Consumer Protection Act में डिस्ट्रिक्ट फोरम के ऑर्डर के विरुद्ध अपील
Shadab Salim
27 May 2025 9:17 AM IST

इस एक्ट की धारा-41 डिस्ट्रिक्ट फोरम के आर्डर के विरुद्ध अपील का अधिकार देती है।
जिला आयोग द्वारा किए गए किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति ऐसे आदेश की तारीख से 45 दिन की अवधि के भीतर ऐसे प्ररूप और रीति में जो विहित किया जाए, तथ्यों या विधि के आधारों पर राज्य आयोग को ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकेगा
परंतु राज्य आयोग पैंतालीस दिन की उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील ग्रहण कर सकेगा यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि उक्त अवधि के भीतर अपील फाइल न करने के लिए पर्याप्त हेतुक था
परंतु यह और कि किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिससे जिला आयोग के आदेश के निबंधानुसार किसी रकम का संदाय करने की अपेक्षा की जाती है, कोई अपील राज्य आयोग द्वारा तब तक ग्रहण नहीं की जाएगी जब तक कि अपीलार्थी ने ऐसी रीति में जो विहित की जाए उस रकम का पचास प्रतिशत जमा नहीं कर दिया हो:
परंतु यह भी कि धारा 80 के अधीन मध्यस्थता द्वारा समझौता के अनुसरण में जिला आयोग द्वारा धारा 81 की उपधारा (1) के अधीन किसी आदेश से कोई अपील नहीं की जाएगी।
राजकुमार बनाम कला बिहार को आप जी० एच० सोसाइटी के मामले में कहा गया है कि जहाँ परिवादी को किसी व्यक्ति की दुःखद मृत्यु की अंत्येष्टि कियाओं में हाजिर होना था, वहाँ उसकी ओर से अधिवक्ता, हड़ताल होने की वजह से हाजिर नहीं हो सका और इसलिए इस व्यक्तिक्रम में परिवाद को खारिज कर दिया गया। ऐसी दशा में अपीलीय राज्य आयोग ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि परिवादी को उसके अधिवक्ता के द्वारा व्यतिक्रम किये जाने के कारण कष्ट नहीं प्रदान किया जाना चाहिए; तो उसे पर्याप्त कारणों के द्वारा ही फोरम के समक्ष नियत तिथि पर हाजिर होने से रोका गया था।
जब जिला फोरम के आदेश की वैधता को अपीलीय राज्य आयोग के समक्ष चुनौती दी गयी; तब राज्य आयोग इस बारे में सकारण आदेश पारित किया कि अत्याधिक विलम्ब होने के लिए अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत किये गये स्पष्टीकरण को स्वीकृत करना सम्भव नहीं पाया गया। ऐसी दशा में, जहाँ इस राज्य आयोग के निर्णयादेश के विरुद्ध पुनरीक्षण दायर की गयी; वहाँ राज्य आयोग को प्रश्नगत् या संदिग्धार्थी आदेश पारित करने में इसकी अधिकारिता के प्रयोग में किसी तात्विकता अनियमितता के साथ या अधिकारिता के बिना कारित करने वाला नहीं माना जा सकता था।
जब तक न्यायालय के समक्ष एक मामले को दाखिल करने में हुई विलम्ब के लिए तर्कपूर्ण एवं विश्वास करने योग्य स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता तब तक विलम्ब का दोष मार्जन नहीं किया जाता।
एक मामले में आदेश नोटिस की तामील के बगैर जिला फोरम द्वारा पारित किया गया था। इसलिए राज्य आयोग के समय पुनरीक्षण याचिका को दाखिल किये जाने में हुए 265 दिनों के विलम्ब को दोष मार्जित कर दिया जाना चाहिए। अंततोगत्वा अपेक्षित आदेश को अपास्त कर दिया गया तथा मामले को जिला फोरम को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
