क्या सुप्रीम कोर्ट के अनुसार Arbitrators का शुल्क तय करने में पक्षकार की सहमति अनिवार्य है?
Himanshu Mishra
24 Feb 2025 3:37 PM

Arbitration (मध्यस्थता) एक ऐसा तरीका है जिससे कानूनी विवादों (Legal Disputes) का हल जल्दी, गोपनीयता (Confidentiality) और लचीलापन (Flexibility) के साथ निकाला जाता है। लेकिन, यह सवाल कई बार उठता है कि Arbitrators (मध्यस्थ) अपने Fees (शुल्क) खुद तय कर सकते हैं या नहीं? सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को स्पष्ट किया है और पार्टी स्वायत्तता (Party Autonomy) तथा कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) पर जोर दिया है।
भारत में Arbitrators (मध्यस्थ) के Fees (शुल्क) का कानूनी ढांचा (Legal Framework)
Arbitration और Conciliation अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996) भारत में Arbitration (मध्यस्थता) के लिए एक विस्तृत संरचना (Comprehensive Structure) प्रदान करता है। इस अधिनियम की चौथी अनुसूची (Fourth Schedule) Arbitrators (मध्यस्थों) के शुल्क को निर्धारित करने के लिए एक मार्गदर्शक (Guiding Principle) का काम करती है।
कानून पार्टी स्वायत्तता (Party Autonomy) को एक मूल सिद्धांत (Fundamental Principle) के रूप में मान्यता देता है, जिससे पक्षकार (Parties) Arbitration (मध्यस्थता) की प्रक्रिया और Fees (शुल्क) तय कर सकते हैं। लेकिन समस्या तब आती है जब Arbitrators (मध्यस्थ) बिना पक्षकारों की सहमति के अपने Fees (शुल्क) स्वयं तय करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला (Supreme Court's Ruling)
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि Arbitrators (मध्यस्थ) अपने Fees (शुल्क) खुद तय नहीं कर सकते। अदालत ने पार्टी स्वायत्तता (Party Autonomy) के सिद्धांत को मजबूत करते हुए कहा कि Arbitrators (मध्यस्थ) को वही शुल्क स्वीकार करना होगा जो पक्षकारों द्वारा तय किया गया हो। यदि कोई मध्यस्थ तय शुल्क को स्वीकार नहीं करता तो उसे Arbitration (मध्यस्थता) स्वीकार नहीं करनी चाहिए।
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण मामलों (Important Cases) का हवाला दिया:
• NHAI बनाम Gayatri Jhansi Roadways Ltd. (2020) – अदालत ने कहा कि Arbitration (मध्यस्थता) समझौते में तय किया गया शुल्क बाध्यकारी (Binding) होता है।
• Union of India बनाम Singh Builders Syndicate (2009) – अदालत ने Arbitrators (मध्यस्थों) द्वारा अत्यधिक शुल्क लेने की समस्या को स्वीकार किया।
• Sanjeev Kumar Jain बनाम R.S. Charitable Trust (2012) – अदालत ने कहा कि अत्यधिक Arbitration (मध्यस्थता) लागत विवाद समाधान (Dispute Resolution) के उद्देश्य को कमजोर कर सकती है।
अंतरराष्ट्रीय प्रथाओं की तुलना (Comparative Analysis: International Practices)
सुप्रीम कोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय संस्थानों (International Institutions) और अन्य देशों में प्रचलित प्रथाओं का विश्लेषण किया:
• UNCITRAL Rules (नियम) Arbitrators (मध्यस्थों) को शुल्क तय करने की अनुमति देते हैं लेकिन नियुक्त करने वाले प्राधिकरण (Appointing Authority) से परामर्श करना आवश्यक होता है।
• ICC, LCIA, SIAC और HKIAC Rules – इन संस्थानों (Institutions) में शुल्क संस्थान द्वारा तय किया जाता है, न कि Arbitrators (मध्यस्थों) द्वारा।
• इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका – इन देशों में Arbitrators (मध्यस्थों) के शुल्क को नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट नियम बनाए गए हैं।
चौथी अनुसूची (Fourth Schedule) की व्याख्या (Interpretation)
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि चौथी अनुसूची में "विवाद की राशि" (Sum in Dispute) का अर्थ दावा (Claim) और प्रत्युत्तर दावा (Counterclaim) दोनों की कुल राशि (Cumulative Amount) से है। Arbitrators (मध्यस्थ) इसे अलग-अलग दिखाकर अतिरिक्त शुल्क नहीं वसूल सकते। अधिकतम सीमा (Ceiling) रुपये 30,00,000 निर्धारित की गई है ताकि Arbitrators (मध्यस्थ) अनुचित रूप से अधिक शुल्क न ले सकें।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि Arbitrators (मध्यस्थ) को पार्टी स्वायत्तता (Party Autonomy) और कानूनी दिशानिर्देशों (Legal Guidelines) का पालन करना चाहिए। वे अपने Fees (शुल्क) खुद तय नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करना Arbitration (मध्यस्थता) के मूल सिद्धांतों के खिलाफ होगा। इस निर्णय से निष्पक्षता (Fairness), पारदर्शिता (Transparency) और कानून के अनुपालन (Compliance) को बढ़ावा मिलेगा, जिससे भारत में Arbitration (मध्यस्थता) प्रणाली और अधिक मजबूत होगी।