क्या बिना किसी अन्य साक्ष्य के सिर्फ Dying Declaration के आधार पर दोष सिद्ध किया जा सकता है?

Himanshu Mishra

7 Aug 2025 5:08 PM IST

  • क्या बिना किसी अन्य साक्ष्य के सिर्फ Dying Declaration के आधार पर दोष सिद्ध किया जा सकता है?

    प्रस्तावना (Introduction): Dying Declaration की वैधता और सीमा को दोबारा समझना

    Sharif Ahmed बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार किया कि क्या केवल Dying Declaration यानी मृत्युपूर्व बयान के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जा सकता है, जब उसके समर्थन में कोई अन्य स्वतंत्र साक्ष्य (Independent Evidence) मौजूद न हो। इस निर्णय में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि Section 32(1) of the Indian Evidence Act, 1872 के अंतर्गत आने वाले ऐसे बयानों को सावधानी से परखा जाना चाहिए और इन्हें बिना जांच के स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    धारा 32(1), भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Section 32(1) of Indian Evidence Act): अपवाद के रूप में Dying Declaration

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति मरने से पहले यह बताता है कि उसकी मृत्यु का कारण क्या था या किन परिस्थितियों में वह घायल हुआ, तो उस बयान को साक्ष्य (Evidence) के रूप में अदालत में स्वीकार किया जा सकता है। यह एक अपवाद (Exception) है, क्योंकि सामान्यतः जो व्यक्ति अदालत में मौजूद नहीं होता, उसका बयान स्वीकार नहीं किया जाता।

    Dying Declaration की मान्यता इस सोच पर आधारित है कि मरते समय व्यक्ति झूठ नहीं बोलता। लेकिन यह सिर्फ एक कानूनी धारणा (Legal Presumption) है इसका प्रयोग अंधाधुंध नहीं किया जा सकता। ऐसा बयान तभी मान्य होगा जब वह स्वेच्छा से (Voluntary), बिना दबाव के दिया गया हो और उसे रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया विश्वसनीय हो।

    केवल Dying Declaration पर आधारित दोषसिद्धि (Conviction): पुराने फैसलों से मार्गदर्शन

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कई पुराने महत्वपूर्ण फैसलों का ज़िक्र किया। Khushal Rao बनाम State of Bombay (AIR 1958 SC 22) में कहा गया कि यदि Dying Declaration विश्वसनीय और सत्य है, तो वह अकेले भी दोषसिद्धि का आधार बन सकता है। लेकिन हर मामले की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, इसलिए सावधानी आवश्यक है।

    इसी तरह Laxman बनाम महाराष्ट्र राज्य (2002) 6 SCC 710 में संविधान पीठ ने कहा कि यदि डॉक्टर का प्रमाणपत्र नहीं भी हो, तब भी यदि बयान रिकॉर्ड करने वाला व्यक्ति मानसिक स्थिति से संतुष्ट है तो बयान स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन उसने यह भी जोड़ा कि ऐसा बयान कल्पना या दबाव से मुक्त होना चाहिए।

    Puran Chand बनाम State of Haryana (2010) 6 SCC 566 में भी यह दोहराया गया कि ऐसे बयानों की सत्यता (Truthfulness) और बयान देने की परिस्थितियाँ (Circumstances) अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। इस प्रकार, न्यायालयों को हर बार यह देखना चाहिए कि Dying Declaration इतना स्पष्ट और निष्पक्ष हो कि उस पर अकेले भरोसा किया जा सके।

    मानसिक स्थिति और स्वतंत्रता (Mental Fitness and Voluntariness): बयान की वैधता के लिए अनिवार्य

    Sharif Ahmed के फैसले में न्यायालय ने विशेष ज़ोर दिया कि मृत्युपूर्व बयान देने वाले व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक स्थिति अच्छी होनी चाहिए। उसे अपने होश-हवास में होना चाहिए ताकि वह समझदारी से सवालों का जवाब दे सके।

