क्या समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी विशेष कानूनों के तहत कर्ज वसूली हो सकती है?
Himanshu Mishra
13 Aug 2025 5:16 PM IST

भारतीय कानून में एक लंबे समय से यह सवाल उठता रहा है कि क्या कोई ऐसा कर्ज, जो Limitation Act, 1963 के तहत समय-सीमा समाप्त होने के कारण अदालत में वसूली योग्य नहीं रह गया है, फिर भी विशेष वसूली कानूनों के तहत वसूला जा सकता है। K.P. Khemka & Anr. v. Haryana State Industrial and Infrastructure Development Corporation Ltd. & Ors. (2024) में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार किया।
मामला Haryana Public Moneys (Recovery of Dues) Act, 1979 और State Financial Corporations Act, 1951 के संदर्भ में था। इसमें पहले के महत्वपूर्ण फैसलों जैसे V.R. Kalliyanikutty और Bombay Dyeing की समीक्षा की गई और यह जांचा गया कि क्या ये विशेष कानून सिर्फ वैकल्पिक वसूली प्रक्रिया (Alternative Recovery Mechanism) देते हैं या फिर समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी वसूली का नया अधिकार (Distinct Right) प्रदान करते हैं।
कानूनी सिद्धांत: समय-सीमा (Limitation) इलाज (Remedy) को रोकती है, अधिकार (Right) को नहीं
भारतीय कानून का स्थापित सिद्धांत है कि Limitation Act आमतौर पर केवल वसूली के कानूनी उपाय (Remedy) को रोकता है, लेकिन मूल अधिकार (Right) को समाप्त नहीं करता, सिवाय उन मामलों के जहाँ स्वत्व (Title) पर कब्जे से अधिकार मिल जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने Bombay Dyeing and Manufacturing Co. Ltd. v. State of Bombay (1958 SCR 1122) के संविधान पीठ निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि समय-सीमा केवल अदालत में दावा लाने का रास्ता रोकती है, परंतु कर्ज स्वयं बना रहता है।
लेकिन यहां असली सवाल यह था कि क्या SFC Act और Recovery of Dues Act के तहत वसूली को एक अलग कानूनी शक्ति (Distinct Legal Power) माना जा सकता है, जो सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर करने की समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी कायम रहती है।
V.R. Kalliyanikutty का सिद्धांत
State of Kerala v. V.R. Kalliyanikutty (1999) 3 SCC 657 में तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह तय किया था कि समय-सीमा समाप्त हो चुका कर्ज Kerala Revenue Recovery Act, 1968 के तहत वसूल नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि यह कानून केवल तेज वसूली की प्रक्रिया देता है, नया अधिकार (New Right) नहीं बनाता। इसलिए “Amounts Due” शब्द का मतलब केवल कानूनी रूप से वसूली योग्य (Legally Recoverable) कर्ज है। यह फैसला Hansraj Gupta v. Dehra Dun-Mussorie Electric Tramway Co. Ltd. (AIR 1933 PC 63) पर आधारित था, जिसमें प्रिवी काउंसिल ने कहा था कि जब तक कानून स्पष्ट रूप से अनुमति न दे, समय-सीमा समाप्त हो चुका दावा (Time-Barred Claim) वसूली योग्य नहीं है।
वर्तमान मामले में Kalliyanikutty से अंतर
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने माना कि Kalliyanikutty ने Bombay Dyeing और Tilokchand Motichand जैसे पुराने फैसलों को नहीं देखा। हाई कोर्ट का मानना था कि Recovery of Dues Act और SFC Act वित्तीय निगमों को विशेष शक्तियां (Special Powers) देते हैं ताकि वे अपने कर्ज को भूमि राजस्व (Land Revenue) के बकाये की तरह वसूल सकें, और चूंकि ये प्राधिकरण अदालत (Court) नहीं हैं, इसलिए Limitation Act सीधे इन पर लागू नहीं होता।
संबंधित कानूनी प्रावधान (Statutory Provisions)
