क्या आपातकालीन परिस्थितियों में न्यायालय व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सार्वजनिक हित के बीच संतुलन बना सकते हैं?
Himanshu Mishra
21 Dec 2024 8:16 PM IST
आपराधिक मामलों में न्यायिक निरीक्षण (Judicial Oversight) की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट ऑफ ज्यूडिकेचर फॉर राजस्थान बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान एंड अदर (2021) मामले में जमानत (Bail) और अन्य आपराधिक मामलों में न्यायिक निरीक्षण के महत्त्व पर विचार किया।
यह मामला COVID-19 महामारी के दौरान राजस्थान हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों से संबंधित था, जिनका प्रभाव जमानत अर्जियों और अन्य अत्यावश्यक मामलों पर पड़ा।
यह निर्णय न्यायिक विवेक (Judicial Discretion), प्रशासनिक अधिकारों और संवैधानिक गारंटी (Constitutional Guarantees) के बीच के संबंध को स्पष्ट करता है।
न्यायालय द्वारा उठाए गए मुख्य मुद्दे (Fundamental Issues)
सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यतः दो मुद्दों पर विचार किया:
1. प्रशासनिक अधिकारों पर न्यायिक हस्तक्षेप (Judicial Encroachment): राजस्थान हाई कोर्ट के न्यायाधीश ने महामारी के दौरान जमानत अर्जियों और अन्य मामलों को अत्यावश्यक की श्रेणी में न रखने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने जांच की कि क्या यह निर्देश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
2. मौलिक अधिकारों पर प्रभाव (Impact on Fundamental Rights): अदालत ने यह भी देखा कि क्या ये निर्देश आरोपियों के मौलिक अधिकार, विशेष रूप से अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का उल्लंघन करते हैं।
प्रशासनिक अधिकारों पर न्यायिक हस्तक्षेप (Judicial Encroachment on Administrative Powers)
सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि हाई कोर्ट के भीतर प्रशासनिक अधिकार, जैसे मामलों का आवंटन (Case Allocation), मुख्य न्यायाधीश के अधिकार क्षेत्र में आता है।
अदालत ने स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम प्रकाश चंद (1998) और कैंपेन फॉर जुडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) जैसे मामलों का हवाला दिया, जो इन अधिकारों की पुष्टि करते हैं।
एकल न्यायाधीश द्वारा मामलों के वर्गीकरण पर दिए गए निर्देशों को उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर और न्यायिक प्रशासन के स्थापित सिद्धांतों के खिलाफ माना गया।
जमानत का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Right to Bail and Personal Liberty)
सुप्रीम कोर्ट ने जमानत का अधिकार (Right to Bail) और इसके संवैधानिक महत्त्व पर जोर दिया। अदालत ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) मामले का उल्लेख किया, जिसमें अनावश्यक गिरफ्तारी को रोकने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दिशानिर्देश दिए गए थे।
अदालत ने गुर्बख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जमानत देना नियम है और इसे अस्वीकार करना अपवाद। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस निर्देश की आलोचना की, जिसमें महामारी के दौरान जमानत अर्जियों की सूचीबद्धता पर रोक लगाई गई थी। यह आदेश, न्यायालय के अनुसार, व्यक्तियों के वैधानिक अधिकारों (Statutory Rights) को निलंबित कर देता है और न्याय तक पहुँच को बाधित करता है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य और कानूनी अधिकारों के बीच संतुलन (Balancing Public Health and Legal Rights)
महामारी के दौरान उत्पन्न चुनौतियों को स्वीकारते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इन रे: कंटेजन ऑफ COVID-19 वायरस इन प्रिजन्स (2020) मामले में दिए गए अपने पूर्व आदेशों का उल्लेख किया, जिसमें कैदियों की रिहाई पर विचार करने के लिए उच्च स्तरीय समितियों (High-Powered Committees) के गठन का निर्देश दिया गया था। अ
दालत ने जोर दिया कि आपातकालीन परिस्थितियों में प्रशासनिक और न्यायिक उपाय संतुलित होने चाहिए और बिना उचित कारण के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
जमानत के अधिकार को मजबूत करने वाले पूर्व निर्णय (Precedents Reinforcing Right to Bail)
फैसले में कई महत्वपूर्ण मामलों का हवाला दिया गया, जो जमानत के महत्व को रेखांकित करते हैं:
• निकेश तारा चंद शाह बनाम भारत संघ (2018): जमानत प्रावधानों के ऐतिहासिक और संवैधानिक महत्त्व को स्पष्ट किया।
• गुडिकांति नरसिंहुलु बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1978): व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) को केवल वैधानिक प्रक्रिया (Procedure Established by Law) के अनुसार सीमित करने की बात कही।
• गुरचरण सिंह बनाम दिल्ली संघ राज्य (1978): न्यायिक विवेक (Judicial Discretion) का उपयोग करते समय सावधानी बरतने की आवश्यकता पर जोर दिया।
न्यायिक विवेक और प्रशासनिक संतुलन (Judicial Prudence and Administrative Balance)
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक विवेक और प्रशासनिक अधिकारों के सम्मान की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह दोहराता है कि न्यायालय के निर्देश संवैधानिक सिद्धांतों और वैधानिक प्रावधानों के अनुरूप होने चाहिए, विशेषकर जब वे मौलिक अधिकारों को प्रभावित करते हैं।
यह निर्णय न्यायपालिका की इस दोहरी जिम्मेदारी को भी रेखांकित करता है कि वह असाधारण परिस्थितियों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए सार्वजनिक हित को सुनिश्चित करे।