    हालाँकि मेडिकल प्रमाणपत्र अनिवार्य नहीं है, लेकिन उसकी उपस्थिति से बयान की वैधता (Validity) और विश्वसनीयता (Credibility) को बल मिलता है। बयान रिकॉर्ड करने वाले अधिकारी चाहे मजिस्ट्रेट हो या पुलिसकर्मी को यह सुनिश्चित करना होता है कि बयान स्वतंत्र रूप से, बिना किसी दबाव के दिया गया हो।

    FIR, मेडिकल रिपोर्ट और चश्मदीद गवाह (Eyewitness): स्वतंत्र समर्थन का महत्व

    इस निर्णय में यह बात विशेष रूप से सामने आई कि मृत्युपूर्व बयान के समर्थन में कोई अन्य पुख्ता साक्ष्य (Supporting Evidence) नहीं था। FIR, मेडिकल रिपोर्ट और गवाहों के बयानों में विरोधाभास (Contradictions) थे।

    इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब Dying Declaration अकेला हो और उसके आस-पास के तथ्य संदेहास्पद हों, तो आरोपी को संदेह का लाभ (Benefit of Doubt) मिलना चाहिए। सिर्फ नाम लेने से व्यक्ति दोषी नहीं हो जाता, जब तक अन्य सबूत उससे मेल न खाएं।

    अनुच्छेद 21 (Article 21): जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक सुरक्षा

    न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लेख किया, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। इसमें निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का अधिकार भी शामिल है।

    अगर किसी व्यक्ति को केवल एक संदेहास्पद या संदिग्ध Dying Declaration के आधार पर दोषी ठहराया जाए, तो यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि दोषसिद्धि का आधार केवल ऐसा साक्ष्य होना चाहिए जो सभी कसौटियों पर खरा उतरता हो।

    आपराधिक न्याय प्रणाली का सिद्धांत (Standard of Proof): संदेह से परे दोष सिद्ध होना ज़रूरी

    इस फैसले में न्यायालय ने दोहराया कि आपराधिक मामलों में अभियोजन पक्ष पर यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह दोषी को "सभी संदेह से परे" (Beyond Reasonable Doubt) दोषी सिद्ध करे। यदि कोई भी तथ्य संदेह उत्पन्न करता है जैसे Dying Declaration की परिस्थितियाँ तो आरोपी को दोषमुक्त करना होगा।

    इसलिए, भले ही मृत्युपूर्व बयान स्पष्ट हो, जब तक वह अन्य साक्ष्यों से पुष्ट नहीं होता, उसे अकेले दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता।

    अंतिम निर्णय (Final Verdict): दोषसिद्धि को रद्द करना

    सुप्रीम कोर्ट ने यह पाते हुए कि मृत्युपूर्व बयान के समर्थन में कोई स्वतंत्र साक्ष्य नहीं है और बयान के रिकॉर्ड होने की प्रक्रिया पर संदेह है, आरोपी की दोषसिद्धि और सज़ा को रद्द कर दिया।

    न्यायालय ने कहा कि आपराधिक उत्तरदायित्व (Criminal Liability) सिर्फ उस स्थिति में तय किया जाना चाहिए जब सभी तथ्य स्पष्ट और सिद्ध हों किसी अनुमान या अप्रमाणिक बयान के आधार पर नहीं।

    Sharif Ahmed का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि Dying Declaration को क़ानून में विशेष स्थान मिला हुआ है, लेकिन उसे आंख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि वह अकेला साक्ष्य है, तो उसकी रिकॉर्डिंग, उसकी स्थिति, और समर्थन में अन्य साक्ष्य की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए ही निर्णय लिया जाना चाहिए।

    यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की मूल भावना न्याय, निष्पक्षता और प्रक्रिया की पवित्रता को मज़बूत करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए सज़ा न दी जाए कि वह मृत्युपूर्व बयान में आरोपी बताया गया था जब तक कि न्यायसंगत और विश्वसनीय प्रमाण उस पर दोष सिद्ध न कर दें।

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