जैसा कि हम जानते ही हैं, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का अध्याय 9, 'साक्षियों के विषय में' प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत धारा 118 यह बताती है कि कौन व्यक्ति टेस्टिफाई करने में सक्षम है, हालाँकि, इस धारा के अंतर्गत किसी ख़ास वर्ग के व्यक्तियों या श्रेणी के व्यक्तियों की सूची नहीं दी गयी है।
गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत, ऐसी कोई आयु भी नहीं दी गयी है, जो गवाह के गावही/बयान/साक्ष्य देने की योग्यता के प्रश्न को निर्धारित करती हो।
मसलन, यह धारा सिर्फ यह कहती है कि वे सभी व्यक्ति अदालत के समक्ष, गवाही/बयान दे सकते हैं जो उनसे किए गए प्रश्नों (अदालत द्वारा) को समझने एवं उन प्रश्नों के युक्तिसंगत उत्तर देने में सक्षम हैं| इसी धारा के अंतर्गत एक बाल-गवाह (Child Witness) द्वारा दिए गए साक्ष्य के क्या मायने होंगे, हम यह भी आगे समझेंगे।
पर आगे बढ़ने से पहले, आइये भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 को पढ़ लेते हैं।
यह धारा यह कहती है:-
118. कौन साक्ष्य दे सकेगा — सभी व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए सक्षम होंगे, जब तक कि न्यायालय का यह विचार न हो कि कोमल वयस, अतिवार्धक्य शरीर के या मन रोग या इसी प्रकार के किसी अन्य कारण से वे उनसे किए गए प्रश्नों को समझने से या उन प्रश्नों के युक्तिसंगत उत्तर देने से निवारित हैं|
स्पष्टीकरण — कोई पागल व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए अक्षम नहीं है, जब तक कि वह अपने पागलपन के कारण उससे किए गए प्रश्नों को समझने से या उनके युक्तिसंगत उत्तर देने से निवारित न हो|
अब यहाँ यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि धारा 118 के अंतर्गत, अदालत के ऊपर यह एक जिम्मेदारी डाली गयी है या यह कहें कि इसे अदालत के विवेक पर छोड़ा गया है कि वह यह देखे कि क्या एक व्यक्ति, जो गवाह के रूप में उसके समक्ष उपस्थित हो रहा है, वह अदालत द्वारा उसके समक्ष रखे गए सवालों को समझने में एवं उनका युक्तिसंगत (rational) जवाब देने में सक्षम है अथवा नहीं।
अब यदि कोई गवाह बहुत ही छोटा बच्चा/बच्ची है, यह वह बहुत वृद्ध है या वह मानसिक बीमारी से जूझ रहा है, और जिसके चलते अदालत को यह लगता है कि ऐसा व्यक्ति अदालत द्वारा उसके समक्ष रखे गए सवालों को समझने में एवं उनका युक्तिसंगत (rational) जवाब देने में सक्षम नहीं हो सकेगा तो ऐसे व्यक्ति को टेस्टिफाई करने में सक्षम नहीं माना जायेगा।
बाल-गवाह की स्थिति
यदि हम भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 को देखें तो हम यह पाएंगे कि चूँकि यह धारा, किसी गवाह के अदालत के समक्ष गवाही देने में क्षमता के लिए एक विशेष कारक के रूप में किसी विशेष उम्र को निर्धारित नहीं करती है, इसलिए एक कम आयु के बच्चे को भी गवाही/साक्ष्य देने की अनुमति दी जा सकती है (यदि ऊपर बताई गयी शर्ते पूरी हो जाएँ)।
हालाँकि, यह जरुर है कि उसके पास अदालत द्वारा उसके समक्ष रखे गए प्रश्नों को समझने और उसका तर्कसंगत उत्तर देने की बौद्धिक क्षमता मौजूद होनी चाहिए। यह बात जस्टिस ब्रेवर द्वारा, व्हीलर बनाम यूनाइटेड स्टेट्स (159 U. S. 523) के मामले में भी साफ़ तौर पर कही गयी थी।
गौरतलब है कि 'ओथ्स एक्ट, 1969' की 'धारा 4' के अनुसार, सभी गवाहों को शपथ या सत्योक्ति (oath or affirmation) लेने की आवश्यकता होती है, परन्तु 12 वर्ष से कम उम्र के किसी बालक/बालिका के गवाहों को इससे छूट दी गयी है।
इसलिए, यदि न्यायालय इस बात को लेकर संतुष्ट है कि 12 वर्ष से कम उम्र का बच्चा एक सक्षम गवाह है, तो न्यायालय द्वारा, इस तरह के गवाह की शपथ या सत्योक्ति लिए बिना, उसकी जांच की जा सकती है - दत्तू रामराव सखारे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1997) 5 SCC 341।
क्या संपुष्टि (Corroboration) है आवश्यक?
