क्या केवल संदेहपूर्ण आरोपों के आधार पर दर्ज FIR को खारिज किया जा सकता है जब यह दुर्भावना से की गई हो?
Himanshu Mishra
25 Jun 2025 12:03 PM

FIR रद्द करने की न्यायिक रूपरेखा (Judicial Framework for Quashing FIRs)
सुप्रीम कोर्ट ने सलीब @ शालू @ सलीम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य (2023) के निर्णय में यह स्पष्ट किया कि किसी FIR (First Information Report) को रद्द (Quash) करने की शक्ति विशेष परिस्थितियों में सावधानीपूर्वक और सीमित रूप में प्रयोग की जानी चाहिए। जब आरोप इतने अवास्तविक (Absurd) हों कि वे कानूनी अपराध की कोई स्पष्ट जानकारी न दें या आरोप स्पष्ट रूप से बदले की भावना (Private Vengeance) से प्रेरित हों, तब न्यायालय FIR को रद्द कर सकता है।
भजनलाल केस में दिए गए दिशा-निर्देश (Guidelines from Bhajan Lal Case)
कोर्ट ने हरियाणा राज्य बनाम भजनलाल (1992) केस का उल्लेख करते हुए कहा कि अगर FIR निम्नलिखित परिस्थितियों में आती है, तो उसे रद्द किया जा सकता है: यदि शिकायत में किसी अपराध का प्रथम दृष्टया (Prima Facie) कोई संकेत नहीं है, या आरोप इतने अविश्वसनीय हैं कि कोई समझदार व्यक्ति भी उसे स्वीकार नहीं करेगा, या यदि मुकदमा दुर्भावना (Malice) से प्रेरित है। वर्तमान केस इन तीनों श्रेणियों में आता था।
झूठे आरोप और दुर्भावनापूर्ण शिकायतें (False Implication and Malicious Complaints)
कोर्ट ने कहा कि कई बार शिकायतकर्ता जानबूझकर शिकायत में तकनीकी रूप से सभी कानूनी तत्व जोड़ते हैं ताकि FIR टिके रह सके, जबकि उसके पीछे का उद्देश्य किसी व्यक्ति को परेशान करना होता है। अगर संपूर्ण संदर्भ (Context) और घटनाक्रम से यह पता चलता है कि शिकायत का मकसद केवल प्रतिशोध (Revenge) है, तो अदालत FIR को रद्द कर सकती है। यहां आरोपी का नाम FIR में शुरू में नहीं था, लेकिन बाद में एक अतिरिक्त बयान के माध्यम से जोड़ा गया, जिसे कोर्ट ने संदेहास्पद माना।
IPC की धारा 195A का गलत प्रयोग (Misapplication of Section 195A IPC)
आरोपी पर IPC की धारा 195A के तहत भी आरोप लगाया गया था, जो किसी व्यक्ति को झूठा साक्ष्य (False Evidence) देने के लिए धमकाने से संबंधित है। कोर्ट ने कहा कि इस धारा का प्रयोग तभी हो सकता है जब स्पष्ट रूप से यह आरोप हो कि आरोपी ने गवाह को अदालत में झूठ बोलने के लिए मजबूर करने की नीयत (Intention) से धमकाया हो। चूंकि FIR या पूरक बयान में ऐसा कोई संकेत नहीं था, इसलिए धारा 195A का प्रयोग अनुचित था।
IPC की धारा 386 के तहत जबरन वसूली का अभाव (Lack of Extortion Under Section 386 IPC)
धारा 386 IPC तब लागू होती है जब कोई व्यक्ति किसी को जान से मारने या गंभीर चोट पहुँचाने की धमकी देकर संपत्ति या धन लेता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि "जबरन वसूली (Extortion)" तभी मानी जाती है जब धमकी देने के परिणामस्वरूप शिकायतकर्ता कुछ संपत्ति या पैसा देता है। इस मामले में, ऐसा कोई लेन-देन नहीं हुआ था, इसलिए इस धारा का प्रयोग भी अनुचित था।
CrPC की धारा 161 और पूरक बयान की विश्वसनीयता (Credibility of Supplementary Statements under Section 161 CrPC)
कोर्ट ने कहा कि CrPC की धारा 161 के तहत दिए गए पूरक बयानों को FIR से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता, खासकर जब वे बाद में दर्ज हों और मूल FIR से मेल न खाते हों। यदि आरोपी का नाम मूल FIR में नहीं था और बाद में पूरक बयान में जोड़ा गया, तो इसकी प्रामाणिकता (Authenticity) पर सवाल उठते हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ था।
CrPC की धारा 482 का सावधानीपूर्ण प्रयोग (Cautious Use of Section 482 CrPC)
CrPC की धारा 482 अदालतों को यह अधिकार देती है कि वे न्याय के हित में किसी भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकती हैं। लेकिन यह शक्ति केवल उन मामलों में प्रयोग की जानी चाहिए जहां FIR का उद्देश्य न्याय नहीं, बल्कि परेशान करना हो। कोर्ट ने कहा कि केवल FIR के शब्दों पर नहीं, बल्कि शिकायत दर्ज करने की पृष्ठभूमि (Background) और उद्देश्य पर भी ध्यान देना चाहिए।
केवल शिकायत की भाषा नहीं, पूरे घटनाक्रम की समीक्षा (Evaluating the Entire Sequence of Events)
कोर्ट ने शिकायत के शब्दों से आगे जाकर पूरे घटनाक्रम, राजनीतिक संबंधों, पूर्व मुकदमों और कथनों की असंगतियों को देखा। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि आरोपी के ससुर को परेशान करने के उद्देश्य से शिकायत दर्ज की गई थी, और आरोपी को जानबूझकर फंसाया गया था।
आपराधिक कानून के दुरुपयोग से बचाव (Protection Against Misuse of Criminal Law)
कोर्ट ने कहा कि आपराधिक कानून का उपयोग न्याय प्राप्त करने के लिए किया जाना चाहिए, न कि किसी को प्रताड़ित (Harass) करने के लिए। किसी भी व्यक्ति पर केवल आरोप लगाना पर्याप्त नहीं है – सबूत और परिस्थितियाँ यह दिखाएं कि अपराध हुआ था, तभी कार्यवाही उचित मानी जाएगी। अन्यथा, मुकदमा चलाना अन्याय होगा।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा उद्धृत प्रमुख निर्णय (Important Judgements Referred)
भजनलाल केस (1992) – FIR रद्द करने के सात मापदंड निर्धारित किए।
Neharika Infrastructure (2021) – जांच के दौरान न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं पर प्रकाश डाला।
Anand Kumar Mohatta (2019) – यह माना गया कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी FIR को रद्द किया जा सकता है।
Ramyad Singh v. Emperor – IPC में जबरन वसूली और बल प्रयोग में अंतर को स्पष्ट किया।
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि जब FIR का उद्देश्य व्यक्तिगत दुश्मनी या राजनीतिक बदला होता है, तब अदालतों का कर्तव्य है कि वे हस्तक्षेप करें। अदालतें केवल कानूनी तकनीकीताओं के आधार पर निर्णय न लें, बल्कि सत्य और न्याय के व्यापक सिद्धांतों के आधार पर काम करें। इस फैसले से यह संदेश जाता है कि कानून का उपयोग बदले की भावना से नहीं किया जा सकता, और जब इसका दुरुपयोग होता है, तब न्यायालय को हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार है।