Consumer Protection Act में नेशनल फोरम के ऑर्डर के विरुद्ध अपील
Shadab Salim
31 May 2025 3:21 PM IST

इस एक्ट में नेशनल फोरम सुप्रीम पॉवर नहीं है बल्कि उसके ऊपर सुप्रीम कोर्ट भी है जहां नेशनल फोरम के आर्डर के खिलाफ भी अपील हो सकती है। इसके प्रावधान इस एक्ट की धारा 67 में दिए गए हैं जिसके अनुसार
धारा 58 की उपधारा (1) के खंड (क) के उपखंड (i) या (ii) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय आयोग द्वारा किए गए आदेशों से व्यथति कोई व्यक्ति, आदेश की तारीख से तीस दिन की अवधि के भीतर ऐसे आदेशों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट को अपील कर सकेगा :
परंतु सुप्रीम कोर्ट उक्त तीस दिन की अवधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण कर सकेगा, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि उस अवधि के भीतर इसे फाइल न करने का पर्याप्त कारण था
परंतु यह और कि किसी व्यक्ति द्वारा जिससे राष्ट्रीय आयोग के आदेश के निबंधानुसार किसी रकम का संदाय करने के लिए अपेक्षा की जाती है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा तब तक ग्रहण नहीं की जाएगी, यदि उस व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में विहित रीति में उस रकम का पचास प्रतिशत जमा नहीं किया है।
हालांकि अपील का कोई अन्तर्निहित अधिकार नहीं है, परन्तु यदि इस तरह के अधिकार का कोई उपबंध है, तो उसे वाजिब ढंग से व्यावहारिक रूप से तथा उदारतापूर्वक तरीके से पढ़ा जाना चाहिए।
यह धारा राष्ट्रीय आयोग के आदेश के विरुद्ध अपील का समृद्ध अधिकार देती है परंतु इस धारा के अंतर्गत अपील तभी की जा सकती है जब आदेश के अंतर्गत दी गई राशि का 50% सुप्रीम कोर्ट में जमा कर दिया जाता है।
शासकीय सेवा उसकी सेवा शर्तों ग्रेच्युटी या जीपीएफ या उसके सेवानिवृत्त लाभों में से किसी के हेतु कोई भी विवाद अधिनियम के अधीन किमी फोरम के समझ नहीं उठ सकता शासकीय सेवक उपभोक्ता की परिभाषा के अधीन नहीं आता। ऐसा शासकीय सेववक उसके सेवानिवृत्त लाभ उसकी सेवा शर्तों तथा विनियमों अथवा उस प्रयोजन के लिए विरचित वैधानिक नियमों के अनुसार कठोरतापूर्वक दावा करने का पत्र है। समुचित फोरम उसकी किसी ज्यादा के प्रतिपोषण के लिए राज्य प्रशासनिक अधिकरण हो सकती है। यदि कोई हो या सिविल न्यायाय परंतु निश्चित रूप से अधिनियम के अधीन फोरम नहीं।
कामन बान रजिस्टर्ड सोसाइटी बनाम भारत संघ पिटीशनर का सामान्य कारण जो कि एक पंजीकृत संस्था थी जिसे जनता के विवादों का निवारण किया करती थी। इस अधिनियम के आने से 2 वर्ष बाद याचिका दाखिल की जिसमें यह परिवाद किया गया कि अधिनियम के उपबंध भ्रामक है तथा कुछ जिलों को छोड़कर प्रत्येक जिलों में उपचारात्मक मंच नहीं स्थापित किये गये हैं, अतः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सुप्रीम कोर्ट के निर्देश उचित सरकार को देने हेतु याचिका प्रस्तुत की गयी बाबत अधिनियम के उपबंधों के अनुसार अविलम्ब जिला मंच स्थापित किये जाए तथा उनकी जल्दी क्रियान्वयन हो
जहाँ कहीं भी कार्यरत जिला जज जिला मंच व अध्यक्ष बनकर कार्य कर रहे हों तथा कार्य का भार कम से कम मासिक 150 वादों से 6 महीने में अधिक हो तो वह हाईकोर्ट को इसकी संसूचना देगा जो वे प्राप्ति के 6 महीने के भीतर एक स्वतंत्र एवं नियमित जिला मंच जैसा धारा 9 में अभिप्रेत है, नियुक्त करेगा। 6 महीने की समाप्ति पर हाईकोर्ट ऐसे वैकल्पिक व्यवस्था को समाप्त करने को स्वतंत्र होगा तथा राज्य सरकार यू० टी० को सूचना देते हुए जिला जजों को अपने-अपने कार्यों पर वापस बुला देगा तथा फिर यह राज्य सरकार यू टी प्रशासन की जिम्मेदारी होगी कि अधिनियम के ऐसे उपबंधों को कार्यान्वित करने हेतु कोई प्रबंध करें।
