Transfer Of Property में कानून के इनफोर्समेंट से Burden पैदा होना

Himanshu Mishra

15 Feb 2025 4:31 AM

  • Transfer Of Property में कानून के इनफोर्समेंट से Burden पैदा होना

    Transfer Of Property के अन्तर्गत क़ानून के इनफ़ोर्समेंट से Burden निम्नलिखित प्रकरणों में होता है-

    धारा 55 (4) (ख) यदि विक्रेता को करार के अनुसार निर्धारित धनराशि का भुगतान नहीं हुआ हो।

    धारा 55 (6) (ख) के अन्तर्गत क्रेता को क्रय हेतु अग्रिम भुगतान के रूप में दी गयी धनराशि पर भार।

    पी० पी० रामकृष्णन बनाम पी० प्रभाकरन के वाद में प्रतिवादी ने अपनी सम्पत्ति प्रतिवादी को रु० 1,25,000/- मात्र में बेचने का करार किया। इस करार के तहत वादी ने प्रतिवादी को रु० 1,00,000/- मात्र का भुगतान अग्रिम प्रतिफल के रूप में कर दिया, पर प्रतिवादी ने करार के अनुसार सम्पत्ति का अन्तरण वादी के पक्ष में नहीं किया। यह भी साक्ष्यों के माध्यम से पाया गया कि वादी ने सम्पत्ति का कब्जा लेने से कभी माना नहीं किया था। यह माना गया कि वादी द्वारा दिया गया अग्रिम प्रतिफल विवादित सम्पत्ति पर भार है तथा प्रतिवादी से वादी उक्त रकम को प्राप्त करने का अधिकारी है।

    धारा 73 के अन्तर्गत बन्धकदार को प्राप्त भार।

    धारा 39 किसी अचल सम्पत्ति, जिसमें किसी अन्य व्यक्ति को भरण-पोषण अभिवर्द्धन या विवाह के लिए उपबन्ध किया गया हो।

    धारा 51 के अन्तर्गत दोषपूर्ण स्वामित्व वाले व्यक्ति द्वारा ऐसी सम्पत्ति पर को गयी अभिवृद्धियों पर बंधकदार का भार होता है।

    धारा 82 के अन्तर्गत अभिदाय के मामलों में भी भार का सृजन होता है।

    विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार के आधार-

    साधारणतया भार का सृजन पक्षकारों के बीच हुए करार के फलस्वरूप ही होता है पर देश में प्रचलित विधियाँ भी विभिन्न परिस्थितियों में दायित्वों का सृजन करती हैं और जब दायित्वारोपी अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करता है या उसमें विफल रहता है तब भार का सृजन होता है, क्योंकि विधिक दायित्व का अनुपालन नहीं हो पाया था। जैसे विक्रय संव्यवहार पूर्ण होने पर सम्पत्ति का कब्जा प्रदान करने में विफल रहना, ऐसी स्थिति में अग्रिम भुगतान वापस लौटाने का दायित्व होता है। इसी प्रकार क्रेता द्वारा विक्रेता को सम्पति का मूल्य अदा करने का दायित्व होता है। कतिपय दायित्य साधारण जीवन में इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि इनके लिए स्पष्ट करार करना वांछनीय नहीं माना गया है।

    कतिपय परिस्थितियों में यह भी माना जाता है कि इस प्रकार के भार के सृजन हेतु पक्षकारों ने सहमति दे दी है अतः सम्पत्ति के किसी भाग को विनिर्दिष्ट दावे की सन्तुष्टि के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकेगा। कभी-कभी न्याय दिलाने हेतु साम्या के आधार पर भी इस प्रकार भार का सृजन कोर्ट द्वारा किया जाता है जिससे पीड़ित पक्षकार को न्याय मिल सके विशेषकर उन परिस्थितियों में जबकि पक्षकारों ने अपने हितों की रक्षा स्पष्ट करार द्वारा ने कर लिया हो।

    विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार की विशेषताएं- इसको दो प्रमुख विशेषताएँ हैं

