Arbitration And Conciliation Act में Arbitration और Arbitration Agreement
Shadab Salim
30 Jun 2025 9:13 AM

इस एक्ट की धारा 2 (1) (a) के अनुसार माध्यस्थम् से अभिप्रेत है कोई भी मध्यस्थ चाहे स्थाई माध्यस्थम् संस्था द्वारा प्रायोजित किया जाये या न किया जाये।
इस परिभाषा में वे व्यक्ति भी शामिल हैं जो व्यक्तिगत पक्षकारों के स्वैच्छिक करार पर आधारित हो या विधि के प्रावधानों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये हों। पर परिभाषा यह नहीं बताती है कि कौन मध्यस्थ है बल्कि यह उल्लेखित करती है कि कौन-कौन मध्यस्थ हैं। पुराने अधिनियम में भी मध्यस्थ की परिभाषा नहीं दी गई थी।
सामान्य भाषा में माध्यस्थम् का अर्थ पक्षकारों के पारस्परिक समझ अथवा करार द्वारा विवादों या मतभेदों के उस हल या समझौते से है जिसके द्वारा पक्षकारों के अधिकारों तथा दायित्वों का निर्धारण हुआ हो। मध्यस्थम का एक अर्थ यह है कि पक्षकारों के अधिकार तथा दायित्व को ध्यान में रखकर कोई ऐसा निर्णय करने वाली संस्था या व्यक्ति है जो दोनों पक्षकारों के मध्य तारतम्य स्थापित कर सकें।
बालमुकुद पांडे बनाम वी के सिंह ए आई आर 2010 के मामले में कहा गया है कि मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए तथ्य माध्यस्तम आवेदन प्रस्तुत किया जिस के अनुसरण में एकमात्र मध्यस्थ को नियुक्त किया गया। यह कथित तारीक से स्पष्ट है कि जब पक्षों ने मध्यस्थम कार्यवाही के लिए विवाद को निर्दिष्ट करने के लिए निवेदन किया तब अधिनियम 1940 का प्रवर्तन बंद हो गया था तथा अधिनियम 1996 प्रवर्तनीय हो गया।
अतएव माध्यस्थम अधिनियम 1996 के उपबंधों के अधीन याची के दावे को ग्रहण करने में सही ढंग से जारी किया अधिनियम माध्यस्थम कार्यवाहियों को व्यवस्थित करने के लिए माध्यस्थम अधिकरण को सशक्त करती है। जहां दावेदार बगैर कारण दर्शित किए बिना धारा 23 की उपधारा 1 के अनुसार दावे के अपने कथनों को संसूचित करने में असमर्थ हो जाता है।
इस अधिनियम में माध्यस्थम की स्पष्ट परिभाषा तो नहीं मिलती है परंतु इतना समझा जा सकता है कि पक्षों के बीच समझौता कराने वाली हर संस्था या व्यक्ति माध्यस्थम है, जैसे कि इस अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए माध्यस्थम अधिकरण।
धारा 2 (1) (b) में Arbitration Agreement उल्लेखित किया गया है। माध्यस्थम् करार से अभिप्राय धारा 7 में निर्देशित किये गये एक करार से है।
इस प्रकार यह धारा माध्यस्थम् करार को परिभाषित नहीं करती है बल्कि यह उल्लेखित करती है कि माध्यस्थम् करार का वही अर्थ है जो कि अधिनियम की धारा 7 में बताया गया है। धारा 7 के अनुसार "माध्यस्थम् करार" मध्यस्थ को उन सभी या कुछ विवादों को माध्यस्थम द्वारा निपटान करने के लिये पक्षकारों द्वारा एक करार से अभिप्रेत है जो उद्भूत हो गये हैं या उद्भूत हो सकते हैं।
माध्यस्थम करार व्यापारिक संविदा के अन्तर्गत एक प्राविधान के रूप में हो सकता है या दोनों पक्षों के द्वारा माध्यस्थम का आशय रखने के कारण आपसी पत्र व्यवहार के टेलेक्स, टेलीफोन, टेलीग्राम या अन्य संचार माध्यमों के द्वारा जहाँ बातचीत का रिकार्ड मिल सके, में भी माध्यस्थम करार मान लिया जाता है। माध्यस्थम करार का कोई प्रारूप नहीं निश्चित हैं परन्तु यह लिखित होना चाहिए। किन्तु किसी रजिस्टर्ड सोसाइटी के संविधान में माध्यस्थम का उल्लेख मध्यस्थम करार नहीं माना गया है।
इस अधिनियम की धारा 7 से संबंधित एक प्रकरण में कहा गया है कि जहां उन्हें ज्ञात सर्वोत्तम कारणों से एक करार उनके द्वारा सम्मानित किए जाने के लिए प्रस्तावित एक कंपनी की ओर से पंप होटल्स लिमिटेड के प्रवर्तकों द्वारा नहीं किया गया अपितु एक अस्तित्व स्टील कंपनी होने का दावा करने वाली एक गैर अस्तित्व स्टील कंपनी द्वारा किया गया था वहां यह माना गया है कि पक्षकारों के बीच कोई माध्यस्थम करार नहीं किया गया।
विजय कुमार शर्मा बनाम रघुनंदन शर्मा 2010 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थम करार को लिखित एवं पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। जिसमें यह लिखा होना चाहिए की पक्षकारों के बीच विवाद को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए तथा मध्यस्थ द्वारा निर्णीत किया जाना चाहिए। माध्यस्थम के लिए करार की अनुपस्थिति में मुख्य न्यायमूर्ति के नाम निर्देशित ने यह कल्पना कर धारा 11(6) सहपठित धारा 14(1) और 15( 2) के अधीन दाखिल किए गए नए मध्यस्थ की नियुक्ति करने के लिए आवेदन पत्र अनुज्ञात करने में गंभीर गलती की थी कि बिल में ऐसा पैरा एक माध्यस्थम करार था।