बेघर फाउंडेशन बनाम जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी: आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में चुनौती का विश्लेषण

Himanshu Mishra

18 Sept 2024 6:15 PM IST

  • बेघर फाउंडेशन बनाम जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी: आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में चुनौती का विश्लेषण

    बेघर फाउंडेशन बनाम जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) के मामले में आधार अधिनियम (Aadhaar Act) और उसके मनी बिल (Money Bill) के रूप में वर्गीकरण की संवैधानिक चुनौती पर बहस हुई। यह केस विशेष रूप से आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में पारित किए जाने की वैधता पर केंद्रित था और यह सवाल उठाया गया कि क्या लोकसभा अध्यक्ष (Speaker of the Lok Sabha) के निर्णय की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की जा सकती है।

    यह समीक्षा याचिका (Review Petition) सुप्रीम कोर्ट के 26 सितंबर 2018 के फैसले पर आधारित थी, जिसमें आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में मान्यता दी गई थी। इस फैसले में यह भी सवाल उठाया गया कि क्या न्यायालय लोकसभा अध्यक्ष के फैसले की समीक्षा कर सकता है, जो कि संसदीय प्रक्रिया (Parliamentary Procedure) के तहत आता है।

    मामले के तथ्य (Facts of the Case)

    आधार अधिनियम को संसद द्वारा मनी बिल के रूप में पारित किया गया था, जो कि संविधान के अनुच्छेद 110 (Article 110) के तहत आता है। मनी बिल के रूप में पारित होने के कारण इस बिल को केवल लोकसभा से पारित करना जरूरी था और राज्यसभा (Rajya Sabha) में इसे केवल सुझावों के लिए भेजा जा सकता था, लेकिन उसे मंजूरी देने की आवश्यकता नहीं थी।

    इस अधिनियम को मनी बिल के रूप में वर्गीकृत करने पर चुनौती दी गई, जिसमें तर्क दिया गया कि इस अधिनियम की कई धाराएं मनी बिल की परिभाषा के दायरे से बाहर थीं, और इस तरह राज्यसभा की भूमिका को नजरअंदाज करना संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन था।

    इससे पहले पुट्टस्वामी (आधार-5J) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में सही ठहराया था। याचिकाकर्ताओं ने इस निर्णय की समीक्षा की मांग की, यह कहते हुए कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जानी चाहिए।

    संविधान से जुड़े प्रमुख प्रावधान (Key Constitutional Provisions Involved)

    1. अनुच्छेद 110 – मनी बिल (Money Bill)

    अनुच्छेद 110 मनी बिल को परिभाषित करता है और इसमें बताया गया है कि कोई भी बिल मनी बिल तभी माना जाएगा जब वह विशेष रूप से कराधान (Taxation), निधियों का विनियोजन (Appropriation of Funds), या भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) से व्यय से संबंधित हो। इस मामले में यह सवाल था कि आधार अधिनियम, जिसमें व्यक्तिगत पहचान और सब्सिडी वितरण शामिल था, क्या मनी बिल के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

    2. अनुच्छेद 122 – संसदीय कार्यवाही में गैर-हस्तक्षेप (Non-Judicial Interference in Parliamentary Proceedings)

    अनुच्छेद 122 के अनुसार, अदालतें संसदीय प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि अगर लोकसभा अध्यक्ष का प्रमाणन (Certification) संविधान का उल्लंघन करता है, तो यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है। यह सवाल उठा कि क्या अनुच्छेद 110(3), जो अध्यक्ष को मनी बिल प्रमाणित करने का अधिकार देता है, न्यायिक जांच से मुक्त है।

    उठाए गए प्रमुख कानूनी मुद्दे (Legal Issues Raised)

    1. आधार अधिनियम का मनी बिल के रूप में प्रमाणन (Certification of the Aadhaar Act as a Money Bill)

    मुख्य मुद्दा यह था कि आधार अधिनियम, जिसमें बायोमेट्रिक डेटा और व्यक्तिगत जानकारी जैसी धारणाएं शामिल हैं, क्या अनुच्छेद 110 के तहत मनी बिल के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अधिनियम की कई धाराएं मनी बिल की परिभाषा के दायरे में नहीं आतीं, और इस प्रकार यह प्रक्रिया संविधान का उल्लंघन करती है।