    (1) यह पक्षकारों की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है।

    (2) इस प्रकार के भार के सृजन हेतु रजिस्ट्री की आवश्यकता नहीं होती। विविध मामले साधारणतया भार का सृजन पक्षकारों के बीच हुए करार अथवा विधि के प्रवर्तन द्वारा होता है। किन्तु कई बार इसका सृजन इनसे भिन्न प्रक्रिया द्वारा भी होता है जैसे कोर्ट की डिक्री अथवा पंचों के निर्णय इत्यादि। ऐसे मामलों में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें किस कोटि में रखा जाए। यदि इनके स्वरूप का गम्भीरता से अध्ययन किया जाए तो यह कहने में सन्देह नहीं होगा कि ये विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार को कोटि में आएंगे कोर्ट की डिक्री विधिक प्रक्रिया के अनुपालन के फलस्वरूप अस्तित्व में आती है एवं कोर्ट की सम्पूर्ण कार्यवाही विधिक होती है। अतः डिक्री के फलस्वरूप सृजित भार इसी श्रेणी में आयेगा। इसी प्रकार पंच निर्णय के फलस्वरूप सृजित भार विधि के प्रवर्तन से सृजित भार की कोटि में आयेगा क्योंकि पंच निर्णय भी समाज द्वारा स्वीकृत एक विशिष्ट प्रक्रिया का ही परिणाम है। कतिपय मामलों में यह भी निर्णत हुआ कि है कि पंच निर्णय द्वारा सृजित भार इस धारा के अन्तर्गत शासित नहीं होती है अतः निष्पादन में उसे प्रवर्तित किया जा सकता है।

    भार से मिलते हुए अन्य संव्यवहार जो वास्तविक रूप में भार नहीं हैं इसके अन्तर्गत निम्नलिखित मामले आते हैं-

    (1) सह भागीदार- किसी सहभागीदार ने यदि सह खातेदार के हिस्से पर देय मालगुजारी या किसी अन्य राजस्व का भुगतान कर दिया है तो इसी तथ्य मात्र से उसे अन्य सहखातेदार के भाग पर भार नहीं दिया जा सकता है।

    (2) सामान्य महाजन- यदि कोई व्यक्ति सामान्य महाजन की स्थिति में है अर्थात् किसी व्यक्ति को रकम उधार दिया हो तथा एक स्वतंत्र व्यवहार के रूप में यदि ऋणों को कोई चल या अचल सम्पत्ति महाजन के कब्जे में आ गई हो तो किसी भी भारतीय व्यवस्था के अन्तर्गत महाजन को उस सम्पत्ति पर कोई भी भार नहीं प्राप्त हो सकता

    (3) बन्धक के लिए करार या अवैध बन्धक न तो बन्धक कहा जा सकता है और न ही धारा 108 के अन्तर्गत भार की सृष्टि करता है।

    संव्यवहार बन्धक की कोटि में नहीं आता-

    भार एवं बंधक में अंतर

    भार के सृजन के लिए यह आवश्यक है कि संव्यवहार बंधक के तुल्य न हो। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि बन्धक में सम्पत्ति का अन्तरण होता है, जबकि भार में सम्पत्ति का अन्तरण नहीं होता है अथवा न ही किसी अधिकार का सृजन होता है। भार एवं बन्धक में विभेद है पर दोनों के बीच विभेद करना सहज नहीं होता है। भार एवं बन्धक के बीच निम्नलिखित भेद हैं-

    बन्धक में एक विशिष्ट अचल सम्पत्ति में हित का अन्तरण होता है; भार में किसी हित का अन्तरण नहीं होता है, यद्यपि सम्पत्ति ऋण के भुगतान के लिए प्रतिभूति बनायी जाती है।

    बन्धक केवल पक्षकारों के कृत्य से सृजित होता है, विधि के प्रवर्तन द्वारा नहीं। भार पक्षकारों के कृत्य द्वारा एवं विधि के प्रवर्तन दोनों ही द्वारा सृजित होता है।

    एक बन्धक समस्त पाश्चिक अन्तरितियों को प्रभावित करता है पर भार बिना नोटिस के नहीं प्रभावित करता है।

    भार प्रवर्तनीय हो सकेगा मात्र कोर्ट द्वारा सम्पत्ति के विक्रय से, जबकि एक बन्धक प्रवर्तनीय हो सकेगा सम्पत्ति अन्तरण की धारा 67, 68 एवं 69 के अन्तर्गत अर्थात् धनराशि एवं विक्रय के प्रयोजनार्थ पुरोबन्ध हेतु वाद संस्थित क करना

    बन्धक की तुलना में भार एक व्यापक "शब्द" है। प्रत्येक बन्धक एक भार है पर प्रत्येक भार, बन्धक नहीं।

