क्या किसी फैसले को केवल इस आधार पर दोबारा परखा जा सकता है कि बाद के फैसले में पहले के निर्णय को गलत बताया गया है?

Himanshu Mishra

3 May 2025 1:34 PM

  • क्या किसी फैसले को केवल इस आधार पर दोबारा परखा जा सकता है कि बाद के फैसले में पहले के निर्णय को गलत बताया गया है?

    सुप्रीम कोर्ट ने Government of NCT of Delhi v. K.L. Rathi Steels Ltd. (2023) के मामले में एक अहम सवाल पर विचार किया क्या किसी अदालत के फैसले की समीक्षा (Review) केवल इसलिए की जा सकती है क्योंकि किसी बाद के फैसले में पहले के निर्णय (Precedent) को पलट दिया गया है? यह सवाल न केवल सिविल कानून बल्कि संवैधानिक कानून से भी जुड़ा हुआ है, और यह Code of Civil Procedure, 1908 की Order XLVII Rule 1 के तहत Review की सीमाओं को लेकर बेहद महत्वपूर्ण है। इस मामले में दो जजों की बेंच — जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने भिन्न-भिन्न राय दी, जिससे यह मामला और भी जटिल हो गया।

    Code of Civil Procedure की Order XLVII Rule 1 के अंतर्गत Review का दायरा (Scope of Review under Order XLVII Rule 1)

    Order XLVII Rule 1 के तहत कोई पक्ष Review के लिए आवेदन कर सकता है यदि कोई नई और महत्वपूर्ण जानकारी या सबूत सामने आता है जो पहले उपलब्ध नहीं था, या यदि किसी स्पष्ट गलती (Error Apparent on Record) को देखा जाता है, या फिर कोई अन्य पर्याप्त कारण (Sufficient Reason) हो।

    इस मामले में सवाल यह था कि यदि कोई फैसला किसी ऐसे निर्णय पर आधारित था जिसे बाद में गलत ठहराया गया हो, तो क्या वह "Sufficient Reason" की श्रेणी में आता है?

    जस्टिस एम.आर. शाह ने इसका उत्तर 'हां' में दिया और कहा कि अगर कोई निर्णय किसी ऐसे Precedent पर आधारित है जिसे बाद में Constitution Bench द्वारा पलटा गया हो, तो उस निर्णय की समीक्षा की जानी चाहिए। वहीं, जस्टिस नागरत्ना ने Review की परिभाषा को संकीर्ण रखा और कहा कि बाद में कानून में बदलाव आने मात्र से कोई Review नहीं किया जा सकता।

    Finality बनाम Correctness का टकराव (Conflict between Finality and Correctness)

    इस मामले में अदालत के समक्ष मुख्य मुद्दा था निर्णय की स्थायित्वता (Finality) बनाम उसकी सही कानूनी व्याख्या (Correctness)।

    जस्टिस शाह ने जोर देकर कहा कि न्याय प्रणाली का उद्देश्य केवल विवादों का अंत करना नहीं है, बल्कि सही और न्यायपूर्ण निर्णय देना भी है। यदि कोई निर्णय बाद में गलत साबित हुआ हो, तो उसकी समीक्षा ज़रूरी है।

    इसके विपरीत, जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि यदि हर बार कानून में बदलाव आने पर पुराने फैसलों की समीक्षा होने लगे तो इससे न्यायिक प्रक्रिया की स्थिरता (Stability) पर असर पड़ेगा और अंतहीन मुकदमेबाज़ी (Endless Litigation) की शुरुआत हो जाएगी।

    Precedent और Stare Decisis का महत्व (Importance of Precedents and the Principle of Stare Decisis)

    भारतीय न्याय व्यवस्था में Stare Decisis (अर्थ: पहले दिए गए फैसलों पर कायम रहना) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इससे न्यायिक निर्णयों में स्थिरता और पूर्वानुमेयता बनी रहती है।