उन जिलों में जहाँ कि कार्यभार सुप्रीम कोर्ट के आदेश दिनांक 5-8-1991 से वांछित से पार नहीं करता है तो यह अस्थाई व्यवस्था साल भर तक चलेगी और उस समय के दौरान राज्य सरकार यू टी प्रशासन प्रत्येक जिलों में एक उपभोक्ता मंच गठित करने हेतु कदम उठायेगा या यदि केन्द्र सरकार आज्ञा देती है तो 2/3 जिलों में एक उपभोक्ता मंच का गठन किया जायेगा। सालभर की समाप्ति पर संबंधित हाईकोर्ट इस तरह के अस्थाई व्यवस्था को खत्म कर देगा, जो कि जिला जजों को मंच का अध्यक्ष बना कर काम ले रहा है और इस तरह से राज्य सरकार यू० टी० प्रशासन अधिनियम के उपबंधों को कार्यरूप में परिणित करायेगा।
इस आदेश की एक प्रति प्रत्येक राज्य सरकार यू टी प्रशासन के मुख्य सचिवों को भेजी जावें जिससे कि इस दिशा में अधिनियम के उपबंधों को कार्यरूप में समय भीतर करने हेतु उद्यत हो और अन्ततः उपभोक्ता का हित सुरक्षित किया जा सके।
यदि राज्य उपभोक्ता फोरम ने अपने आदेश में इस प्रकार का उल्लेख किया है कि (मे०) जबलपुर ट्रैक्टर्स गैरेज चार्ज के लिए जो 1800 रुपये की एक रकम का दावा किया, वहीं इसके बाबत एक मामला पहले से ही सक्षम सिविल न्यायालय के समय लंबित या विचाराधीन था, तो ऐसे मामले पर उसके द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता था; कारण कि, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को किसी अन्य विधि के अत्यीकरण में नहीं मान्यता प्रदान किया जा सकता है। अतएव, प्रस्तगत आदेश में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग को प्रतिवादी को कार को सुपुर्द करने का निर्देश देने को न्यायोचित्य नहीं माना गया।
एक अन्य मामले में अपीलकर्ता ने प्रतिवादी द्वारा सीमेण्ट की आपूर्ति करने में सेवा में अर्यात का अभियन किया गया जिसके लिए अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुत किये गये आदेश की संपुष्टि कर दी गयी। यद्यपि राज्य आयोग ने परिवाद को स्वीकृत कर दिया लेकिन अपील में राष्ट्रीय आयोग ने यह अभिनिर्धारित करते हुए परिवाद को खारिज कर दिया कि पक्षकारों के बीच सेवा को किराये पर प्राप्त करने की कोई व्यवस्था नहीं हुई थी किन्तु जब राष्ट्रीय आयोग के विरुद्ध अपील दायर की गयी, तब इसके आदेश को खारिज कर दिया गया और मामले को पुनः विचारणार्थ प्रतिप्रेषित कर दिया गया क्योंकि राष्ट्रीय आयोग का आदेश तकनीकी या जबकि इसको अधिनियम के अधीन प्रावधानों को दृष्टिगत रखते हुए पक्षकारों के अभिवचनों का उचित रूप से मूल्यांकन करने को पश्चात् पारित किया जाना चाहिए था।
सेवा में कमी के आधार पर बीमा कम्पनी के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत किया गया। बीमा कम्पनी अपील के स्टेज पर उन दस्तावेजों को प्रस्तुत करने का हकदार नहीं माना गया जो कि मूल विचारण के स्टेज पर प्रस्तुत नहीं किया गया था।
चिकित्सीय साक्ष्य उपेक्षा के बारे में परिवाद प्रस्तुत किया गया जिसमें यह लांछन लगाया गया कि चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा में उपेक्षा के कारण मरीज पक्षपात में पीड़ित हो गया परिवाद राष्ट्रीय आयोग द्वारा इस आधार पर नहीं स्वीकार किया गया कि परिवाद में दावाकृत प्रतिकर अधिक था। निरस्त किए गये परिवाद से व्यथित होकर उनम न्यायालय में पहुंचा गया। सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया कि राष्ट्रीय आयोग ने निष्पक्षता मे परिवाद का निराकरण नहीं किया। फल रूप आक्षेपित आदेश निरस्त कर दिया गया तथा नये सिरे से निराकरण के लिए मामले को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
जहां विरोधी पक्षकारों की चिकित्सीय उपेक्षा के कारण मृतका को विशाल दर्द, मानसिक पीड़ा एवं कष्ट उपचार के दौरान झेलना पड़ा वहां उसकी मृत्यु के लिए दावेदार को 10 लाख स की एक मुफ्त रकम बतौर प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार माना गया।