    12 वर्ष की कालावधि के भीतर भार को प्रवर्तनीय बनाया जा सकेगा परन्तु सादा बन्धक को छोड़कर, जिसे 12 वर्ष में प्रवर्तनीय बनाया जा सकेगा, अन्य समस्त प्रकार के बन्धक 30 वर्ष को कालावधि में प्रवर्तनीय हो सकेंगे।

    सुप्रीम कोर्ट ने मेसर्स जे० एण्ड के० (बाम्बे) प्रा० लि० बनाम मेसर्स न्यू कैंसर हिन्द स्पिनिंग एवं बीविंग के लि० के मामले में निम्नलिखित शब्दों में अभिमत व्यक्त किया है 'भार एवं बन्धक में विभेद सुस्पष्ट है, जब कि भार में सम्पत्ति में के हित का अन्तरण नहीं होता है और न ही किसी अन्य हित का, अपितु इसमें एक विशिष्ट सम्पत्ति में या उसमें से निहित में से भुगतान का अधिकार मात्र सृजित होता है। भार के सृजन हेतु किसी विशिष्ट प्रकार के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती तथा जो कुछ भी आवश्यक है वह केवल इतना ही है कि धन के वर्तमान में संदाय हेतु किसी सम्पत्ति को प्रतिभूति बनाने को सुस्पष्ट मंशा अभिव्यक्त हो।" किशनलाल बनाम गंगाराम के वाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंगित किया है कि एक बन्धक "जस इन रेम" अर्थात् पूर्ण अधिकार प्रदान करता है जबकि भार मात्र "जस एड रेम"" अर्थात अपूर्ण अधिकार प्रदान करता है क्योंकि इसमें कब्जा नहीं प्रदान किया जाता है। एक बन्धक सभी पाश्चिक अन्तरितियों के विरुद्ध प्रभावी होता है जबकि भार केवल उन अन्तरितियों के विरुद्ध प्रभावी होता है जो भार की सूचना के साथ सम्पत्ति प्राप्त करते हैं।

    हित का अन्तरण बन्धक में किसी सम्पत्ति में के हित विशेष का अन्तरण बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार को किया जाता है। इसके विपरीत भार में किसी भी हित का अन्तरण नहीं होता है। भार किसी कर्ज या ऋण की अदायगी की गारण्टी मात्र होता है।

    सृजन- बन्धक का सृजन केवल पक्षकारों के कृत्य द्वारा होता है जबकि भार का सृजन पक्षकारों के कृत्य अथवा विधि के प्रवर्तन दोनों द्वारा होता है।

    प्रवर्तन - बन्धक का प्रवर्तन नोटिस द्वारा प्रभावित नहीं होता है अर्थात् सभी पाश्चिक अन्तरिती बन्धक से प्रभावित होते हैं चाहे उन्होंने बन्धक सम्पत्ति को बन्धक की सूचना के अथवा बिना सूचना के प्राप्त किया हो। पर भार में यह तभी प्रभावी होगा जब सम्पत्ति भार की सूचना के साथ प्राप्त की गयी हो। दूसरे शब्दों में निष्कपट एवं सप्रतिफल अन्तरितों के विरुद्ध भार प्रवर्तित नहीं होगा।

    औपचारिकताएं- यदि भार का सृजन पक्षकारों के कृत्य से हो रहा है तो यह संव्यवहार तभी वैध होगा जब पंजीकृत विलेख द्वारा भार सृजन की प्रक्रिया पूर्ण की गयी हो विधि द्वारा सृजित भार में रजिस्ट्री आवश्यक नहीं है। बन्धक के संव्यवहार में रजिस्ट्री के साथ ही अन्य अनेक औपचारिकताएं पूर्ण करनी होती हैं जैसे कब्जा प्रदान करना भोग बन्धक के प्रकरण में एवं सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में अनुप्रमाणन इत्यादि।

    दायित्व बन्धककर्ता सम्पत्ति का बन्धक करने के लिए अर्ह होना चाहिए अर्थात् सम्पत्ति का बन्धक करने का अधिकार बन्धककर्ता में निहित होना चाहिए एवं बन्धक की जाने वाली सम्पत्ति अन्तरणीय होनी चाहिए। भार में इन तथ्यों पर बल नहीं दिया गया है।

    अवधि - बन्धक एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है। भार एक निश्चित अवधि के लिए अथवा शाश्वत हो सकता है। बन्धक में मोचन सदैव निहित है जबकि भार में नहीं।

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