    Pune Municipal Corporation v. Harakchand Misirimal Solanki (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने Section 24(2) of Land Acquisition Act, 2013 की एक उदार व्याख्या की थी। बाद में Indore Development Authority v. Manoharlal (2020) में Constitution Bench ने इस व्याख्या को पलट दिया।

    अब सवाल यह है कि क्या उन फैसलों की Review होनी चाहिए जो Pune के आधार पर दिए गए थे? जस्टिस शाह ने इसका उत्तर 'हां' में दिया, जबकि जस्टिस नागरत्ना ने इसका विरोध किया।

    Review और Constitution Bench के फैसलों का परस्पर संबंध (Review and Its Link to Constitution Bench Judgments)

    जस्टिस शाह का मत था कि जब किसी निर्णय की आधारभूत कानूनी स्थिति ही खत्म हो जाए, तो उस निर्णय की समीक्षा की जानी चाहिए। उन्होंने इस विचार को Union of India v. R. Pardesi (2010) जैसे मामलों से समर्थन दिया, जहां अदालत ने यह कहा था कि यदि निर्णय का आधार ही समाप्त हो गया हो, तो Review उचित है।

    जस्टिस नागरत्ना ने Kamlesh Verma v. Mayawati (2013) जैसे मामलों पर भरोसा किया, जिसमें अदालत ने कहा कि Review एक अपील (Appeal) जैसा नहीं है और यह सिर्फ सीमित परिस्थितियों में ही दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार, केवल इसलिए कि कानून बदल गया है, पुराने निर्णय को गलत नहीं कहा जा सकता।

    भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 24(2) की भूमिका (Role of Section 24(2) of Land Acquisition Act, 2013)

    इस मामले की जड़ में Section 24(2) of Land Acquisition Act है, जिसमें यह बताया गया है कि यदि मुआवज़ा नहीं दिया गया हो या कब्ज़ा नहीं लिया गया हो, तो अधिग्रहण की प्रक्रिया रद्द मानी जाएगी।

    Pune केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा की एक उदार व्याख्या दी, जिससे ज़मीन मालिकों को फायदा मिला। लेकिन Indore केस में Constitution Bench ने सरकार के पक्ष में इस व्याख्या को सीमित कर दिया। इससे पहले दिए गए फैसलों पर असर पड़ा जो अब गलत साबित हो गए। इस स्थिति में न्यायपालिका को यह तय करना है कि क्या ऐसे पुराने फैसलों की समीक्षा होनी चाहिए।

    फैसले में मतभेद और Larger Bench को संदर्भ (Split Verdict and Reference to Larger Bench)

    जजों के मतभेद के कारण यह मामला अब बड़ी बेंच के पास भेजा गया है। यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे जुड़ी कई भूमि अधिग्रहण की याचिकाएं पूरे देश में लंबित हैं।

    यह सवाल अब न्यायपालिका के सामने है — क्या बाद में कानून बदलने के आधार पर पुराने फैसलों की समीक्षा हो सकती है? इसका उत्तर आने वाले समय में बड़ी बेंच तय करेगी।

    यह मामला एक गंभीर संवैधानिक और प्रक्रियात्मक प्रश्न उठाता है: क्या हर बार जब कानून बदलता है, तब पुराने फैसलों को दोबारा परखा जाना चाहिए?

    जस्टिस शाह का दृष्टिकोण न्याय और कानूनी शुद्धता (Correctness) को प्राथमिकता देता है, जबकि जस्टिस नागरत्ना न्यायिक प्रक्रिया की स्थायित्वता (Finality) को महत्व देती हैं।

    दोनों दृष्टिकोण भारतीय संविधान की मूलभावनाओं से प्रेरित हैं। अब इस पर अंतिम निर्णय Larger Bench द्वारा लिया जाएगा। तब तक यह फैसला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि न्यायिक व्यवस्था को त्रुटियों को सुधारने और स्थिरता बनाए रखने के बीच कैसे संतुलन बनाना चाहिए।

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