    2. लोकसभा अध्यक्ष के फैसले की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review of the Speaker's Decision)

    एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या लोकसभा अध्यक्ष के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अगर अध्यक्ष का फैसला संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो इसे न्यायालय द्वारा चुनौती दी जा सकती है।

    सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Supreme Court's Analysis)

    1. बहुमत का मत (Puttaswamy Aadhaar-5J में Majority Opinion)

    सुप्रीम कोर्ट के बहुमत ने आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में वर्गीकृत करने के फैसले को सही ठहराया। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि आधार अधिनियम की धारा 7, जो सब्सिडी के लक्षित वितरण से संबंधित थी, अधिनियम के केंद्रीय भाग के रूप में थी और इस प्रकार इसे मनी बिल के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता था। बहुमत ने यह भी माना कि अध्यक्ष के फैसले पर न्यायिक समीक्षा सीमित होनी चाहिए क्योंकि यह संसदीय कार्यवाही के तहत आता है।

    2. अल्पमत का मत (Dissenting Opinion)

    असहमति व्यक्त करने वाले न्यायाधीशों ने बहुमत से असहमति जताई और तर्क दिया कि आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में वर्गीकृत करना अनुच्छेद 110 की गलत व्याख्या थी। उनका मानना था कि न्यायिक समीक्षा लागू होनी चाहिए ताकि लोकसभा अध्यक्ष के अधिकारों पर संवैधानिक सीमाएं सुनिश्चित की जा सकें। असहमति ने यह भी कहा कि राज्यसभा को दरकिनार करके इस तरह का महत्वपूर्ण कानून पारित करना bicameral संसद (दो सदनों वाली संसद) के सिद्धांत के खिलाफ था।

    3. समीक्षा याचिका (Review Petition)

    बेघर फाउंडेशन द्वारा दाखिल की गई इस समीक्षा याचिका में आधार अधिनियम के मनी बिल के रूप में वर्गीकरण को फिर से विचार करने की मांग की गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि आधार अधिनियम की कई धाराएं मनी बिल की परिभाषा के दायरे में नहीं आतीं और लोकसभा अध्यक्ष का प्रमाणन असंवैधानिक था। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यसभा की भूमिका को नजरअंदाज करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन था।

    न्यायालय का फैसला (Judgment)

    सुप्रीम कोर्ट ने समीक्षा याचिकाओं को खारिज कर दिया और कहा कि Puttaswamy (Aadhaar-5J) मामले में दिए गए निर्णय को पुनर्विचार करने के लिए कोई नए आधार नहीं थे। अदालत ने कहा कि लोकसभा अध्यक्ष का आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में प्रमाणित करने का निर्णय संवैधानिक रूप से सही था और इसे पलटने के लिए कोई कारण नहीं है।

    हालांकि, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने असहमति जताते हुए कहा कि समीक्षा याचिकाओं को तब तक लंबित रहना चाहिए जब तक कि मनी बिल के मुद्दे पर एक बड़ी बेंच विचार नहीं करती, खासकर रोजर मैथ्यू मामले के मद्देनजर, जो मनी बिल के वर्गीकरण से संबंधित था। उन्होंने कहा कि समीक्षा याचिकाओं को जल्दी खारिज करना न्यायिक स्थिरता और कानून के शासन के लिए हानिकारक हो सकता है।

    बेघर फाउंडेशन बनाम जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी मामला आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में वर्गीकृत करने पर संवैधानिक बहस को उजागर करता है। सुप्रीम कोर्ट के बहुमत ने आधार अधिनियम को मनी बिल के रूप में पारित करने को सही ठहराया और कहा कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले पर न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित है। हालांकि, असहमति ने लोकसभा अध्यक्ष के अधिकारों पर नियंत्रण की आवश्यकता को रेखांकित किया और न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता को सामने रखा। यह मामला संसदीय संप्रभुता (Parliamentary Sovereignty) और संविधान की रक्षा के लिए न्यायपालिका की भूमिका के बीच संतुलन पर जोर देता है।

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