहिए और लोकतांत्रिक संस्थानों की गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
केरल विधानसभा हंगामा मामला विधायी विशेषाधिकारों की सीमाओं को स्पष्ट करता है। यह निर्णय न्यायपालिका की उस भूमिका को रेखांकित करता है, जो यह सुनिश्चित करती है कि विशेषाधिकारों का दुरुपयोग कर आपराधिक गतिविधियों को छिपाया न जाए। इस प्रकार, यह निर्णय सार्वजनिक जवाबदेही और कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल स्थापित करता है।