इस बारे में शीर्ष अदालत की एक साफ़ राय यह रही है कि एक बाल-गवाह की गवाही पर भरोसा किया जा सकता है, अगर अदालत को यह पता चलता है कि उसके पास शपथ के दायित्व की पर्याप्त बुद्धिमत्ता और समझ है। सावधानी के रूप में, अदालत को बाल-गवाह की गवाही/बयान के लिए पर्याप्त पुष्टि (Corroboration) प्राप्त करनी चाहिए।
यदि बाल-गवाह की गवाही/बयान को विश्वसनीय और सत्य पाया जाता है, और रिकॉर्ड पर अन्य साक्ष्य द्वारा उसकी पुष्टि की जाती है, तो इसे बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार किया जा सकता है। गौरतलब है इस नियम को अदालत द्वारा कानून के नियम के बजाय, एक व्यवहारिक नियम के तौर पर देखा गया है।
दत्तू रामराव सखारे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1997) 5 SCC 341 के मामले में यह आयोजित किया गया था कि इस बात का कोई नियम नहीं है कि केवल बाल गवाह की गवाही के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराए जा सकता है। हालांकि, समझदारी के एक नियम के रूप में, न्यायालय का यह मानना है कि अन्य भरोसेमंद सबूतों से बाल-गवाह की गवाह की संपुष्टि वांछनीय है।
वहीँ, पंछी एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [1998 (7) SCC 177] के मामले में यह माना गया था कि एक बाल-गवाह की गवाही/साक्ष्य का अधिक सावधानी के साथ, मूल्यांकन किया जाना चाहिए। बाल गवाह की गवाही को पर्याप्त पुष्टि (Corroboration) प्राप्त होनी चाहिए, और यह नियम कानून के नियम से अधिक, व्यावहारिक ज्ञान का नियम है।
बाल गवाह के साक्ष्य की करीबी से जांच है आवश्यक
इसके अलावा, सूर्यनारायण बनाम कर्नाटक राज्य 2001 Cri। L।J। 705 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ किया गया था कि एक बाल-गवाह की गवाही को प्रथम दृष्टया खारिज करने की आवश्यकता नहीं है;
लेकिन हाँ, न्यायालय के लिए यह जरुर आवश्यक है कि वह, विवेक के एक नियम के रूप में, बाल-गवाह की गवाही की करीबी से जांच करे और केवल तब, जब वह उसकी गुणवत्ता और विश्वसनीयता के बारे में आश्वस्त हो जाये, वह अपने विश्वास को उसपर आधारित कर सकता है।
एक बाल गवाह की गवाही की अदालत द्वारा गंभीरता से जांच की जानी इसलिए भी आवश्यक हो जाती है क्योंकि, चूँकि एक बच्चा अतिसंवेदनशील होता है और इसलिए वह दूसरों के बहकावे में आ सकता है, और इस प्रकार से वह ट्यूटरिंग का एक आसान शिकार हो सकता है। इस बात को पंछी एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [1998 (7) SCC 177] के मामले में भी रेखांकित किया गया था।
पप्पू एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य CRA No. 968 of 2012 के मामले में वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने यह देखा था कि बाल-गवाह की एक प्रारंभिक जांच का आयोजन, महज सावधानी (prudence) का नियम है और न्यायाधीश पर इसको लेकर कोई कानूनी बाध्यता नहीं है।
अदालत ने यह भी माना था कि यह वांछनीय है कि प्रारंभिक जांच के बाद, न्यायालय द्वारा इस बाबत रिकॉर्ड बनाया जाए जिसमें यह राय रखी जाये कि मौजूदा बाल-गवाह, सच बोलने के कर्तव्य को समझता है।
बाल गवाह की क्षमता की जांच कैसे की जाए?
