क्या संदेहजनक परिस्थितियों के आधार पर वसीयत को अमान्य किया जा सकता है?

Himanshu Mishra

27 March 2025 11:16 AM

  • क्या संदेहजनक परिस्थितियों के आधार पर वसीयत को अमान्य किया जा सकता है?

    सुप्रीम कोर्ट ने स्वर्णलता बनाम कलावती मामले में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (Indian Succession Act, 1925) के तहत वसीयत की वैधता (Validity) से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार किया। इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या वसीयत संदिग्ध परिस्थितियों से ग्रस्त थी और क्या इसे रद्द (Invalidate) किया जाना चाहिए।

    यह निर्णय वसीयत से जुड़े कानूनी सिद्धांतों (Legal Principles) पर प्रकाश डालता है, जैसे कि वसीयत को मान्यता देने के लिए क्या आवश्यक शर्तें होती हैं और कब इसे चुनौती दी जा सकती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि कोई संदेहजनक परिस्थिति पाई जाती है, तो वसीयत को मान्य ठहराने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होगी जो इसे प्रमाणित (Prove) कर रहा है।

    वसीयत से जुड़े कानूनी प्रावधान (Legal Provisions Governing Wills)

    भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (Indian Succession Act, 1925) वसीयत बनाने और उसके प्रमाणन (Probate) की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। इसकी धारा 63 (Section 63) वसीयत के लिए आवश्यक औपचारिकताओं को निर्धारित करती है, जिसमें यह जरूरी है कि वसीयत लिखित हो, उस पर वसीयत करने वाले व्यक्ति (Testator) का हस्ताक्षर हो, और कम से कम दो गवाहों (Witnesses) द्वारा उसका सत्यापन (Attestation) किया गया हो।

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 68 (Section 68) में यह आवश्यक किया गया है कि वसीयत को मान्य (Valid) साबित करने के लिए कम से कम एक गवाह का बयान आवश्यक होगा। इसके अलावा, धारा 270 से 289 (Sections 270-289) में वसीयत की प्रोबेट प्रक्रिया (Probate Process) का उल्लेख किया गया है और धारा 384 (Section 384) के तहत इसे चुनौती (Challenge) देने की अनुमति दी गई है।

    संदेहजनक परिस्थितियों (Suspicious Circumstances) की अवधारणा

    यदि वसीयत के निर्माण में कोई संदेहजनक परिस्थिति पाई जाती है, तो उसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने एच. वेंकटचलैया अय्यंगर बनाम बी. एन. थिम्माज्जम्मा (1959) मामले में स्पष्ट किया कि यदि कोई संदेह हो, तो उसे दूर करने की जिम्मेदारी (Burden of Proof) उस व्यक्ति की होगी जो वसीयत को प्रमाणित कर रहा है। इसी प्रकार शशि कुमार बनर्जी बनाम सुभाष कुमार बनर्जी (1964) के मामले में यह कहा गया कि वसीयत के पंजीकरण (Registration) मात्र से यह सिद्ध नहीं होता कि वह स्वतंत्र और स्वेच्छा से बनाई गई थी।

    इस मामले में हाईकोर्ट ने यह पाया कि वसीयत की परिस्थितियाँ संदेह उत्पन्न करने वाली थीं। सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि क्या हाईकोर्ट का यह संदेह उचित था और क्या इस आधार पर प्रोबेट रद्द किया जा सकता है।

    वसीयत बनाने वाले की मानसिक स्थिति (Testamentary Capacity)

    वसीयत करने वाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति (Mental Condition) का कानून में विशेष महत्व होता है। यदि कोई व्यक्ति वसीयत करते समय मानसिक रूप से सक्षम (Capable) नहीं था, तो वसीयत को अमान्य घोषित किया जा सकता है। सामान्य रूप से अदालत यह मानती है कि वसीयत करने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ (Sound Mind) था, जब तक कि इसके विपरीत साबित न हो जाए।

    गौरव कुमार बनाम हरियाणा राज्य (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति को साबित करने के लिए मेडिकल प्रमाण (Medical Evidence) और गवाहों (Witnesses) के बयान अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। इस मामले में अदालत को यह तय करना था कि क्या वसीयत बनाने वाले माता-पिता वसीयत लिखने के समय मानसिक रूप से स्वस्थ थे और क्या वे स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में सक्षम थे।

    वसीयत का निष्पादन और साक्ष्य (Execution and Attestation of the Will)

    एक वसीयत को मान्य (Valid) बनाने के लिए उसका उचित निष्पादन (Execution) और साक्ष्य (Attestation) आवश्यक होता है। कानून के अनुसार, वसीयत पर दो गवाहों के हस्ताक्षर होना आवश्यक होता है, ताकि यह साबित किया जा सके कि यह वास्तव में वसीयत करने वाले की मर्जी से बनाई गई थी।

    जसवंत कौर बनाम अमृत कौर (1977) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि वसीयत के किसी गवाह को अदालत में नहीं बुलाया जाता, तो यह वसीयत को अस्वीकृत (Reject) करने का आधार हो सकता है। इसी संदर्भ में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जांच की कि क्या वसीयत के गवाहों की गवाही विश्वसनीय (Credible) थी या उनके किसी व्यक्तिगत स्वार्थ (Personal Interest) के कारण उनकी गवाही पर संदेह किया जा सकता था।

    प्रोबेट का निरस्तीकरण (Revocation of Probate)

    यदि प्रोबेट प्रक्रिया (Probate Process) में कोई गंभीर त्रुटि (Error) पाई जाती है, तो इसे चुनौती दी जा सकती है और उच्च न्यायालय (High Court) या सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) द्वारा रद्द किया जा सकता है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 384 (Section 384) के तहत यदि यह साबित किया जाता है कि प्रोबेट देने में न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) का पालन नहीं किया गया, तो इसे निरस्त किया जा सकता है।

    कविता कंवर बनाम पामेला मेहता (2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अपीलीय न्यायालयों (Appellate Courts) को प्रोबेट मामलों की जांच सावधानीपूर्वक करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई अन्याय (Injustice) न हो। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय की समीक्षा (Review) की और देखा कि क्या प्रोबेट को निरस्त करना न्यायोचित (Justified) था।

    इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि वसीयत को वैध (Valid) बनाने के लिए सभी कानूनी प्रक्रियाओं (Legal Procedures) का पालन किया जाना आवश्यक है। अदालतें यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी व्यक्ति की अंतिम इच्छा (Last Wish) को बिना किसी ठोस कारण के खारिज (Reject) न किया जाए।

    यह निर्णय इस सिद्धांत को दोहराता है कि यदि कोई संदेहजनक परिस्थिति उत्पन्न होती है, तो उस व्यक्ति को इसे स्पष्ट करने की जिम्मेदारी होगी जो वसीयत को प्रमाणित कर रहा है। यह मामला न्यायपालिका (Judiciary) द्वारा वसीयत मामलों में अपनाई जाने वाली सतर्क दृष्टि (Cautious Approach) को दर्शाता है और यह सुनिश्चित करता है कि वसीयत बिना किसी बाहरी दबाव (Undue Influence) और कानून के पूर्ण अनुपालन (Strict Compliance) में बनाई जाए।

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