क्या किसी दूसरे राज्य में दर्ज FIR के लिए भी अग्रिम जमानत दी जा सकती है?
Himanshu Mishra
12 July 2025 11:12 AM

प्रिया इंडोरिया बनाम कर्नाटक राज्य (2023) के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि क्या कोई कोर्ट, जिसकी क्षेत्रीय सीमा (Territorial Jurisdiction) से बाहर FIR दर्ज हुई है, उस मामले में अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) दे सकता है या नहीं। यह फैसला लंबे समय से चली आ रही कानूनी बहस को समाप्त करता है और यह तय करता है कि न्याय और प्रक्रिया (Procedure) के संतुलन में कैसे व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की रक्षा की जा सकती है।
CrPC की धारा 438 और अग्रिम जमानत का प्रावधान (Section 438 CrPC and Anticipatory Bail)
CrPC की धारा 438 यह अधिकार देती है कि कोई भी व्यक्ति, जिसे लगता है कि उसे किसी गैर-जमानती अपराध (Non-Bailable Offence) में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह अग्रिम जमानत की अर्जी दे सकता है। यह अर्जी सत्र न्यायालय (Sessions Court) या उच्च न्यायालय (High Court) में दी जा सकती है।
लेकिन इस धारा में यह साफ नहीं लिखा गया है कि यह अर्जी उसी राज्य में दी जाए जहाँ FIR दर्ज हुई है या किसी अन्य राज्य में भी दी जा सकती है। इस अस्पष्टता के कारण कई उच्च न्यायालयों के निर्णय एक-दूसरे से अलग रहे हैं। कुछ अदालतों ने “बाहरी क्षेत्राधिकार वाली अग्रिम जमानत” (Extra-Territorial Anticipatory Bail) दी जबकि अन्य ने इसे अस्वीकार कर दिया।
मुख्य कानूनी प्रश्न (Key Legal Issues)
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में तीन मुख्य प्रश्नों का उत्तर दिया:
1. क्या कोई हाई कोर्ट या सत्र न्यायालय ऐसे मामले में अग्रिम जमानत दे सकता है, जिसमें FIR किसी अन्य राज्य में दर्ज हुई हो?
2. क्या 'ट्रांजिट अग्रिम जमानत' (Transit Anticipatory Bail) की व्यवस्था वैधानिक (Legally Valid) है?
3. ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत के आदेश की प्रकृति और सीमा क्या होनी चाहिए?
धारा 438 की कानूनी व्याख्या (Legal Interpretation of Section 438)
कोर्ट ने CrPC की धारा 2(e) (High Court की परिभाषा) और धारा 2(j) (स्थानीय क्षेत्राधिकार – Local Jurisdiction) को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि CrPC की अन्य धाराओं (जैसे धारा 177 से 189) के अनुसार, अपराध वहीं सुना जाता है जहाँ वह घटित हुआ हो।
हालांकि धारा 438 में “क्षेत्राधिकार” (Jurisdiction) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, फिर भी कोर्ट ने कहा कि किसी भी आपराधिक कार्यवाही में क्षेत्रीय सीमा का पालन करना अनिवार्य होता है। गिरफ्तारी की आशंका किसी अपराध के संदर्भ में ही होती है और वह अपराध किस क्षेत्र में घटित हुआ है, यह महत्वपूर्ण होता है।
अग्रिम जमानत का उद्देश्य और सीमाएँ (Purpose and Limits of Anticipatory Bail)
Gurbaksh Singh Sibbia v. State of Punjab (1980) और Sushila Aggarwal v. State (NCT of Delhi) (2020) जैसे महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अग्रिम जमानत व्यक्ति की स्वतंत्रता (Liberty) की रक्षा के लिए है, परंतु इसका दुरुपयोग (Misuse) नहीं होना चाहिए।
अगर देश के किसी भी राज्य में जाकर अग्रिम जमानत ली जा सकती हो, तो यह 'फोरम शॉपिंग' (Forum Shopping – मतलब सुविधा के अनुसार कोर्ट चुनना) को बढ़ावा देगा और जांच एजेंसियों के अधिकार कमज़ोर कर देगा।
ट्रांजिट अग्रिम जमानत: वैध लेकिन सीमित (Transit Anticipatory Bail – Valid but Limited)
कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि Transit Anticipatory Bail एक वैध और न्यायसंगत प्रक्रिया है। इसे पहले State of Assam v. Brojen Gogoi (1998) और Teesta Setalvad v. State of Maharashtra (2014) जैसे मामलों में भी मान्यता दी गई है।
ट्रांजिट अग्रिम जमानत का उद्देश्य केवल यह होता है कि जब कोई व्यक्ति किसी अन्य राज्य में FIR दर्ज होने पर स्थानीय कोर्ट से समय की सीमित सुरक्षा चाहता है ताकि वह संबंधित राज्य की सक्षम अदालत में अग्रिम जमानत की अर्जी दे सके।
यह राहत सीमित समय के लिए होती है (जैसे 7 या 14 दिन तक) और यह उस कोर्ट के अधिकार में नहीं आती जो उस अपराध से सीधे संबंधित नहीं है।
विभिन्न अदालतों में मतभेद (Judicial Divergence on Jurisdiction)
कोर्ट ने पाया कि देश की कई उच्च न्यायालयों में इस मुद्दे पर अलग-अलग राय रही है। In Re: Benod Ranjan Sinha (कलकत्ता हाईकोर्ट) जैसे फैसलों में बाहरी क्षेत्राधिकार वाली जमानत को स्वीकार किया गया, वहीं L.R. Naidu v. State of Karnataka में इसे अस्वीकार किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका को ऐसा कोई रास्ता नहीं अपनाना चाहिए जिससे जांच की निष्पक्षता प्रभावित हो और अभियोजन पक्ष (Prosecution) को अपनी बात रखने का मौका ही न मिले।
दुरुपयोग की रोकथाम और व्यक्तिगत अधिकार का संतुलन (Preventing Misuse While Protecting Liberty)
कोर्ट ने यह कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Article 21 – Right to Life and Liberty) को बनाए रखते हुए भी कुछ नियंत्रण आवश्यक हैं ताकि प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।
इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदु तय किए:
• अगर व्यक्ति ने जिस राज्य से जमानत मांगी है वहाँ उसका निवास (Residence) है, तो उसे प्राथमिकता दी जा सकती है।
• अगर वह राज्य उसका निवास नहीं है, तो स्पष्ट कारण बताया जाए कि वहां से जमानत क्यों चाहिए।
• ट्रांजिट अग्रिम जमानत अधिकतम 14 दिन के लिए दी जा सकती है।
• संबंधित पुलिस/प्रॉसिक्यूटर को सुनवाई से पहले सूचना दी जाए।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम न्यायिक प्रक्रिया (Liberty vs. Criminal Justice System)
Balchand Jain v. State of M.P. (1976) और Nathu Singh v. State of U.P. (2021) जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि अग्रिम जमानत व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा करती है, पर यह जांच को रोकने का तरीका नहीं बननी चाहिए।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत बिना किसी अपराध या गिरफ्तारी की वास्तविक आशंका के नहीं दी जा सकती।
अंतिम निर्णय और स्पष्टता (Final Holding and Clarification)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा:
• केवल वही अदालत (High Court या Sessions Court) जो उस अपराध के क्षेत्र में आती है, जहाँ FIR दर्ज हुई है, नियमित अग्रिम जमानत दे सकती है।
• अन्य राज्य की अदालत केवल ट्रांजिट अग्रिम जमानत दे सकती है और वह भी सीमित अवधि के लिए।
• इस व्यवस्था से व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा भी होगी और जांच की निष्पक्षता भी बनी रहेगी।
प्रिया इंडोरिया बनाम कर्नाटक राज्य का फैसला एक लंबे समय से चली आ रही कानूनी अस्पष्टता को स्पष्ट करता है। यह तय करता है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान जरूरी है, लेकिन उसे ऐसे प्रयोग नहीं किया जा सकता जिससे जांच बाधित हो या न्यायिक प्रणाली कमजोर हो।
यह निर्णय बताता है कि कानून का उद्देश्य संतुलन बनाना है – एक तरफ नागरिक की आज़ादी और दूसरी तरफ प्रक्रिया की निष्पक्षता। अब देशभर की अदालतों के लिए एक समान और स्पष्ट मार्गदर्शन उपलब्ध है कि अग्रिम जमानत कैसे, कहाँ और किस सीमा तक दी जा सकती है।