क्या अदालतें Habeas Corpus मामलों में LGBTQ+ व्यक्तियों की पहचान और इच्छा को प्रभावित कर सकती हैं?

Himanshu Mishra

29 July 2025 5:19 PM IST

  • क्या अदालतें Habeas Corpus मामलों में LGBTQ+ व्यक्तियों की पहचान और इच्छा को प्रभावित कर सकती हैं?

    प्रस्तावना: पहचान और पसंद की संवैधानिक सुरक्षा (Constitutional Protection of Identity and Choice)

    सुप्रीम कोर्ट ने Devu G Nair बनाम State of Kerala (2024) के ऐतिहासिक फ़ैसले में यह स्पष्ट किया कि हर व्यक्ति को अपनी पहचान, इच्छा और सम्मान के साथ जीने का पूरा संवैधानिक अधिकार (Constitutional Right) है खासकर LGBTQ+ समुदाय और ऐसे अंतरंग साथियों (Intimate Partners) को, जो पारिवारिक या सामाजिक दबाव के खिलाफ सुरक्षा मांगते हैं। मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा लिखा गया यह निर्णय केवल एक मामले को नहीं सुलझाता, बल्कि सभी अदालतों के लिए नई और अनिवार्य प्रक्रिया (Mandatory Procedure) तय करता है।

    मौलिक अधिकार और संवैधानिक मूल्य (Fundamental Rights and Constitutional Values)

    यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) पर आधारित है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इन अधिकारों को न्यायाधीश की व्यक्तिगत सोच या सामाजिक नैतिकता (Social Morality) के अधीन नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति को अपने जीवनसाथी चुनने, स्वतंत्र रूप से रहने और अपनी लैंगिक पहचान (Gender Identity) व यौन झुकाव (Sexual Orientation) को अभिव्यक्त करने का अधिकार पूरी तरह से सुरक्षित है।

    जबरन काउंसलिंग और पारिवारिक हस्तक्षेप की समस्या (Problem with Forced Counselling and Familial Interference)

    कोर्ट ने यह चिंता जताई कि निचली अदालतें अक्सर ऐसे व्यक्तियों को 'Counselling' के लिए भेज देती हैं जो अपने निर्णय में स्वतंत्र रूप से खड़े रहते हैं, खासकर महिलाएं और LGBTQ+ समुदाय के लोग। कोर्ट ने चेतावनी दी कि ऐसी काउंसलिंग एक तरह से व्यक्ति की इच्छा को तोड़ने और उन्हें पारंपरिक ढांचे में ढालने का माध्यम बन जाती है, जो कि असंवैधानिक है। अदालत ने कहा कि काउंसलिंग या पारिवारिक देखभाल (Parental Care) को व्यक्ति की सोच बदलने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता।

    न्यायिक नैतिकता नहीं, संवैधानिक नैतिकता हो मार्गदर्शक (No Moral Policing in Courtrooms)

    कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों को अपनी व्यक्तिगत नैतिकता (Personal Morality) को कानून से ऊपर नहीं रखना चाहिए। खासकर जब मामला अंतर-धार्मिक, अंतर-जातीय या समलैंगिक (Same-Sex) संबंधों से जुड़ा हो, तो न्यायपालिका को तटस्थ नहीं बल्कि संवैधानिक मूल्यों (Constitutional Morality) का समर्थन करना चाहिए।

    'चुना हुआ परिवार' की अवधारणा को मान्यता (Recognition of the Concept of Chosen Family)

    यह निर्णय इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि इसमें पहली बार 'Chosen Family' की अवधारणा को संवैधानिक स्वीकृति दी गई। LGBTQ+ लोग अक्सर अपने जन्म परिवार (Natal Family) से असुरक्षित महसूस करते हैं और अपने मित्रों या जीवनसाथियों को ही अपने परिवार का दर्जा देते हैं। अदालत ने माना कि यह 'चुना हुआ परिवार' व्यक्ति को सुरक्षा, सम्मान और भावनात्मक सहयोग देता है, और न्यायपालिका को इसे मान्यता देनी चाहिए।

    Habeas Corpus और सुरक्षा याचिकाओं के लिए दिशानिर्देश (Guidelines for Habeas Corpus and Protection Petitions)

    कोर्ट ने सभी अदालतों के लिए विस्तृत और अनिवार्य दिशानिर्देश (Mandatory Guidelines) जारी किए, जिनका पालन किया जाना जरूरी है:

    त्वरित सुनवाई (Priority Hearing): ऐसे मामलों की तुरंत सुनवाई होनी चाहिए, बिना अनावश्यक स्थगन (Adjournment) के।

    लोकस स्टैंडी की सीमाएं (Locus Standi Standards): याचिकाकर्ता और व्यक्ति के रिश्ते की प्रकृति पर ज़ोर न देकर सिर्फ व्यक्ति की इच्छा को प्राथमिकता दी जाए।

    स्वतंत्र वातावरण (Free Environment): कोर्ट के समक्ष पेश व्यक्ति को एकांत (Chamber) में, बिना दबाव के, अपनी इच्छा व्यक्त करने का अवसर मिले।

    इन-कैमरा कार्यवाही (In-Camera Proceedings): बयान गोपनीय माहौल में लिया जाए और उसकी रिकॉर्डिंग सुरक्षित रखी जाए।

    पुलिस या परिवार से दूरी (No Influence from Police or Family): बयान के समय न तो कथित अपहर्ता हो और न ही परिवारजन।

    व्यक्तिगत आराम और सम्मान (Comfort and Dignity): कोर्ट में पेश व्यक्ति को उसका पसंदीदा नाम और सर्वनाम (Preferred Name and Pronoun) से संबोधित किया जाए, आरामदायक माहौल दिया जाए।

    न्यायिक संवेदनशीलता (Judicial Sensitivity): न्यायाधीश को किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह (Bias) या पारिवारिक झुकाव से बचते हुए केवल कानून और व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा के आधार पर कार्य करना चाहिए।

    इच्छा के अनुसार रिहाई (Release as per Will): यदि कोई व्यक्ति कोर्ट में कहता है कि वह अपने परिवार या अपहर्ता के पास नहीं लौटना चाहता, तो उसे तुरंत रिहा किया जाए।

    संरक्षण का आदेश (Ad-Interim Protection): अगर याचिकाकर्ता LGBTQ+, अंतरजातीय या अंतरधार्मिक संबंध में हो, तो तुरंत पुलिस संरक्षण (Police Protection) दिया जाए।

    काउंसलिंग का निषेध (Prohibition on Counselling): कोर्ट को कोई काउंसलिंग आदेश नहीं देना चाहिए, उसका काम केवल व्यक्ति की इच्छा जानना है।

    यौन झुकाव पर कोई टिप्पणी नहीं (No Judgment on Sexual Orientation): कोर्ट में किसी भी प्रकार की होमोफोबिक या ट्रांसफोबिक टिप्पणी की अनुमति नहीं होगी, और ऐसी टिप्पणी करने वालों पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए।

    पहचान की निजता (Privacy of Identity): यौन झुकाव और लैंगिक पहचान (Sexual Orientation and Gender Identity) हर व्यक्ति की निजता का हिस्सा है, और उस पर कोई सामाजिक कलंक (Stigma) नहीं थोपा जा सकता।

    निजता और गरिमा की पुनः पुष्टि (Reinforcement of Privacy and Dignity)

    यह निर्णय Navtej Singh Johar बनाम Union of India (2018) और Justice K.S. Puttaswamy बनाम Union of India (2017) जैसे निर्णयों की भावना को और मजबूत करता है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा और पहचान के अनुसार जीने का अधिकार है, और इसमें कोई हस्तक्षेप असंवैधानिक होगा।

    न्यायपालिका की जिम्मेदारी और संवैधानिक नेतृत्व (Judicial Responsibility and Constitutional Morality)

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों का कर्तव्य संविधान की रक्षा करना है, न कि समाज के पारंपरिक या रूढ़िवादी मूल्यों की। संविधानिक नैतिकता ही न्यायिक कार्रवाई का आधार होनी चाहिए।

    LGBTQ+ अधिकारों के लिए एक और बड़ा कदम (A Step Forward for LGBTQ+ Rights)

    यह निर्णय LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों को लेकर एक बड़ा मील का पत्थर है, और Shafin Jahan बनाम Asokan K.M. (2018) जैसे निर्णयों की कड़ी में जुड़ता है। यह सिर्फ कानूनी संरक्षण ही नहीं देता, बल्कि न्यायपालिका को समाज के सबसे वंचित तबकों के लिए संवेदनशील और समर्पित होने का मार्ग भी दिखाता है।

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