क्या केवल प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना यूएपीए के तहत अपराध माना जा सकता है?
Himanshu Mishra
30 April 2025 6:39 PM IST

परिचय: कोर्ट के सामने उठे मौलिक संवैधानिक सवाल (Fundamental Constitutional Issues)
सुप्रीम कोर्ट ने अरूप भुइयां बनाम असम राज्य (2023) के निर्णय में एक बेहद अहम सवाल पर विचार किया — क्या केवल किसी प्रतिबंधित संगठन (Banned Organization) का सदस्य (Member) होने मात्र से कोई व्यक्ति अपराधी माना जा सकता है? यह मामला Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967 (UAPA) की धारा 10(अ)(i) (Section 10(a)(i)) की वैधता और व्याख्या (Interpretation) से जुड़ा था।
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब किसी संगठन को वैधानिक प्रक्रिया (Legal Process) द्वारा प्रतिबंधित (Unlawful) घोषित कर दिया गया हो, तो उस संगठन का सदस्य बना रहना अपने आप में अपराध (Crime) होगा, भले ही उस व्यक्ति ने कोई हिंसक या आपराधिक कार्य न किया हो। यह निर्णय नागरिक अधिकारों (Individual Rights) और राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के बीच संतुलन स्थापित करता है।
धारा 10(अ)(i) UAPA का मतलब (Meaning of Section 10(a)(i) of UAPA)
UAPA की यह धारा कहती है कि यदि किसी संगठन को धारा 3 (Section 3) के तहत प्रतिबंधित (Unlawful) घोषित कर दिया गया है और वह घोषणा न्यायाधिकरण (Tribunal) द्वारा पुष्टि (Confirmation) के बाद प्रभावी हो गई है, तो उस संगठन का सदस्य "जो है और बना रहता है" (Is and Continues to be a Member), उसे दो साल तक की कैद और जुर्माने की सजा दी जा सकती है।
यह “जो है और बना रहता है” वाली भाषा दर्शाती है कि अपराध केवल पूर्व सदस्यता (Past Membership) पर नहीं, बल्कि उस सदस्यता को जारी रखने पर आधारित है, जबकि व्यक्ति को पता होता है कि संगठन प्रतिबंधित है।
पिछले फैसलों को पलटना (Overruling Earlier Judgments)
इस निर्णय में कोर्ट ने पुराने फैसलों जैसे कि अरूप भुइयां (2011), रनीफ (2011) और इंद्रा दास (2011) को पलट दिया, जिनमें कहा गया था कि केवल सदस्यता (Mere Membership) को अपराध नहीं माना जा सकता जब तक व्यक्ति ने कोई हिंसक कार्य न किया हो। इन पुराने फैसलों में अमेरिकी अदालतों (American Courts) के निर्णयों का भारी सहारा लिया गया था।
2023 के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत और अमेरिका के संवैधानिक ढांचे (Constitutional Framework) में बुनियादी अंतर है। भारत में अनुच्छेद 19(1)(ग) (Article 19(1)(c)) द्वारा संघ बनाने का अधिकार है, लेकिन अनुच्छेद 19(4) (Article 19(4)) के तहत इस पर सीमाएं (Reasonable Restrictions) लगाई जा सकती हैं— जैसे कि भारत की अखंडता (Integrity) और संप्रभुता (Sovereignty) की रक्षा के लिए।
कानून की मंशा और राष्ट्रीय सुरक्षा (Legislative Intent and National Security)
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि UAPA जैसे कानूनों का मकसद भारत की अखंडता और सुरक्षा सुनिश्चित करना है। जब एक संगठन को कानूनी प्रक्रिया के तहत प्रतिबंधित घोषित किया गया हो, और एक व्यक्ति जानबूझकर उस संगठन का सदस्य बना रहता है, तो यह स्पष्ट इरादा दर्शाता है और वही इस धारा के तहत दंडनीय है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि कानून को पढ़ते समय उसकी स्पष्ट भाषा (Clear Language) और विधायिका की मंशा (Legislative Intent) का सम्मान किया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति सचेत रूप से प्रतिबंध के बावजूद संगठन से जुड़ा रहता है, तो यह अपराध माना जाएगा।
अमेरिकी 'Clear and Present Danger' सिद्धांत को खारिज करना (Rejection of American Doctrine)
कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत में अमेरिकी कानूनों के सिद्धांत जैसे कि Clear and Present Danger या Imminent Lawless Action लागू नहीं किए जा सकते। भारत के संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) पूर्ण (Absolute) नहीं हैं, बल्कि उचित सीमाओं (Reasonable Restrictions) के अधीन हैं।
इसलिए अमेरिकी फैसलों जैसे कि Scales v. United States और Elfbrandt v. Russell को सीधे भारतीय संदर्भ (Indian Context) में लागू नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने Babulal Parate, Dr. Ram Manohar Lohia और Ramlila Maidan Incident जैसे भारतीय फैसलों का हवाला देते हुए यह स्थापित किया कि विदेशी अवधारणाएं हमारे संवैधानिक ढांचे से मेल नहीं खातीं।
Mens Rea (आपराधिक मंशा) और अपराध की प्रकृति (Nature of the Offence)
इस मामले में एक बड़ा सवाल यह भी था कि क्या अपराध साबित करने के लिए Mens Rea (Criminal Intent) आवश्यक है। पुराने फैसलों में यह माना गया था कि सक्रिय सदस्यता (Active Membership) या हिंसा का इरादा (Intent to Violence) जरूरी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब कानून की भाषा स्पष्ट है और उसमें Mens Rea का उल्लेख नहीं है, तो कोर्ट को कोई अतिरिक्त तत्व जोड़ने का अधिकार नहीं है।
कोर्ट ने Subramanian Swamy v. Raju (2014) का हवाला देते हुए कहा कि जब तक किसी प्रावधान की भाषा अस्पष्ट (Ambiguous) न हो या वह संविधान के खिलाफ न हो, तब तक उसे "Read Down" नहीं किया जा सकता।
UAPA में मौजूदा सुरक्षा तंत्र (Safeguards in UAPA Framework)
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि UAPA में पहले से ही पर्याप्त सुरक्षा तंत्र (Safeguards) मौजूद हैं। किसी संगठन को प्रतिबंधित घोषित करने से पहले विस्तृत प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसमें संगठन को कारण बताने का अवसर (Opportunity to be Heard) भी दिया जाता है। यह प्रक्रिया निष्पक्ष न्याय (Fair Justice) के सिद्धांतों पर आधारित है।
इसके अतिरिक्त, केवल वे ही लोग दंड के पात्र होते हैं जो प्रतिबंध के बाद भी संगठन से जुड़े रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति संगठन से अलग हो जाता है, तो उस पर यह प्रावधान लागू नहीं होता।
प्रतिबंधित और आतंकवादी संगठन में अंतर (Difference Between Unlawful and Terrorist Organizations)
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 10 (Section 10) केवल प्रतिबंधित संगठनों (Unlawful Associations) पर लागू होती है, जबकि धारा 38 और 39 (Sections 38 & 39) आतंकवादी संगठनों (Terrorist Organizations) से संबंधित हैं। आतंकवादी संगठनों के मामलों में यह साबित करना जरूरी होता है कि व्यक्ति ने उनके उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का इरादा (Intent) रखा हो, लेकिन धारा 10 के तहत ऐसा कोई इरादा साबित करना जरूरी नहीं है।