यदि अस्पताल जानते हुए उन सुख-सुविधाओं को प्रदान करने में असफल हो जाता है, जो रोगियों के लिए मौलिक है तो यह निश्चित रूप से चिकित्सीय दुराचार की कोटि में आयेगा।
भजनलाल बनाम मूलचन्द स्त्री राम हास्पिटल, 2001 के मामले में चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में केवल प्रत्यर्थी संख्या 1 जिसकी प्रास्थिति अस्पताल को मेडिकल सुपरिण्टेण्डेण्ट की थी को प्रतिकर भुगतान हेतु उत्तरदायी माना गया तथा चिकित्सक पर प्रतिकर भुगतान का व्यक्तिगत दायित्व नहीं नियत निश्चित किया गया।
यदि कोई विवाद नहीं होता तो कोई परिवाद नहीं होगा। ऐसी दशा में राष्ट्रीय आयोग को प्रत्यर्थी को नोटिस जारी किये बगैर तथा इसके समक्ष अपनी प्रतिरक्षा करने की उसको अनुमति प्रदान करने के पूर्व प्रारम्भ से ही परिवाद को खारिज कर देने में न्यायसंगत नहीं माना गया।
परिसीमा के आधार पर परिवाद खारिज किया गया तथा परिव्यय अधिरोपित किया गया। भूखंड आवंटन के विवाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निकाले गये निष्कर्ष के परिप्रेक्ष्य में अपीलार्थी द्वारा राष्ट्रीय आयोग द्वारा अधिरोपित परिव्यय अपास्त करना उचित एवं समुचित विचारण करते हैं कि अपीलार्थी की राज्य आयोग द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध राष्ट्रीय आयोग पहुंचने में पसंद तुच्छ के रूप में वर्णित नहीं की जा सकती। उक्त आदेश केवल राष्ट्रीय आयोग के समक्ष आपत्ति किया जा सकता था या राज्य आयोग को कोई अधिकारिता इसका स्वयं का आदेश पुनः आहूत करने अथवा उपांतरित करने की नहीं थी। आक्षेपित आदेश में अपीलार्थी पर अधिरोपित परिव्यय अपास्त किया गया। राष्ट्रीय आयोग का आदेश कोई हस्तक्षेप हेतु नही कहता।
जहां दुर्घटना में मृत्यु होने के कारण बीमा के दोष का निराकरण इस आधार पर किया गया है कि उसके पास विधिमान्य अनुज्ञति नहीं थी और बीमा संविदा के भंग होने को स्थापित कर दिया गया वहां आक्षेपित आदेश में कोई दुर्बलता नहीं पायी गयी और इसलिए प्रलगत आदेश के विरुद्ध अपील खारिज कर दी गयी।
हालांकि बीमा दावे को इस आधार पर निचली फोरमों द्वारा खारिज कर दिया गया कि दुर्घटना के समय कार भाड़े पर चलाई जा रही थी और वह बीमा पालिसी के बाहर थी, फिर भी बीमा कम्पनी पूर्णतया दावे का निराकरण नहीं कर सकती थी, अतएव उसको 2,50,000/ की समेकित रकम का संदाय करने का निर्देश दिया गया जबकि 5,00,000/- प्रतिकर का दावा किया गया।
एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थी बीमा कम्पनी उस समय स्वामी की क्षतिपूर्ति करने के लिए दायी है जब बीमाकर्ता ने बीमाकृत की कारित हुई हानि के लिए व्यापक पालिसी ग्रहण की है।
बीमा कंपनी एक दूसरे के पश्चात् एक सर्वेक्षक की नियुक्ति करने पर नहीं जा सकती है जिससे कि बीमा कंपनी का सम्बन्धित अधिकारी के समाधान की रिपोर्ट एक टेलर से प्रस्तुत करवा सके।
जहां बीमाकृत यान की चोरी से सम्बनत परिवाद दाखिल किया गया तब राज्य आयोग ने मात्र अवमानक आधार पर प्रत्यर्थी के दावे को अनुज्ञात कर दिया जिसकी पुष्टि राष्ट्रीय आयोग द्वारा कर दी गयी।
एक बस के स्वामी द्वारा व्युत्पन्न की गयी आय (कुल या नेट) उसके आश्रितों को संदेव प्रतिकर की रकम को अवधारित करने का विधितः आधार नहीं हो सकती यदि उसकी मोटर यान दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है।
जहां मृतक ड्राइवर के पास दुर्घटना की तारीख पर विधिमान्य अनुज्ञप्ति नहीं था वहां अपीलार्थी बीमा कंपनी को बीमाकृत वाहन की दुर्घटना में उसके द्वारा झेली गयी हानि के लिए। दावेदार की क्षतिपूर्ति करने के लिए दायी नहीं माना गया।
किसी दुर्घटना में एक व्यक्ति की मृत्यु होने की दशा में, प्रतिकर को अवधारित करते समय उसके भावी संभावना पर अवश्य विचार कियाजाना चाहिए विशेषकर उस एक व्यक्ति की बाबत जो स्वतः नियोजित है और उसकी बाबत जो भावी वेतन वृद्धि के लिए प्रावधानों के बिना एक नियत वेतन पर नियोजित किया जाता है।