Section 32-G, State Financial Corporations Act, 1951 – यह प्रावधान वित्तीय निगम को “किसी भी बकाया राशि” (Any Amount Due) को भूमि राजस्व की बकाया राशि की तरह वसूलने का अधिकार देता है, और यह अधिकार सिविल मुकदमे के अधिकार के अतिरिक्त है।
Sections 2(c) और 3, Haryana Public Moneys (Recovery of Dues) Act, 1979 – इसमें “Defaulter” की परिभाषा और प्रक्रिया दी गई है, जिसके तहत प्रबंध निदेशक (Managing Director) या अधिकृत अधिकारी राशि तय करके वसूली प्रमाण पत्र (Recovery Certificate) कलेक्टर को भेजते हैं, जो इसे भूमि राजस्व की तरह वसूल करता है।
कर्ज (Debt) बनाम कार्रवाई का अधिकार (Right of Action) – न्यायशास्त्रीय दृष्टिकोण
Salmond on Jurisprudence के अनुसार, कर्ज (Debt) स्वयं एक अधिकार है, जबकि उसे वसूलने का कानूनी अधिकार (Right of Action) एक अलग शक्ति (Legal Power) है। Limitation Act सिविल मुकदमे की प्रक्रिया (Suit) को रोक सकता है, लेकिन कर्ज का अस्तित्व बना रहता है। यदि कोई विशेष क़ानून वैकल्पिक वसूली शक्ति देता है, तो यह शक्ति समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी उपयोग में लाई जा सकती है, जब तक कि वह कानून इसके विपरीत न कहे।
सहायक फैसले (Supporting Precedents)
KGU Trust v. Ram Chandraji Virajman Mandir (1978) 1 SCC 44 – इसमें कहा गया कि समय-सीमा कर्ज को समाप्त नहीं करती, और यदि कर्जदाता के पास मुकदमे के अलावा कोई अन्य कानूनी माध्यम (Lawful Means) है, तो वह उसका उपयोग कर सकता है।
Director of Industries, U.P. v. Deep Chand Agarwal (1980) 2 SCC 332 – U.P. Public Moneys (Recovery of Dues) Act, 1965 को वैध ठहराते हुए कहा गया कि यह सरकार की वसूली के लिए एक अलग वैधानिक उपाय (Distinct Statutory Remedy) है।
बिजली बकाया (Electricity Dues) का उदाहरण
K.C. Ninan v. Kerala State Electricity Board (2023 INSC 560) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिजली अधिनियम की धारा 56(2) में दो वर्ष की सीमा केवल कनेक्शन काटने (Disconnection) के उपाय को रोकती है, लेकिन बकाया वसूली के अन्य तरीकों पर असर नहीं डालती। इसका मतलब है कि वैधानिक शक्ति (Statutory Power) समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी बनी रह सकती है।
मुख्य मुद्दा: अतिरिक्त अधिकार (Additional Right) या मात्र प्रक्रिया (Procedure)?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निर्णायक सवाल यह है कि क्या SFC Act और Recovery of Dues Act समय-सीमा समाप्त होने के बाद भी कर्ज वसूली का अलग अधिकार देते हैं। यदि हां, तो समय-सीमा समाप्त कर्ज भी इन कानूनों के तहत वसूला जा सकता है, बशर्ते शक्ति का प्रयोग “उचित समय” (Reasonable Time) के भीतर किया जाए, भले ही स्पष्ट समय-सीमा न दी गई हो।
सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष और आगे की कार्यवाही
दो-न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि Kalliyanikutty ने SFC Act की विशेष वसूली शक्तियों पर पूरी तरह विचार नहीं किया। इस मुद्दे की जटिलता और अलग-अलग फैसलों के कारण मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजा गया, ताकि बड़ी पीठ (Larger Bench) इस पर अंतिम निर्णय दे सके।
महत्व (Significance)
यह मामला Limitation Act और विशेष वसूली कानूनों के आपसी संबंध पर गहरे प्रभाव डालेगा। यदि अदालत समय-सीमा समाप्त कर्ज की वसूली की अनुमति देती है, तो यह सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों (Public Financial Institutions) की शक्ति बढ़ा देगा। वहीं, यदि Kalliyanikutty का दृष्टिकोण कायम रहता है, तो यह देनदारों (Debtors) को पुराने दावों से सुरक्षा प्रदान करेगा।

