क्या केवल Circumstantial Evidence से रिश्वतखोरी सिद्ध की जा सकती है?
Himanshu Mishra
13 March 2025 12:42 PM

भारत में सरकारी पदों पर भ्रष्टाचार को रोकना एक महत्वपूर्ण कानूनी और न्यायिक विषय रहा है। Prevention of Corruption Act, 1988 (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988) इस उद्देश्य से लागू किया गया था कि सरकारी अधिकारियों द्वारा रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सके।
लेकिन इस अधिनियम के तहत दोषसिद्धि (Conviction) के लिए अवैध लाभ की मांग और स्वीकार करने का प्रमाण (Proof) देना हमेशा एक चुनौती रहा है। Neeraj Dutta बनाम राज्य (GNCTD) (2022) मामले ने यह स्पष्ट किया कि क्या केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) के आधार पर भ्रष्टाचार के अपराध को सिद्ध किया जा सकता है।
इस लेख में, हम इस महत्वपूर्ण निर्णय में शामिल कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) और न्यायालय द्वारा उठाए गए मूलभूत मुद्दों (Fundamental Issues) की समीक्षा करेंगे।
Prevention of Corruption Act, 1988 के प्रमुख प्रावधान (Key Provisions of Prevention of Corruption Act, 1988)
इस मामले में Prevention of Corruption Act, 1988 के महत्वपूर्ण प्रावधानों की व्याख्या की गई है। विशेष रूप से, धारा 7, धारा 13(1)(d) और धारा 20 का उल्लेख किया गया।
धारा 7 (Section 7): यह धारा यह निर्धारित करती है कि यदि कोई लोक सेवक (Public Servant) किसी भी व्यक्ति से वैध पारिश्रमिक (Legal Remuneration) के अलावा किसी भी प्रकार का अवैध लाभ (Illegal Gratification) स्वीकार करता है या उसे प्राप्त करता है, तो यह अपराध माना जाएगा। इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि पहले कोई मांग (Demand) की गई हो, लेकिन यह सिद्ध किया जाना चाहिए कि सरकारी कर्मचारी ने इस रिश्वत को स्वीकार किया।
धारा 13(1)(d) सहपठित धारा 13(2) (Section 13(1)(d) read with Section 13(2)): यह प्रावधान सरकारी अधिकारियों द्वारा भ्रष्ट तरीकों (Corrupt Means) से धन प्राप्त करने से संबंधित है। इस धारा के अंतर्गत दोषसिद्धि के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक होता है कि सरकारी कर्मचारी ने रिश्वत लेने की पूर्व मांग (Prior Demand) की थी और उसके बाद उसे स्वीकार किया था।
धारा 20 (Section 20): यह प्रावधान एक कानूनी अनुमान (Legal Presumption) स्थापित करता है कि अगर किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है, तो यह माना जाएगा कि उसने अवैध लाभ प्राप्त किया है, जब तक कि वह खुद इसे गलत साबित न कर सके। हालांकि, यह अनुमान धारा 7, 11 और 13(1)(a) और (b) के मामलों में लागू होता है, लेकिन यह धारा 13(1)(d) के मामलों में स्वतः लागू नहीं होती।
अदालत में मुख्य कानूनी मुद्दा (The Fundamental Legal Issue Before the Court)
इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था कि यदि शिकायतकर्ता (Complainant) की गवाही (Testimony) उपलब्ध नहीं है (जैसे उसकी मृत्यु हो गई हो, वह बयान से पलट गया हो, या अनुपलब्ध हो), तो क्या अभियोजन पक्ष अन्य साक्ष्यों के आधार पर रिश्वतखोरी की मांग और स्वीकार को साबित कर सकता है?
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों में विरोधाभास रहा था। B. Jayaraj बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2014) और P. Satyanarayana Murthy बनाम जिला पुलिस निरीक्षक (2015) के फैसलों में कहा गया था कि अगर शिकायतकर्ता की गवाही उपलब्ध नहीं है, तो रिश्वत की मांग को सीधे तौर पर सिद्ध करना आवश्यक है। इस स्थिति में अन्य साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती।
इसके विपरीत, M. Narasinga Rao बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2001) में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि यदि शिकायतकर्ता गवाही देने में असमर्थ हो या शत्रुतापूर्ण हो जाए, तब भी अन्य साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि संभव हो सकती है, बशर्ते कि मूलभूत तथ्य (Foundational Facts) साबित हो जाएं।
Neeraj Dutta बनाम राज्य (GNCTD) (2022) में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (The Supreme Court's Ruling in Neeraj Dutta v. State (GNCTD))
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस मामले में निम्नलिखित महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किए:
1. मांग और स्वीकार करने का प्रमाण (Proof of Demand and Acceptance): अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि सरकारी कर्मचारी ने वास्तव में रिश्वत की मांग की थी और उसे स्वीकार किया था। यह प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) जैसे मौखिक गवाही या दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा सिद्ध किया जा सकता है।
2. शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति का प्रभाव (Effect of Complainant's Absence): अगर शिकायतकर्ता की मृत्यु हो गई हो, वह अनुपलब्ध हो, या मुकदमे के दौरान शत्रुता पूर्ण गवाह (Hostile Witness) बन जाए, तो भी अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) से रिश्वत की मांग और स्वीकार को साबित किया जा सकता है।
3. धारा 20 का कानूनी अनुमान (Legal Presumption under Section 20): संविधान पीठ ने यह स्पष्ट किया कि धारा 20 के अंतर्गत तब तक अवैध लाभ लेने की कानूनी धारणा नहीं बनाई जा सकती जब तक कि सरकारी कर्मचारी द्वारा रिश्वत की मांग और स्वीकार का प्रमाण अन्य साक्ष्यों द्वारा स्थापित न किया जाए।
Neeraj Dutta बनाम राज्य (GNCTD) (2022) का निर्णय भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि दोषी सरकारी अधिकारी शिकायतकर्ता की अनुपलब्धता का लाभ उठाकर दोषमुक्त नहीं हो सकते।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि भले ही शिकायतकर्ता गवाही न दे, फिर भी अन्य साक्ष्य या परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि संभव है। इस निर्णय ने रिश्वतखोरी के मामलों में साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 154 (Hostile Witness) और धारा 114 (Presumptions) की भूमिका को भी स्पष्ट किया है। इस प्रकार, यह मामला भविष्य में भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों में एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में कार्य करेगा।