क्या किसी मौत की सज़ा पाए कैदी को 28 साल बाद नाबालिग मानकर रिहा किया जा सकता है?
Himanshu Mishra
20 May 2025 12:57 PM

सुप्रीम कोर्ट ने Narayan Chetanram Chaudhary v. State of Maharashtra (2023 LiveLaw (SC) 244) केस में एक ऐतिहासिक फैसला दिया। इस फैसले में कोर्ट ने एक ऐसे कैदी को रिहा कर दिया जिसे 5 हत्याओं के मामले में मौत की सजा दी गई थी और जो 28 साल से जेल में था।
कोर्ट ने माना कि जब यह अपराध हुआ था, उस समय वह व्यक्ति सिर्फ 12 साल 6 महीने का था यानी वह एक नाबालिग (Juvenile) था। यह फैसला Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 के Section 9(2) की व्याख्या (Interpretation) और उद्देश्य (Purpose) को उजागर करता है।
नाबालिग होने के दावे का कानून (Legal Framework on Juvenility)
इस केस की मुख्य बात Section 9(2) थी जो साफ कहती है कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी कोर्ट में, कभी भी यह दावा कर सकता है कि वह अपराध के समय नाबालिग था, और यह दावा अंतिम फैसले (Final Judgment) के बाद भी किया जा सकता है।
कोर्ट ने यह भी साफ किया कि ऐसा दावा करने के लिए ट्रायल जैसा पूरा कोर्ट प्रोसीजर अपनाना ज़रूरी नहीं है। अगर कोई व्यक्ति स्कूल का प्रमाणपत्र (School Certificate) या नगर पालिका (Municipal Record) से जन्म प्रमाणपत्र दे देता है, तो वह काफी होता है।
उम्र का अनुमान और तय करने का तरीका (Presumption and Determination of Age)
Section 94 के अनुसार, अगर किसी व्यक्ति की उम्र को लेकर संदेह हो, तो सबसे पहले स्कूल का प्रमाणपत्र या मेट्रिकुलेशन (Matriculation) का प्रमाणपत्र देखा जाएगा। अगर यह न मिले तो नगर पालिका या पंचायत से जन्म प्रमाणपत्र लिया जाएगा। इन सबके ना होने पर ही मेडिकल जांच जैसे कि हड्डियों की जांच (Ossification Test) करवाई जाएगी।
इस केस में आरोपी ने स्कूल रिकॉर्ड पेश किया जिसमें उसकी जन्म तिथि 1 फरवरी 1982 लिखी थी। इस हिसाब से अपराध के समय वह सिर्फ 12 साल 6 महीने का था।
Inquiry Judge की जांच और दस्तावेज़ों की वैधता (Inquiry Judge and Validity of Documents)
सुप्रीम कोर्ट ने पुणे के Principal District and Sessions Judge द्वारा की गई जांच को स्वीकार किया। इस जांच में आरोपी के स्कूल प्रमाणपत्र, ट्रांसफर सर्टिफिकेट, फैमिली कार्ड और अन्य सरकारी दस्तावेजों की जांच की गई।
राज्य सरकार (State) ने इन दस्तावेजों को नकली कहा, लेकिन कोर्ट ने कहा कि एक बार आरोपी अपनी बात दस्तावेज़ों से साबित कर दे, तो फिर राज्य को इसका मजबूत विरोध करना होगा। राज्य कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर पाई जिससे आरोपी की बात झूठी साबित हो सके।
पहले के फैसलों का उल्लेख (Reference to Past Judgments)
कोर्ट ने कई पुराने फैसलों का ज़िक्र किया, जैसे Hari Ram v. State of Rajasthan (2009) और Abdul Razzaq v. State of U.P. (2015) जिनमें कहा गया था कि नाबालिग होने का दावा केस खत्म होने के बाद भी किया जा सकता है।
Ashwani Kumar Saxena v. State of Madhya Pradesh (2012) में कोर्ट ने कहा था कि इस तरह की जांच में ट्रायल जैसी प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, और स्कूल रिकॉर्ड को प्रमुख (Primary) सबूत माना जाता है।
राज्य सरकार की आपत्तियों को नकारा गया (Rejection of State's Objections)
राज्य सरकार ने कहा कि आरोपी का असली नाम 'Narayan' था और बाद में उसने खुद को 'Niranaram' बताया। कोर्ट ने कहा कि नाम में बदलाव उच्चारण (Pronunciation) या रिकॉर्डिंग की गलती हो सकती है, लेकिन सभी दस्तावेजों में पिता का नाम 'Chetanram' ही था जो पहचान के लिए काफी है।
राज्य ने यह भी कहा कि पहले आरोपी की याचिका (Writ Petition) खारिज हो चुकी है, लेकिन कोर्ट ने साफ किया कि वो याचिका बिना कारण (Without Reason) खारिज हुई थी और वह इस केस में दोबारा नाबालिग होने का दावा करने से नहीं रोकती।
क्या गंभीर अपराधों में भी नाबालिग को राहत मिल सकती है? (Can Even Serious Offenders Claim Juvenility?)
कोर्ट ने कहा कि नाबालिग के साथ न्याय का मतलब उसे सुधारने का मौका देना होता है, सज़ा देना नहीं।
अगर अपराध करते समय वह 18 साल से कम उम्र का था, तो उसे मौत की सजा नहीं दी जा सकती और उसकी सजा सिर्फ 3 साल तक हो सकती है जैसा कि Juvenile Justice Act में है।
Raju v. State of Haryana (2019) और Shah Nawaz v. State of U.P. (2011) जैसे मामलों में भी कोर्ट ने कहा था कि स्कूल प्रमाणपत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता (Top Priority) दी जानी चाहिए।
Narayan Chetanram Chaudhary v. State of Maharashtra फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में Juvenile Justice कानून की ताकत और संवेदनशीलता को दर्शाता है। यह बताता है कि उम्र सिर्फ एक संख्या नहीं है, बल्कि यह पूरे केस की दिशा बदल सकती है।
यह निर्णय यह भी बताता है कि कानून केवल सज़ा देने के लिए नहीं, बल्कि न्याय और सुधार (Reformation) के लिए होता है।
इस फैसले से यह साफ हुआ कि नाबालिग होने का दावा सिर्फ एक तकनीकी बहाना नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक अधिकार है जो किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला निश्चित ही Juvenile Justice के क्षेत्र में मील का पत्थर है।