घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में अपील से संबंधित प्रावधान

Shadab Salim

16 Oct 2025 8:32 AM IST

  • घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में अपील से संबंधित प्रावधान

    इस एक्ट की धारा 29 अपील से संबंधित है जिसके अनुसार,

    उस तारीख से, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये आदेश की, यथास्थिति, व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी पर जिस पर भी पश्चात्वर्ती हो, तामील की जाती है, तीस दिनों के भीतर सेशन कोर्ट में कोई अपील हो सकेगी।

    धारा 29 मजिस्ट्रेट के द्वारा पारित किये गये किसी आदेश, जो व्यथित व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी, जैसे भी स्थिति हो, पर तामील किया गया हो, के विरुद्ध सत्र कोर्ट के समक्ष अपील के लिए प्रावधान करती है।

    धारा 29 की उपधारा (3) विवाह तथा विवाह विच्छेद से सम्बन्धित किसी विधि के सम्बन्ध में केवल परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों के अनुप्रयोग को वर्जित करती है। चूंकि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम से सम्बन्धित मामले को उक्त अधिनियम की उपधारा (3) में शामिल नहीं किया गया है, इसलिए अवर अपीलीय कोर्ट के समक्ष कार्यवाही को परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों से प्रयोजनीय होने का प्रश्न तथा परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अधीन आवेदन का प्रश्न घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन प्रस्तुत की गई अपील के सम्बन्ध में पोषणीय न होने के कारण उद्भूत नहीं हो सकता है।

    धारा 29 अपील का कथन करती है। यह इस बात को इंगित करती है कि 'आदेश' के विरुद्ध अपील पोषणीय होती है। अधिनियम की धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' की परिधि का अर्थान्वयन करने के लिए पहले विधिक प्रावधान की स्पष्ट भाषा पर विचार करना आवश्यक होगा। यह आदेश के विरुद्ध अपील का कथन करती है। धारा 29 में प्रयुक्त निश्चित आर्टिकिल 'दि' को निश्चित रूप से पहले निर्दिष्ट आदेशों का संदर्भ प्राप्त होना चाहिए। अन्यथा निश्चित आर्टिकिल 'दि' का प्रयोग अपना महत्व खो देगा। संविधि के अध्याय 4 में पहले निर्दिष्ट सभी आदेशों को 'आदेश' की परिधि के भीतर आने के लिए अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए, क्योंकि अधिनियम की धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' के ठीक पहले निश्चित आर्टिकिल 'दि' को समझने का अन्य अथवा अच्छा ढंग नहीं है।

    आदेश को अपनी परिधि के भीतर धारा 18 से 23 के अधीन पारित किये गये सभी आदेशों को लेना चाहिए तथा भाषा तथा शब्दावली के द्वारा धारा 29 में अभिव्यक्ति आदेश" की परिधि से धारा 23 के अधीन पारित किये गये आदेश को अपवर्जित करने अथवा छोड़ने का कोई कारण नहीं है।

    नि:संदेह अनुतोष, जो मजिस्ट्रेट के लिए आवश्यक है और अधिनियम के कतिपय के प्रावधानों के अधीन प्रदान करने के लिए यह प्राधिकृत किया गया। है, सिविल प्रकृति के होते हैं। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि मजिस्ट्रेट उन कार्यों को करते समय दण्ड कोर्ट के रूप में कार्य नहीं कर रहा है। अधिनियम के अधीन शक्ति का प्रयोग करते समय मजिस्ट्रेट दण्ड कोर्ट के रूप में कार्य करता है, हालांकि कार्यवाही अथवा अनुतोष की प्रकृति, जिसे वह कतिपय प्रावधानों के अधीन प्रदान कर सकता है,सिविल प्रकृति के होते हैं।

    किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकार अन्तर्निहित होता है और इसका अधिनियम के प्रावधानों के अधीन उससे अनुतोष की मांग करने के प्रश्न से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। यदि मजिस्ट्रेट यह निश्चित करता है कि व्यक्ति, जिसके विरुद्ध अधिनियम के अधीन कार्यवाही की गई है, को अधिनियम के अर्थान्तर्गत प्रत्यर्थी के रूप में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता है, तब सम्पूर्ण कार्यवाही को समाप्त किया जाना है। ऐसा आदेश, जो अधिनियम के अधीन आवेदकगण के अनुतोष प्राप्त करने के अधिकार की कटौती करता है अथवा ऐसी कार्यवाही हो, जो प्रारम्भ में ही समाप्त हो गई हो, तब उसे अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रयोज्यनीय होना अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए।

    अपील का उपचार अधिनियम की धारा 29 उस तारीख से, जिस पर मजिस्ट्रेट के द्वारा व्यथित व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी, जैसी भी स्थिति हो, पर आदेश पारित किया गया है, से 30 दिन के भीतर अपील के लिए उपचार का प्रावधान करती है तथापि ऐसी अपील ऐसे शुद्ध रूप से प्रक्रियात्मक आदेशों के विरुद्ध पोषणीय नहीं होगी, जो पक्षकारों के अधिकारों तथा दायित्वों को निर्णीत अथवा अवधारित नहीं करते हैं।

