Arbitration And Conciliation Act में Arbitral Award और International Commercial Arbitration

Shadab Salim

30 Jun 2025 2:47 PM IST

  • Arbitration And Conciliation Act में Arbitral Award और International Commercial Arbitration

    इस एक्ट की धारा 2 (1) (c) के अनुसार "मध्यस्थ पंचाट" के अन्तर्गत एक अन्तरिम पंचाट का उल्लेख किया गया है।

    यह धारा "माध्यस्थम् पंचाट" को परिभाषित नहीं करती बल्कि यह बताती है कि माध्यस्थम् पंचाट में अन्तरिम पंचाट भी शामिल है। इस प्रकार माध्यस्थम् पंचाट में दो भाग है-

    Interim Award

    Final Award

    सामान्य तौर पर मध्यस्थ पंचाट पक्षकारों द्वारा चयनित न्यायाधिकरण के द्वारा अन्तिम अन्तरिम निर्णय या अविनिश्चिय होता है जो संविदा से पैदा होता है। भारत संघ बनाम जे० एन० मिश्र, AIR 1970 SC 753 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि अन्तिम पंचाट पर पहुंचने से पहले मध्यस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि उसने दावों तथा प्रतिदावों पर अर्द्धन्यायिक रूप से विचार किया हो।

    पंचाट मध्यस्थम द्वारा दिया गया अधिनिर्णय हैं। इस प्रकार के अधिनिर्णय को अपास्त भी किया जा सकता है। एक मामले में कहा गया है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के प्रावधानों के लागू होने पर वहां जोर नहीं दिया जा सकता जहां अधिनियम 1996 की धारा 34 के अधीन विलंबित आवेदन पत्र दाखिल किया गया। वहां अधिनियम 1996 के अधीन पारित किए गए एक अधिनिर्णय को अपास्त करने का अधिकार एक वह कानूनी अधिकार है जिसका प्रयोग कथित अधिनियम के उपबंधनों में यथावत प्रयोग किया जाना पड़ता है।

    माध्यस्थम करार के अभाव में किसी भी विवाद के मध्यस्थम को निर्देशित करना संभव नहीं होता है। एक प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां संविदा के पक्षकारों ने लिखित रूप से यह कर दिया कि संविदा का पूर्णतः या अंतिम रूप से उन्मोचन कर दिया गया है और कोई दावा या विवाद था वहां मध्यस्थम खंड का अवलंब नहीं किया जा सकता क्योंकि पंचाट योग्य विवाद उत्तरजीवी नहीं रहता।

    इस मामले में पूरक करार मूल करार के अधीन पूर्ण एवं अंतिम निपटारे के लिए मध्यस्थम खंड को सम्मिलित कर संविदा के उन्मूलन के लिए पक्षकारों के बीच हुआ संपूर्ण रकम की प्राप्ति पूरक करार के निष्पादन का दमन करके प्रत्यर्थी संविदाकर्ता मध्यस्थम को विवादों के निर्देश के लिए हाईकोर्ट के समक्ष आवेदन पत्र दाखिल किया और तथ्यों का मूल्यांकन किए बिना हाईकोर्ट मार्गदर्शन के मध्यस्थम के लिए मामले को निर्देशित किया और इसलिए हाईकोर्ट के आदेश को अपास्त कर दिया।

    International Commercial Arbitration धारा 2 (1) (1) के अनुरूत अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य मध्यस्य विधिक नातेदारी से उद्भूत होने वाले विवादों से सम्बन्धित एक माध्यस्थम् है चाहे भारत को लागू किसी विधि के अधीन वाणिज्यिक के समान मानस जाये और वहाँ पक्षकारों में कम से कम एक हो।

    एक व्यक्ति जो भारत से भिन्न किसी दूसरे देश का आभ्यासिक तौर पर निवासी हो या नागरिक हो,

    एक निगमित निकाय जिसे भारत से भिन्न किसी दूसरे देश में सम्मिलित किया जाता हो, या

    एक कम्पनी या एक संगम या उन व्यक्तियों का निकाय जिसका केन्द्रीय प्रबन्धन और नियंत्रण भारत से भिन्न किसी देश से किया जाता हो।

    अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य करार के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि करार के दो वर्णित वर्गों के दूसरे के अधीन आने वाला प्रतीत होता है। मूल संविदा कोई निशान नहीं होता करार एक से अद्भुत होने वाली पारस्परिक उपबंधनो का अभिपालन किया जाना होता है। दूसरी ओर अमेरिकी कंपनी के विरुद्ध करार अद्भुत होने वाली बाध्यता को परिवर्तित करने के लिए अधिकार को करार दो के अधीन एक अभिव्यक्त प्रसंविदा द्वारा करार करता है। करार दो संभवत वहां एक अभिकरण का सृजन करता है जहां कि अमेरिकी कंपनी मूल है और प्रत्यर्थी का अभिकर्ता है।

    यह वह है जिसका प्रतिनिधि पालन के लिए एक करार या उपसंविदा करने वाले के रूप में कतिपय मामलों में उल्लेख किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को बढ़ाने में शीघ्रता करता है कि सुप्रीम कोर्ट इस प्रश्न पर कोई निश्चयात्मक राय नहीं अभिव्यक्त कर सकता क्योंकि कोई भी तर्क इस निमित्त सुप्रीम कोर्ट के समक्ष किसी भी ओर से नहीं किया गया था।

    बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम के बालाजी एआईआर 2018 सुप्रीम कोर्ट 1382 के मामले में कहा गया है यदि अधिनियम के प्रावधान लागू होते हैं तो विदेशी एडवोकेटस को एडवोकेट अधिनियम की धारा 32 और 33 को ध्यान में रखते हुए माध्यस्थम कार्यवाही से वर्जित कर दिया जाता है तो भारतीय विधिक परिषद तथा केंद्रीय सरकार को इस बारे में नियम बनाने की स्वतंत्रता होती है।

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