एक प्रकरण में परिवादी ने यह अभिकथन करते हुए परिवाद संस्थित किया कि विरोधी पक्षकार ने 29.2 किमी के लिए प्रत्येक यात्री से 6.50 रुपये को अधिरोपित किया और जबकि लगभग 30 किमी की दूरी की यात्रा करने के लिए प्रत्येक यात्री से 5.50 रुपये को बी बतौर किराया प्राप्त किया जाना चाहिए था। उसे यह निर्देश किया गया कि प्रत्येक यात्री से कथित किराये को 5.50 रुपये की सीमा तक प्राप्त किये जाने वास्ते समय नियत करे।
ऐसी परिस्थितियों में जब जिला फोरम ने यह अभिनिर्धारित किया कि विरोधी पक्षकार ने कथित यात्रियों पर 6.50 रुपये अधिरोपित करके उनके प्रीत सेवा में कमी कारित किया और इसलिए उन्हें प्रति यात्री से 5.50 रुपये की नियत दर से ही किराया वसूलने का निर्देश दिया, तब इस निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर की गयी और यह अभिनिर्धारित किया गया कि उपभोक्ता फोरम के पास; राज्य परिवहन प्राधिकारी की किराये को संशोधित करने तथा नियत की कोई अधिकारिता नहीं होती और इसलिए जिला फोरम के आदेश को त्रुटिपूर्ण एवम् असंधारणीय माना गया।
हालांकि परिवादी ने विरोधी पक्षकार के विरुद्ध प्रतिकर के लिए एक परिवाद संस्थित किया; लेकिन जिला फोरम ने इसे व्यतिक्रम मे खारिज किया। आगे जब प्रत्यावर्तन आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया कि व्यतिक्रम में खारिज किये गये मामले के प्रत्यावर्तन के लिए अधिनियम के अधीन कोई प्रावधान नहीं किया गया है; तब इस निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर की गयी और जिसके परिणाम यह निर्णीत किया गया कि जिला फोरम के पास अर्धन्यायिक शक्ति होती है और वह सिविल न्यायालय की भी कुछ शक्तियाँ रखता है।
यही नहीं बल्कि जिला फोरम, के पास में खारिजी के आदेश को प्रत्यावर्तित करने की उसमें अन्तर्निहित शक्ति होती है यदि उसके हाजिर न होने के लिए पर्याप्त कारण को प्रदर्शित कर दिया जाए। अतएव, जिला फोरम के आदेश को अपास्त कर दिया गया और परिवादी के प्रत्यावर्तन के लिए आवेदन पत्र पर पुनः विचार करने का निर्देश दिया गया।
जिला मंच के आदेश की तारीख से 4 माह का बिलंब देरी की माफी- प्रफुल्ल कुमार जैन बनाम डॉ० आलोक कुमार सिंह अपीलार्थी का यह तर्क था कि राज्य के अराजपत्रित कर्मचारियों की हड़ताल के उस दौरान वह क्या आदेश हुआ था न जान सका। यह नहीं पाया गया कि तर्क प्रस्तुत कर रही पार्टी को आदेश की कापी भेजी गयी जैसा कि बिहार उपभोक्ता संरक्षण नियम के नियम 4 (1) में विधि है जो प्रस्तुत की गयी वह जिलामंच के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वांछित समय के अंदर प्रस्तुत न किये जाने का पर्याप्त कारण था।
जहां जिला फोरम के विनिश्चय के विरुद्ध अपील दायर की गयी और यह प्रतिवाद किया गया कि परिवाद अपरिपक्व था। वहां कथित प्रतिवाद को उचित माना गया और मामले को प्रतिप्रेषित कर दिया गया।