    यह मानना भी कि अन्तरिम अनुतोष के लिए धारा 23 के अधीन पारित किया गया अन्तरिम आदेश अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपीलीय होता है, इस कोर्ट द्वारा विनिर्दिष्ट रूप से संप्रेक्षण किया गया है कि अपीलीय कोर्ट उसमें तब हस्तक्षेप करेगा, यदि यह पाया जाता है कि विवेकाधिकार का मनमाने ढंग से, सनकपूर्ण ढंग से प्रतिकूल रूप से प्रयोग किया गया है अथवा यदि यह पाया जाता है कि विचारण कोर्ट में अन्तरिम अनुतोष की मंजूरी अथवा इंकारी को विनियमित करने वाली विधि की सुनिश्चित स्थिति की उपेक्षा की गयी है।

    अपील के अधिकार को अधिकांशतः त्रुटि मनमानेपन तथा अयुक्तियुक्तता के विरुद्ध न्यूनतम प्रक्रियात्मक रक्षोपाय के रूप में जाना जाता है। एक मामले में इस कोर्ट ने अपील के अधिकार से सम्बन्धित प्रावधानों पर विचार करते समय "उदारता की आवश्यकता पर जोर दिया था। अधिनियम की धारा भी उसका निर्वचन करने का प्रयत्न करते समय और धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' की परिधि तथा आयाम को सुनिश्चित करते समय ऐसी उदारता की हकदार होती हैं।

    प्रत्यर्थी ने आक्षेपित आदेश को स्वयं प्रस्तुत किया है, जिसे वह सम्यक् आवेदन करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट से प्राप्त किया है। उसे यह तर्क करने के लिए नहीं सुना जा सकता है कि उसे अपील का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि आदेश उस पर तामील नहीं किया गया है।

    पी चन्द्रशेखर पिल्लै बनाम वालसाला चन्द्रन याची, जो धारा 29 के अधीन अपील के अपने अधिकार का आश्रय नहीं लिया है, न तो मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने के लिए अपने अधिकार का आश्रय लिया है और पहले पारित किये गये अन्तरिम आदेश के निरस्तीकरण/परिवर्तन/उपान्तरण के लिए प्रार्थना किया है, के अनुरोध पर आक्षेपित आदेश के विरुद्ध बी एन एस एस की धारा 510 के अधीन शक्तियों के आश्रय को न्यायसंगत ठहराते हुए कोई परिस्थिति नहीं है।

    याची को मजिस्ट्रेट के समक्ष उपयुक्त तर्क उठाने का विकल्प प्राप्त है और मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 12 (4) और 12 (5) के अधीन उस अभियान की भावना को, जो उससे अपेक्षित है, आत्मसात करने के पश्चात् याचिका को शीघ्रतापूर्वक तथा विधि के अनुसार गुणावगुण पर निस्तारित करने के लिए कार्यवाही करनी चाहिए।

    अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किये गये अन्तिम आदेश के विरुद्ध होगी।

    इस धारा के अधीन अपील केवल अन्तिम आदेश के विरुद्ध पोषणीय है और पुनरीक्षण उस अन्तरिम अनुतोष के विरुद्ध पोषणीय है, जिसका सत्र कोर्ट द्वारा पुनरीक्षण किया जा सकता है।

    धारा 29 के अधीन अन्तरिम एकपक्षीय आदेश के विरुद्ध अपील को स्वीकार करने पर विचार करते हुए कोर्ट निश्चित रूप से इस तथ्य से अवगत होगा कि व्यथित व्यक्ति उस मजिस्ट्रेट के पास पहुँच सकते हैं, जो अन्तरिम आदेश पारित किया था। अधिनियम की धारा 23, सपठित धारा 28 (2) के अधीन परिवर्तन की मांग कर सकते हैं। धारा 29 के अधीन अपील स्वीकार करने के लिए विचार करने वाले कोर्ट को सदैव इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसा अनुक्रम/उपचार व्यक्ति व्यक्ति को उपलब्ध है।

    युक्तियुक्त रूप से प्रज्ञावान व्यक्ति के रूप में कोर्ट निश्चित रूप से इसके बारे में प्रश्न पर विचार करेगा कि उस उपचार का उपयोग किये बिना तथा उसके पहले अपील प्रस्तुत करने के लिए धारा 29 के अधीन प्रावधानों का आश्रय क्यों लिया गया है। परन्तु यह इस बात का कथन करना नहीं है कि अपील पोषणीय नहीं होती है। केवल उपयुक्त मामले में धारा 29 के अधीन शक्तियों का आश्रय लेने की आवश्यकता होती है और अपील स्वीकार की जा सकती है। विवेकाधिकार अपीलीय कोर्ट में निहित होता है। परन्तु अपील को स्वीकार करने की अधिकारिता अथवा सक्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता है।

    इस धारा के अधीन अपील योग्य आदेश कोर्ट आदेशों के वर्गों को संक्षिप्त करना चाहेगी जो धारा 29 के अधीन अपील योग्य होंगे :

    (1) अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन केवल अन्तिम आदेश।

    (2) अधिनियम की धारा 23 के अधीन अन्तरिम/एकपक्षीय आदेश भी अपील योग्य होगा।

    (3) प्रक्रियात्मक परिधि से सम्बन्धित अन्य सभी आदेश अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील योग्य होना आशयित नहीं हैं।

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