घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में मजिस्ट्रेट के दिए गए संरक्षण आदेश का भंग किया जाना
Shadab Salim
17 Oct 2025 9:49 AM IST

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 संरक्षण आदेश, अन्तिम अथवा अन्तरिम के भंग को उक्त अधिनियम के अधीन अपराध बनाता है। उसमें विहित परिसीमा अवधि की समाप्ति के पश्चात् संज्ञान लेने के लिए रोक विहित करते हुए बीएनएसएस को प्रयोज्यनीयता का विवाद घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अधीन यथा अभिव्यक्त ऐसे अपराध का केवल संज्ञान लेने के समय ही उद्भूत होगा। प्रत्यर्थीगण के अभिकथित अभित्यजन की तारीख पर कोई संरक्षण आदेश नहीं था और इसके कारण उक्त घटना को उक्त अधिनियम की धारा 31 के अधीन यथा अभिव्यक्त उसे अपराध में परिवर्तित करते हुए कोई भंग नहीं हो सकता था। इस प्रकार संरक्षण आदेश के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन आवेदक द्वारा प्रस्तुत किये गये आवेदन को घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 के अधीन अपराध के परिवाद के रूप में नहीं समझा जा सकता है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अधीन याचिका पोषणीय होती है, हालांकि घरेलू हिंसा का कृत्य अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पहले कारित किया गया हो अथवा उसके अतीत में साझी गृहस्थी में प्रत्यर्थी के साथ एक साथ रहने के बावजूद महिला अधिनियम के प्रवर्तन में आने के समय अब उसके साथ न हो। मजिस्ट्रेट के लिए ऐसी महिला के द्वारा याचिका पर अधिनियम की धारा 12, 18, 19, 20, 21, 22 अथवा 23 के प्रावधानों के अधीन उपयुक्त आदेश पारित करने का विकल्प प्राप्त होता है तथा व्यक्ति, जो ऐसी महिला के द्वारा दाखिल किये गये आवेदन पर पारित किये गये संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का भंग कारित करता है, अधिनियम की धारा 31 के अधीन दण्ड के लिए दायी होगा
भरण-पोषण प्रदान करने वाला आदेश अधिनियम की धारा 23 के अधीन है। यदि यह एकपक्षीय या कार्यवाही के पक्षकारों को सुनने के पश्चात् पारित किया जाता है और उस आदेश को सहन करने के पश्चात् ही आदेश के ज्ञान के साथ, यदि प्रत्यर्थी साशय ऐसे आदेश का उल्लंघन करता है या दुरुपयोग करता है, तो इसे घरेलू हिंसा से प्रतिषिद्ध करने के लिए या अधिनियम की धारा 18 के अधीन पीड़ित का संरक्षण करने के लिए पारित किये गये परिकल्पित आदेश के रूप में माना जायेगा। ऐसा उल्लंघन इस धारा के अधीन दण्डनीय है, जब तक ऐसा आदेश प्रवर्तनीय है, यदि ऐसा आदेश सक्षम कोर्ट द्वारा विखण्डित या रद्द नहीं किया जाता।
संरक्षण आदेश का अपालन अधिनियम की धारा 31 के अधीन यथोपबन्धित संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का अपालन दण्डनीय बनाया गया है और इसके कारण यह कहा जा सकता है कि इस अपराध के लिए परिवाद केवल ऐसे वयस्क पुरुष/प्रत्यर्थी के विरुद्ध हो दाखिल किया जा सकता है, जो संरक्षण आदेश का अनुपालन नहीं किया है। इसलिए, यह स्पष्ट है कि अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन, जिसे प्रत्यर्थी के द्वारा याचीगण, जो वयस्क पुरुष नहीं, के विरुद्ध दाखिल किया गया है, पोषणीय नहीं है।
संरक्षण आदेश का उल्लंघन डेन्निसन पाल राज बनाम माया विनोला (2009) के मामले में मद्रास हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया है कि चूंकि अधिनियम की धारा 31 के अधीन दाण्डिक परिणाम केवल तब आकर्षित होते है, यदि संरक्षण आदेश पारित किया गया हो और प्रत्यर्थी उस आदेश का भंग कारित करता है। दाण्डिक परिणाम संरक्षण आदेश की तारीख से, न कि घरेलू हिंसा के कृत्यों के तारीख के समादेशित होता है और इसलिए कोर्ट अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पहले कारित किये गये घरेलू हिंसा के कृत्यों का संज्ञान लेने और आवश्यक संरक्षण आदेश पारित करने के लिए सक्षम था। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पहले भी कारित किये जाने के लिए अभिकथित हिंसा के कृत्यों का भूतकालीन रूप से संज्ञान लेने के लिए प्रयोग किया जा सकता था।
