Arbitration And Conciliation Act में पार्टी द्वारा Arbitrator की नियुक्ति
Shadab Salim
4 July 2025 5:00 AM

इस एक्ट में Arbitrator की नियुक्ति किसी भी मामले के पक्षकारों द्वारा भी की जाती है। जहाँ मध्यस्थ या मध्यस्थों को नियुक्ति पक्षकारों द्वारा की गई हो, वहां वह तत्काल को मध्यस्य निर्देशित कर मध्यस्थता कार्यवाही प्रारम्भ कर सकते हैं। मध्यस्थ किसी भी राष्ट्रीयता का व्यक्ति को सकता है परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक संव्यवहार से सम्बन्धित विवाद की दशा में दोनों पक्षकारों को राष्ट्रीयता से भिन्न राष्ट्रीयता वाले व्यक्ति को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाना आवश्यक है।
अतः एक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संव्यवहार संबंधी विवाद के मामलों में किसी भारतीय व्यक्ति को मध्यस्थ नियुक्त नहीं किया जा सकेगा। जहाँ विवाद में एक पक्षकार भारतीय है।
यदि दो पक्षकारों में से किसी एक द्वारा मध्यस्थ नियुक्त नहीं किया जाता या पक्षकारों द्वारा नियुक्त किये गये दो मध्यस्थ 30 दिनों की अवधि में तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करने में विफल रहते हैं या सहमत नहीं होते, तो ऐसी स्थिति में पक्षकार के निवेदन पर मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा नामोदिष्ट कोई व्यक्ति या संस्था मध्यस्थ अथवा तीसरे मध्यस्थ यथास्थिति की नियुक्ति करेंगे। इस हेतु पक्षकार संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को आवेदन प्रस्तुत करेगा।
मुख्य न्यायाधीश या उसको नामोदिष्ट व्यक्ति या संस्था इस प्रकार मध्यस्थ की नियुक्ति तभी करेगा जब उसे इस आशय का आवेदन पत्र प्राप्त हो अन्यथा ऐसी नियुक्ति अविधिमान्य होगी।
मध्यस्थ की नियुक्ति हेतु अधिनियम में कोई अर्हता निर्धारित नहीं की गई है और न इसके लिये कोई मार्गदर्शक सिद्धान्त ही प्रतिपादित किये गये हैं। कोर्ट द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति कर दी जाने के बाद उसकी भूमिका समाप्त हो जाती है और उसे मध्यस्थ को निर्देशित करने की शक्ति प्राप्त नहीं है।
वेलिंग्टन एसोसिएट लि बनाम कृति मेहता, एआईआर 2000 सुप्रीम कोर्ट 1379 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अधीन भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति संबंधी कार्यवाही में इस बात पर विचार किया जा सकता है कि पक्षकारों के मध्य मध्यस्थता करार अस्तित्व में है अथवा नहीं।
अतः यह तर्क कि पक्षकारों के मध्य मध्यस्थता करार के अस्तित्व के बारे में विचार करने की अधिकारिता अधिनियम के अनुसार केवल मध्यस्थ या मध्यस्थों को है तथा यह भारत के मुख्य न्यायाधीश की अधिकारिता से अपवर्जित है, सही नहीं है।
पक्षकार आपस में सहमति देकर किसी ऐसे प्राधिकारी को निर्दिष्ट कर सकते हैं जो कि बाद में मध्यस्थ मध्यस्थों की नियुक्ति कर सकता है।
भारत संघ बनाम डी एन रावरी एण्ड कम्पनी, (1997) 1 एससी रिपोर्ट 183 के प्रकरण में मध्यस्थता करार में सचिव खाद्य एवं कृषि विभाग को मध्यस्थ नियुक्त किये जाने का प्रावधान रखा गया था। परन्तु ऐसी नियुक्ति की जाने के पूर्व ही खाद्य एवं कृषि विभाग को दो विभागों अर्थात् खाद्य विभाग तथा कृषि विभाग में विभाजित कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने विनिश्चित किया कि उस परिस्थिति में सचिव खाद्य विभाग नामित कर सकता था, क्योंकि विवाद खाद्य विभाग से संबंधित था।
कार्यपालन यंत्री बनाम गंगाराम (1992) 2 ए एल आर 203 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि चीफ इन्जीनियर, लोक निर्माण विभाग द्वारा राज्य के सुपरिटेंडेंट इन्जीनियर को मध्यस्य के रूप में नियुक्त किया जाना पक्षकारों के मध्य हुये मध्यस्थता करार के अनुसार होने के कारण वैध था तथा इसे केवल इस आशंका के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि मध्यस्थ विभाग का ही यंत्री होने के कारण वह दुर्भावना और द्वेषपूर्ण कार्य करेगा। जब तक कि साक्ष्य के आधार पर ऐसा स्पष्ट रूप से साबित नहीं कर दिया जाता।