क्या Dying Declaration से धारा 498A IPC के तहत क्रूरता साबित की जा सकती है?
Himanshu Mishra
29 Jan 2025 11:11 AM

सुप्रीम कोर्ट ने सुरेंद्रन बनाम केरल राज्य (2022) मामले में एक महत्वपूर्ण सवाल पर फैसला दिया कि क्या मृतक (Deceased) व्यक्ति के बयान को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 32(1) के तहत स्वीकार किया जा सकता है, खासकर जब आरोपी (Accused) को उसकी मृत्यु से संबंधित आरोपों से बरी कर दिया गया हो। यह मामला धारा 498A IPC (भारतीय दंड संहिता, 1860) के तहत क्रूरता (Cruelty) के आरोपों से जुड़ा था।
इस फैसले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किसी मृतक पत्नी के बयान को किस हद तक सबूत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। साथ ही, कोर्ट ने कई पुराने फैसलों को खारिज कर दिया, जिनमें यह कहा गया था कि अगर आरोपी को मृत्यु से जुड़े आरोपों से बरी कर दिया जाता है, तो मृतक के बयान को धारा 498A IPC के तहत सबूत के रूप में नहीं माना जा सकता।
अदालत द्वारा जांचे गए कानूनी प्रावधान (Legal Provisions Examined by the Court)
इस मामले में दो मुख्य प्रावधानों (Legal Provisions) पर चर्चा की गई:
1. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32(1) (Section 32(1) of Indian Evidence Act, 1872) – यह प्रावधान उन बयानों को सबूत के रूप में मान्यता देता है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए हैं, जो अब जीवित नहीं है, बशर्ते कि वे उसकी मृत्यु के कारण या उससे जुड़े हालात को दर्शाते हों।
2. भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A (Section 498A of Indian Penal Code, 1860) – यह प्रावधान पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा किसी महिला पर की गई क्रूरता को अपराध मानता है, खासकर जब वह आत्महत्या (Suicide) करने के लिए मजबूर हो या उसे गंभीर मानसिक या शारीरिक यातना दी गई हो।
अदालत ने इस बात पर विचार किया कि क्या मृतक महिला द्वारा अपने जीवनकाल में किए गए बयान को धारा 32(1) के तहत स्वीकार किया जा सकता है, भले ही आरोपी को उसकी मृत्यु से संबंधित आरोपों से बरी कर दिया गया हो।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) की व्याख्या (Interpretation of Section 32(1) of Evidence Act)
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि "जिस लेन-देन (Transaction) के हालात मृतक की मृत्यु से जुड़े हैं"—यह वाक्य बहुत व्यापक है और इसमें मृतक के द्वारा दिए गए वे बयान भी शामिल हो सकते हैं जो यह दर्शाते हैं कि उसे क्रूरता (Cruelty) झेलनी पड़ी थी। अदालत ने यह फैसला दिया कि किसी मृतक महिला द्वारा किया गया बयान निम्नलिखित स्थितियों में स्वीकार्य (Admissible) हो सकता है:
1. यदि उसकी मृत्यु से संबंधित प्रश्न अदालत में उठाया गया है, भले ही बाद में आरोपी को हत्या (Murder – धारा 302 IPC) या दहेज मृत्यु (Dowry Death – धारा 304B IPC) के आरोपों से बरी कर दिया जाए।
2. यदि बयान उस परिस्थिति से संबंधित है, जिसने मृतक की मृत्यु में योगदान दिया हो।
अदालत ने पाकला नारायण स्वामी बनाम किंग-एम्परर (1939) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि "जिस लेन-देन से मृत्यु हुई, उससे जुड़े हालात" का अर्थ यह नहीं है कि बयान सिर्फ मृत्यु के तुरंत पहले का ही हो, बल्कि यह पहले की घटनाओं को भी शामिल कर सकता है।
इसी तरह, शरद बिर्धिचंद सरदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई मृतक व्यक्ति अपनी मृत्यु से पहले क्रूरता की बात करता है और बाद में आत्महत्या कर लेता है, तो उसके बयान को धारा 32(1) के तहत स्वीकार किया जा सकता है।
पुराने फैसलों को खारिज करना (Overruling Earlier Precedents)
