क्या कोई Non-signatory कंपनी भी Group of Companies सिद्धांत के तहत Arbitration के लिए बाध्य हो सकती है?

Himanshu Mishra

15 July 2025 11:56 AM

  • क्या कोई Non-signatory कंपनी भी Group of Companies सिद्धांत के तहत Arbitration के लिए बाध्य हो सकती है?

    Cox & Kings Ltd. बनाम SAP India Pvt. Ltd. (2024) में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न पर विचार किया कि क्या कोई ऐसा पक्ष जो मध्यस्थता अनुबंध (Arbitration Agreement) पर हस्ताक्षरकर्ता (Signatory) नहीं है, उसे भी मध्यस्थता के लिए बाध्य किया जा सकता है यदि वह उसी व्यावसायिक लेनदेन (Commercial Transaction) और कॉर्पोरेट समूह (Corporate Group) का हिस्सा हो। यह फैसला Arbitration and Conciliation Act, 1996 की धारा 11(6) और Group of Companies Doctrine की व्याख्या करता है, जो पिछले कुछ वर्षों से विवाद और अस्पष्टता का विषय रहा है।

    धारा 11 CrPC के अंतर्गत कोर्ट की सीमित भूमिका (Limited Role of Referral Court under Section 11)

    अदालत ने यह दोहराया कि मध्यस्थ की नियुक्ति (Appointment of Arbitrator) के समय कोर्ट की भूमिका केवल यह देखने तक सीमित होती है कि कोई वैध मध्यस्थता अनुबंध Prima Facie (First Glance पर) मौजूद है या नहीं। यह सिद्धांत पहले भी Duro Felguera S.A. v. Gangavaram Port Ltd. और In Re: Interplay Between Arbitration Agreements and the Stamp Act (2023) जैसे फैसलों में स्थापित किया जा चुका है।

    यह सिद्धांत धारा 5 के अंतर्गत Minimal Judicial Interference (न्यायिक हस्तक्षेप की न्यूनतम भूमिका) पर आधारित है। साथ ही, धारा 16 के अंतर्गत Competence-Competence Principle यह कहता है कि कोई भी मध्यस्थता न्यायाधिकरण (Arbitral Tribunal) अपनी अधिकारिता (Jurisdiction) स्वयं तय कर सकता है – जिसमें यह भी शामिल है कि कौन पक्ष मध्यस्थता से बाध्य है।

    Group of Companies सिद्धांत पर विवाद (Controversy over the Group of Companies Doctrine)

    इस फैसले का केंद्रबिंदु Group of Companies Doctrine की वैधता और सीमा थी। यह सिद्धांत सबसे पहले Chloro Controls India Pvt. Ltd. v. Severn Trent Water Purification Inc. (2013) में सामने आया, जहाँ यह कहा गया था कि एक कॉर्पोरेट समूह की वह कंपनियाँ जो अनुबंध के निष्पादन (Performance), बातचीत (Negotiation), या समाप्ति (Termination) में शामिल थीं, उन्हें भी मध्यस्थता के लिए बाध्य किया जा सकता है, भले ही उन्होंने अनुबंध पर हस्ताक्षर न किया हो।

    हाल के वर्षों में इस सिद्धांत की आलोचना भी हुई है। मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमना ने इस पर सवाल उठाते हुए इसे एक बड़ी पीठ (Larger Bench) के पास विचार हेतु भेजा था।

    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने Doctrine की वैधता पर अंतिम निर्णय नहीं दिया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि धारा 11 के तहत मध्यस्थ नियुक्त करने वाले न्यायालय को इस स्तर पर यह तय करने की आवश्यकता नहीं है कि कोई Non-signatory मध्यस्थता के लिए बाध्य है या नहीं।

    मध्यस्थता न्यायाधिकरण की प्राथमिक भूमिका (Competence of Arbitral Tribunal)

    कोर्ट ने धारा 16 के अंतर्गत Competence-Competence Doctrine को मजबूत किया, जिसके अनुसार मध्यस्थता न्यायाधिकरण यह तय करने में स्वतंत्र होता है कि वह किन पक्षों पर अधिकार रखता है और कौन अनुबंध से बाध्य है।