संरक्षण आदेश के भंग के लिए शास्ति अधिनियम में समाविष्ट दाण्डिक प्रावधान धारा 31 और 33 है, जो क्रमशः प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के भंग के लिए और संरक्षण अधिकारी द्वारा कर्तव्य का निर्वहन न करने के लिए शास्ति का प्रावधान करते हैं। स्पष्ट रूप से धारा 31 और 33 के अधीन यथापूर्वोक्त उपबन्धित दण्ड अधिनियम के अधीन कारित किये गये अपराध के लिए शास्तियां हैं और इसका इसके कारण घरेलू हिंसा के कृत्य साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही की विषयवस्तु थी, जिसमें संरक्षण आदेश पारित किया गया था।
यह कहना पर्याप्त है कि धारा 18 से 23 के प्रावधानों के निम्बन्धनों में अनुतोष न तो व्यथित व्यक्ति को प्रदान किया जाना है, न ही धारा 31 और 33 के अधीन कार्यवाही अधिनियम के प्रारम्भ के पहले कारित किये गये घरेलू हिंसा के कृत्य को दण्डनीय बनाती है और इसलिए अनुच्छेद 20 (1) के प्रावधान मामले में आकर्षित नहीं होते हैं।
एक मामले में कहा गया है कि धारा 31 प्रत्यर्थी, जिसमें वह स्त्री शामिल है, जो संरक्षण आदेश का भंग कारित करती है, द्वारा संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश के भंग के लिए शास्ति का वर्णन करती है। धारा 31 की उपधारा (3) यह प्राधिकृत करती है कि मजिस्ट्रेट धारा 31 की उपधारा (1) के अधीन आरोप विरचित करते समय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क अथवा भारतीय दण्ड संहिता के किसी अन्य प्रावधान के अधीन अथवा दहेज प्रतिषेध अधिनियम, जैसो भी स्थिति हो, के अधीन भी आरोप विरचित कर सकता है।
अजय कान्त बनाम श्रीमती अल्का शर्मा, 2008 के मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह अभिनिर्धारित करने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में पद परिवाद की परिभाषा पर विश्वास व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (घ) का परन्तुक केवल अपराध कारित करने के सम्बन्ध में ही परिवाद से सम्बन्धित है। इसमें निम्न प्रकार से संप्रेक्षण किया गया था:
"इस परिभाषा के द्वारा स्पष्ट है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में यथोपबन्धित परिवाद केवल अपराध के लिए ही हो सकता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, इस अधिनियम में केवल दो अपराधों का उल्लेख किया गया है और वे (1) धारा 31 के अधीन और (2) धारा 33 के अधीन होते हैं। यह प्रतीत होता है कि प्रत्यर्थी को परिभाषा में विद्यमान शब्द परिवाद का प्रयोग इन दोनों अपराधों के लिए कार्यवाही संस्थित करने हेतु किया गया है और व्यथित पत्नी अथवा विवाह की प्रकृति के सम्बन्ध में रहने वाली महिला को पति अथवा पुरुष भागीदार के नातेदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
शब्द परिवाद पर इस धारा के मुख्य प्रावधान, जिसे धारा 2 (थ) के पहले भाग में परिभाषित किया गया है, जो इस अधिनियम के अधीन अनुतोष के लिए हैं के क्षेत्र के परे विचार नहीं किया जा सकता है। जैसा कि अधिनियम की धारा 31 में प्रावधान किया गया है, परिवाद किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जो संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश का अनुपालन नहीं किया है, दाखिल किया जा सकता है।
धनीय अनुतोष का आदेश अपराध, जो धारा 31 के द्वारा सृजित किया गया है, विनिर्दिष्ट रूप से संरक्षण आदेश अथवा अन्तरिम संरक्षण आदेश के भंग के सम्बन्ध में है। पद "धनीय अनुतोष" को इस धारा में शामिल नहीं किया गया है, और एतद्वारा अधिनियम 2005 को धारा 31 के प्रवर्तन से धनीय अनुतोष के किसी आदेश को लिया गया है। कोई आवेदक, जिसके पक्ष में धनीय अनुतोष का आदेश पारित किया गया है, अधिनियम, 2005 की धारा 20 के अनुसार आदेश के निष्पादन के लिए मांग करते हुए मजिस्ट्रेट के समक्ष, उसको आवेदन प्रस्तुत करना है।
विधायन की प्रकृति तथा उस प्रयोजन को, जिसके लिए इसे अधिनियमित किया गया था, देखते हुए एतद्वारा यह निर्देशित किया जाता है कि अब से आगे अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अधीन धनीय अनुतोष के सभी आदेश बी एन एस एस की धारा 144 के अधीन उपबन्धित रीति से, परन्तु ऐसे उपान्तरण के साथ निष्पादित किये जायेंगे कि ऐसे निष्पादन के लिए कोई औपचारिक आवेदन आवश्यक नहीं होगा। ज्योंहि धनीय अनुतोष को निर्देशित करने के लिए अधिनियम, 2005 की धारा 12 अथवा 23 के अधीन आदेश पारित किया जाता है, त्योंही उसे निष्पादित किया जायेगा।