जस्टिस ब्रेवर द्वारा, व्हीलर बनाम यूनाइटेड स्टेट्स (159 U. S. 523) के मामले में यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि एक बाल-गवाह को पहले एक सक्षम गवाह बनना होगा, उसके बाद ही उसका बयान स्वीकार्य होता है।
यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि एक बाल गवाह की योग्यता का निर्धारण करने के लिए न्यायाधीश को अपनी एक स्वतंत्र राय बनानी होती है। न्यायाधीश, बाल-गवाह की क्षमता का परीक्षण करने की स्वतंत्रता रखता है और कोई भी सटीक नियम बाल गवाह के विवेक और ज्ञान को निर्धारित करने के लिए नहीं बनाया जा सकता।
इस सवाल पर निर्णय, कि क्या एक बाल गवाह के पास पर्याप्त मानसिक स्तर/बुद्धि/मानसिक परिपक्वता मौजूद है, मुख्य रूप से ट्रायल जज के द्वारा लिया जाता है, जो बाल-गवाह के शिष्टाचार, बुद्धिमत्ता या उसकी कमी को नोटिस करता है - निव्रुति पांडुरंग कोकाटे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2008) 12 एससीसी 565।
उक्त न्यायाधीश द्वारा ऐसा निर्णय लेने के लिए, किसी भी प्रकार की परीक्षा (बाल-गवाह की) का सहारा लिया सकता है, जो उस बाल-गवाह की क्षमता और बुद्धिमत्ता का खुलासा करे। साथ ही ऐसी परीक्षा से शपथ के दायित्व के बारे में उसकी समझ भी उजागर हो - रतनसिंह दलसुखभाई नायक बनाम गुजरात राज्य (2004) 1 SCC 64।
हाल ही में, पी. रमेश बनाम राज्य [Criminal Appeal No. 1013 of 2019 (@SLP (Crl.) No. 4169 of 2018)] के मामले में न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की शीर्ष अदालत की पीठ ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 और बाल-गवाह के बारे में स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि, किसी भी उम्र का व्यक्ति अदालत में गवाही देने के लिए सक्षम है यदि वह
(i) एक गवाह के रूप में रखे गए प्रश्नों को समझने में सक्षम है, और
(ii) ऐसे प्रश्नों के उत्तर देता है जिन्हें समझा जा सकता है।
कम आयु के एक बच्चे को भी गवाही देने की अनुमति दी जा सकती है यदि उसके पास प्रश्नों को समझने और तर्कसंगत उत्तर देने के लिए बौद्धिक क्षमता है। एक बाल-गवाह केवल तभी अक्षम हो सकता है, जब अदालत यह मानती है कि बच्चा प्रश्नों को समझने और उनका सुसंगत जवाब देने में असमर्थ है।
अंत में, यह कहा जा सकता है कि यदि बाल-गवाह, अदालत द्वारा उससे किये किए गए प्रश्नों को समझता है, और उन सवालों के तर्कसंगत जवाब देता है तो यह माना जा सकता है कि वह एक सक्षम गवाह है जिसकी अदालत द्वारा जांच की जा सकती है।
एक बाल-गवाह केवल तभी गवाही/साक्ष्य देने में अक्षम माना जायेगा जब अदालत को यह लगे कि बाल-गवाह, अदालत के सवालों को समझने और उनका एक सुसंगत और समझदार तरीके से जवाब देने में असमर्थ है।