    कोर्ट ने Pravin Electricals v. Galaxy Infra & Engineering Pvt. Ltd. (2021) और SBI General Insurance Co. Ltd. v. Krish Spinning Mills (2024) को दोहराते हुए कहा कि अगर मध्यस्थता अनुबंध पर संदेह भी हो, तब भी न्यायाधिकरण इस पर विचार कर सकता है। इससे कोर्ट को पहले चरण में गहराई से जांच करने की आवश्यकता नहीं रहती और मध्यस्थता की प्रक्रिया की स्वतंत्रता बनी रहती है।

    Composite Transactions और Single Economic Reality का सिद्धांत (Doctrine of Composite Transactions and Single Economic Reality)

    कोर्ट ने माना कि आज के समय में कई वाणिज्यिक अनुबंध (Commercial Contracts) एक दूसरे से जुड़े होते हैं और एक ही लेनदेन के हिस्से होते हैं। यदि विभिन्न अनुबंध एक ही उद्देश्य के लिए बनाए गए हों, तो किसी Non-signatory की भागीदारी (Participation) उसे मध्यस्थता से जोड़ सकती है।

    हालाँकि, केवल कॉर्पोरेट संबंध या आर्थिक निकटता (Corporate Relationship or Economic Proximity) पर्याप्त नहीं है। कोई भी गैर-हस्ताक्षरकर्ता तभी मध्यस्थता के लिए बाध्य हो सकता है जब वह अनुबंध की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल रहा हो और कोई Implied Consent (परोक्ष सहमति) दिखाई दे।

    यह विचार 'Single Economic Entity' जैसी आर्थिक अवधारणाओं को कानून में सीधे लागू करने से बचने की चेतावनी देता है और Party Autonomy (पक्षों की स्वायत्तता) को प्राथमिकता देता है।

    Referral Stage पर गैर-हस्ताक्षरकर्ता की भागीदारी (Non-signatory Involvement at Referral Stage)

    कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब कोई पक्ष चाहता है कि गैर-हस्ताक्षरकर्ता को भी मध्यस्थता में शामिल किया जाए, तो न्यायालय केवल यह देखेगा कि Prima Facie आधार पर यह मांग उचित प्रतीत होती है या नहीं।

    यह दो स्थितियों में लागू होता है:

    1. जब कोई हस्ताक्षरकर्ता गैर-हस्ताक्षरकर्ता को मध्यस्थता में शामिल करना चाहता है

    2. जब कोई गैर-हस्ताक्षरकर्ता स्वयं मध्यस्थता में शामिल होना चाहता है

    दोनों ही स्थितियों में न्यायालय को विस्तृत जाँच करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रश्न को अंतिम रूप से मध्यस्थता न्यायाधिकरण द्वारा तय किया जाना चाहिए।

    व्यावसायिक अनुबंधों और मध्यस्थता कानून पर प्रभाव (Impact on Arbitration and Commercial Contracts)

    यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि न्यायालय का कार्य केवल मध्यस्थता की प्रक्रिया शुरू करना है, न कि पूरी योग्यता की जांच करना। इससे यह विश्वास बना रहता है कि मध्यस्थता एक स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रक्रिया है।

    इस फैसले में Group of Companies Doctrine को खारिज नहीं किया गया, लेकिन यह कहा गया कि इसका प्रयोग सतर्कता और परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी माना कि पिछले फैसले Cox & Kings v. SAP India Pvt. Ltd. (2023) की संविधान पीठ पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी है कि इस विषय पर अंतिम निर्णय मध्यस्थता न्यायाधिकरण को लेना चाहिए।

    कॉक्स एंड किंग्स लिमिटेड बनाम एसएपी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का फैसला भारतीय मध्यस्थता कानून में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह तय करता है कि अदालत की भूमिका सीमित होनी चाहिए और उसे मध्यस्थ नियुक्त करते समय विस्तार से यह नहीं तय करना चाहिए कि कोई गैर-हस्ताक्षरकर्ता मध्यस्थता के लिए बाध्य है या नहीं।

    यह दृष्टिकोण मध्यस्थता की स्वायत्तता (Autonomy) की रक्षा करता है, प्रक्रिया को तेज बनाता है और यह सुनिश्चित करता है कि अनुबंध में स्पष्ट सहमति और भागीदारी के आधार पर ही कोई पक्ष बाध्य किया जाए। इससे व्यापारिक अनुबंधों में स्पष्टता और न्यायिक संतुलन दोनों सुनिश्चित होते हैं।

    Next Story