इस फैसले से पहले, सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह कहा था कि अगर आरोपी को मृत्यु से संबंधित आरोपों से बरी कर दिया जाता है, तो मृतक के बयान को धारा 498A IPC के तहत सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इन मामलों में शामिल थे:
• गणनाथ पटनायक बनाम ओडिशा राज्य (2002)
• इंदरपाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2001)
• भैरों सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2009)
• कांतिलाल मार्ताजी पंडोर बनाम गुजरात राज्य (2013)
इन मामलों में कहा गया था कि अगर किसी आरोपी को मृतक की हत्या या आत्महत्या से जुड़े आरोपों से बरी कर दिया जाता है, तो मृतक के बयान को धारा 498A IPC के तहत स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सुरेंद्रन बनाम केरल राज्य मामले में इन फैसलों को गलत ठहराते हुए उन्हें खारिज कर दिया।
धारा 32(1) के तहत स्वीकार्यता की कसौटी (Test for Admissibility Under Section 32(1))
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि धारा 32(1) के तहत किसी बयान को स्वीकार करने के लिए दो मुख्य शर्तें पूरी होनी चाहिए:
1. मृत्यु का कारण प्रश्नगत होना चाहिए (The Cause of Death Must Be in Question) – यदि अभियोजन (Prosecution) ने धारा 302, 306 या 304B IPC के तहत आरोप लगाए हैं, तो मृतक द्वारा दिए गए बयान स्वीकार किए जा सकते हैं, भले ही आरोपी को इन आरोपों से बरी कर दिया जाए।
2. बयान मृत्यु से जुड़े हालात से संबंधित होना चाहिए (The Statement Must Relate to the Circumstances of the Transaction Leading to Death) – यह अदालत को देखना होगा कि बयान और मृत्यु के बीच कितना संबंध (Connection) है। इसके लिए कोई सख्त नियम नहीं बनाया जा सकता।
इस विस्तृत व्याख्या (Interpretation) से यह सुनिश्चित होता है कि किसी महिला की क्रूरता संबंधी शिकायतें केवल इसलिए खारिज न की जाएं क्योंकि आरोपी को उसकी मृत्यु से जुड़े गंभीर आरोपों से बरी कर दिया गया है।
अभियोजन पक्ष के गवाहों की विश्वसनीयता (Reliability of Prosecution Witnesses)
अदालत ने अभियोजन पक्ष (Prosecution) के गवाहों की विश्वसनीयता (Credibility) पर भी चर्चा की। आरोपी ने यह तर्क दिया कि मृतक की माँ का बयान विश्वसनीय नहीं है क्योंकि वह "रुचि रखने वाली गवाह" (Interested Witness) हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि किसी गवाह का रिश्तेदार होना ही उसे अविश्वसनीय नहीं बना देता।
इलंगोवन बनाम तमिलनाडु राज्य (2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि रिश्तेदार गवाहों की गवाही को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि अदालत को सावधानीपूर्वक उनकी जांच करनी चाहिए। इसी तरह, सुधाकर बनाम राज्य (2018) मामले में भी अदालत ने यही सिद्धांत अपनाया था।
इस फैसले का प्रभाव (Implications of the Judgment)
इस फैसले से घरेलू हिंसा (Domestic Violence) और क्रूरता (Cruelty) के मामलों में अभियोजन पक्ष को मजबूती मिलेगी। इसके प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं:
• अब किसी मृतक महिला का बयान धारा 498A IPC के तहत स्वीकार किया जा सकता है, भले ही आरोपी को उसकी मृत्यु से जुड़े आरोपों से बरी कर दिया जाए।
• "मृत्यु से जुड़े हालात" (Circumstances of the Transaction Leading to Death) की परिभाषा अब अधिक व्यापक हो गई है, जिसमें पहले की घटनाएं भी शामिल की जा सकती हैं।
• पारिवारिक गवाहों (Family Witnesses) की गवाही को अधिक गंभीरता से लिया जाएगा, और उन्हें केवल इसलिए खारिज नहीं किया जाएगा क्योंकि वे मृतक के करीबी हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि क्रूरता से संबंधित सबूत केवल इसलिए खारिज न किए जाएं क्योंकि आरोपी को अधिक गंभीर आरोपों से बरी कर दिया गया है। इस फैसले से घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीड़न (Dowry Harassment) के मामलों में न्याय दिलाने में मदद मिलेगी।