जहां विरोधी पक्षकार 7 को अभिनिर्धारित करने वाले जिला फोरम के आदेश के विरुद दायर की गयी जबकि विरोधी पक्षकार-7 विरोधी पक्षकार 1 बैंक का एक भागीदार था। इसके अलावा जहां परिवादी न तो विरोधी पक्षकार-1 के एक भागीदार के रूप में विरोधी पक्षकार 7 के रूप में अभिकथन कर रहा था और विरोधी पक्षकार -1 के साथ संव्यवहार में ऋण जिनकी शिकायत की गयी, में विरोधी पक्षकार 7 के किसी भी संगत को उपदर्शित करने वाली सामगरी अभिलेख पर थी। वहां विबन्ध द्वरा कथित भागीदार की वही स्थिति होगी जो विरोधी पक्षकार -4 की होगी।
जहां ब्याज सहित पट्टा धन का भुगतान करने के लिए जिला फोरम के निर्देश के विरुद्ध अपील दायर की गयी और बकाया पट्टे सम्बन्धी धन का संदाय क्रेता द्वारा नहीं किया गया वहा जब वर्धित ब्याज की मांग की गयी; तब ब्याज की दर 1.6.1992 से भुगतान किया जाने तक घटाकर 9% कर दिया गया।
सीनियर डिवीजनल मैनेजर एल आई सी तंजोर बनाम श्रीमती जय लक्ष्मी अम्मत, 1994 का एक मामला था। यह मामला केवल प्रिमियम प्राप्त करने का न था। यह मामला था प्रिमियम को स्वीकार करने का तथा बीमा संविदा का अस्तित्व में आने का। इसमें वाद लाने का अधिकार वाद फार्म की तिथि से नहीं उठता है बल्कि उस दिन जिस दिन दावा इंकार कर दिया जाता है। यह पता न चल सका कि किस दिन दावा निरस्त किया गया और ऐसा प्रतीत होता है कि जब परिवाद प्रस्तुत किया गया दावा अस्वीकार नहीं किया गया।
अतः समय सीमा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। जिलामंच ने विपक्षी को यह निर्देश दिया कि वह बीमा राशि 50000/- मय 24% मय ब्याज के साथ अदा करे और यह अभिनिर्धारित किया जिलामंच के आदेश का संशोधन इस हक तक किया जाता है कि ब्याज दर 24% वार्षिक से घटाकर 15% सालाना किया जाता है सूचना के दिन से भुगतान तक। और बाकी आदेश जिलामंच का ज्यों का त्यों बरकरार रहेगा।
जीवन बीमा निगम द्वारा दावा इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि मृतक द्वारा बीमा की बात पालिसी लेने के समय छिपाई गयी थी। बीमा के पहले बीमा निगम के डाक्टर द्वारा मृतक की जांच की गयी थी। मृतक को पीलिया रोग था। पीलिया रोग छिपा नहीं रह सकता। निर्णीत कि बीमा कम्पनी प्रतिकर भुगतान हेतु बाध्य है।
नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम उदयपुर सहकारी उपभोक्ता चोक भण्डार लिमिटेड, 1997 के वाद में परिवादी ने फीडल्टी गारंटी पालिसी करायी कर्मचारी ने रकम का दुर्विनियोग किया। दावा दर्ज किया गया, किन्तु इसका निराकरण कर दिया गया। परिवादी द्वारा जिलाफोरम के समक्ष परिवाद दायर किये जाने पर यह निर्णीत किया गया कि विरोधी पक्षकार परिवादी को 1,000 रुपये बतौर प्रतिकर संदाय करने के लिए उत्तरदायी है।
लेकिन, कथित निष्कर्ष के विरुद्ध अपील दायर किये जाने पर अपीलीय न्यायालय ने पूर्वोत्तर संबंधित कर्मचारी की एक दूसरी गलती यह करने का दोषी माना कि उसने महत्वपूर्ण सूचना छिपायी थी। अतएव, जहां परिवादी ने विरोधी पक्षकार की जानकारी के बिना ही तथा उसी कर्मचारी को लगातार उसकी अनुमति प्राप्त किये बिना ही धन का संदाय करता रहा, वहां इसे स्पष्टरूपेण कथित पालिसी की शर्तों का उल्लंघन माना जायेगा और इस तरह से परिवादी के दावे का निराकरण किया जाना भी न्यायसंगत निर्णीत करने योग्य था।

